Tuesday, June 23, 2009

हीन भावना से ऐसे उबरें - एक और सुझाव

हीन भावना से ऐसे उबरें पर इलाहाबाद में रहने वाले मेरे एक पत्रकार मित्र के मित्र श्री कुलदीप ने सुझाव दिया है कि हीन भावना से उबरना हो तो जमकर गालियां दो, सभी समस्याएं दूर हो जायेंगी। किसी की बातों को खींचना निश्चित रूप से आदर्श शिष्टाचार की बात नहीं है, पर कुलदीप भाई से माफी के साथ उनकी बातों पर सिलसिला थोड़ा बढ़ाना चाहता हूं। निश्चित ही कुलदीप भाई मजाकिया किस्म के इंसान होंगे और मजाकिया किस्म के इंसान मजाक-मजाक में गाली दे डालते हैं। ऐसा वे इसलिए कर पाते हैं कि वे सामने वाले को जानते हैं और सामने वाला भी उन्हें पहचानता है। इस जान-पहचान का नतीजा होता है कि सामने वाला गालियों का बुरा नहीं मानता।
पर, जिस हीन भावना से उबरने की बात सीरीज में चल रही थी, बाहैसियत उस मिजाज के यदि गाली देने पर अमल किया गया तो यही माना जायेगा कि व्यक्ति हीन भावना से ग्रसित है और उसी के जेरेसाया गालियां बक रहा है। कुलदीप भाई ने बहुत गलत नहीं कहा है। निराशा, हताशा की स्थिति में लोग ऐसा भी करते है।गालियां देते हैं और खासकर सुनाने के अंदाज में गालियां देते हैं। मेरा मानना है कि गालियां बकना हीन भावना से ग्रसित होने का ही परिचायक है, न कि इससे निकलने का उपाय। मेरा मतलब यह है कि यदि आप गाली दे रहे हैं तो यह साबित कर रहे हैं कि आप हीन भावना के शिकार हैं।
मेरा मानना है, गालियां देने से समस्या का निदान नहीं हो सकता। ऐसा कर आप अपनी जुबान तो खराब करेंगे ही, इसके कुछ खतरे भी आपको झेलने पड़ सकते हैं। गाली देने के एवज में आपको उससे भी बड़ी-बड़ी गाली सुननी पड़ सकती है। और बड़ी गाली खाकर आप जिद पर आये, कोई और एक्शन लिया तो मामला मार-पिटाई पर उतर सकता है। इसमें भी खतरा यह है कि यदि आप कमजोर पड़े तो पिट भी सकते हैं। और ख्याल कीजिएगा, गाली देने वाला व्यक्ति जब कहीं पिटता है तो उसे बचाने वाले भी कम ही दिखते हैं। गाली देने वाले को सोसाइटी में कभी अच्छा नहीं माना गया। उल्टे लोग उससे किनारा कर जाते हैं। हीन भावना से उबरने के लिए आप गाली देने लगे तो निश्चित ही उन लोगों के आपसे दूर हो जाने का खतरा है, जो आपके हमदर्द, हमकरीब और हमकदम हैं।
दरअसल, हीन भावना एक तुलनात्मक सोचों वाली मानसिक स्थिति है, जिसमें फंसा व्यक्ति अपनी स्थिति से ज्यादा दूसरों की स्थिति के अध्ययन में उलझकर अपना सर्वस्व चौपट कर रहा होता है। क्या इसका निदान गाली देने से संभव हो सकता है? नहीं, कुलदीप भाई, बिल्कुल नहीं। जरा सोचिए, गाली देने से आपकी स्थिति में क्या फर्क पड़ेगा? जिसकी तुलना से आप हीन भावना से ग्रसित हुए, उस पर क्या फर्क पड़ेगा? मेरा मानना है- कुछ भी नहीं। गाली देकर थोड़ी देर के लिए संतुष्ट भले हो लें, पर यह एक और अवसाद की ओर ले जायेगा। हीन भावना से ग्रसित व्यक्ति के लिए अवसाद की एक और अवस्था खतरनाक ही कही जा सकती है। इसलिए गाली नहीं। गाली दुर्जनता की पहचान है, और हीन भावना से ग्रसित व्यक्ति को इस राह पर आगे बढ़ने की सलाह कतई नहीं दी जा सकती।
फिलहाल कुलदीप भाई को धन्यवाद और सबसे ज्यादा धन्यवाद उस पत्रकार मित्र को , जिन्होंने कुलदीप भाई की प्रतिक्रिया मेरे मेल पर भेजी और एक और मसले पर विचार करने का अवसर दिया।

व्यक्ति यदि साहस दिखाये तो बड़े से बड़े लक्ष्य को हासिल कर सकता है।

Thursday, June 18, 2009

हीन भावना से ऐसे उबरें (अंतिम)

हीन भावना से उबरने की चर्चा में एक अहमतरीन बात जो कहना चाहूंगा, वह यह कि वह भी क्या आदमी है जो आदमी को देखकर हीन भावना से ग्रसित हो जाये। सोचिए, कितनी बेवकूफी की बात है कि कोई कार में बैठकर सर्र से बगल से निकल गया और कोई हीन भावना से ग्रसित हो गया। किसी ने कीमती शर्ट पहन ली और कोई हीन भावना से ग्रसित हो गया। किसी को दो चार लोगों ने सलाम ठोक दिया और उसे देखकर कोई हीन भावना से ग्रसित हो गया। किसी का साथी प्रोन्नति पा गया और प्रोन्नति न पाने वाला साथी हीन भावना से ग्रसित हो गया। यह बिल्कुल बेवकूफी की बातें हैं। पूरा मामला ही मानसिक असंतुलन का है। यह बिल्कुल व्यक्ति की सोचों पर डिपेंड करता है कि वह किन परिस्थितियों में हीन भावना से ग्रसित हो और किन परिस्थितियों में नहीं हो। हीन भावना जैसी कोई चीज होती ही नहीं, होनी ही नहीं चाहिए।
इसके लिए मेरी छोटी समझ में जो बातें आती हैं, उन्हें यहां रखना चाहता हूं। जरा इस पर विचार कीजिए कि इंसानों के इस जंगल में एक इंसान का शक्ल तक दूसरे से नहीं मिलता तो एक इंसान की फितरत, सोचें, उसके मिजाज कैसे दूसरे से मेल खायेंगे? हर व्यक्ति का अलग वजूद है, अलग अहमियत है, अलग खासियत है, अलग गुण है। गांधी गांधी हैं, नेहरू नेहरू। उनकी पहचान और महत्ता तक अलग-अलग परिभाषित है। न्यूटन भी आदमी थे और आइंस्टीन भी। बुद्ध और महावीर के बारे में सोचिए। इन सभी ने एक दूसरे के जैसा क्या कभी होने की कोशिश की? अगर एक दूसरे के जैसा होने की उन्होंने कोशिश की होती तो क्या जमाना उन्हें उस रूप में याद करता, जिस रूप में वे आज याद किये जाते हैं? सब गड्ड-मड्ड हो गया होता न?
मेरा मानना है कि दूसरों को देखकर हीन भावना से ग्रसित होने के बजाय आप खुद को देखने की कोशिश शुरू कीजिए। अपनी खासियत, अपनी सलाहियत और अपने वजूद को परिभाषित करने की दिशा में आप जितना सचेष्ट होंगे, उतना ही हीन भावनाओं के घेऱे से दूर निकलते जायेंगे। इतना ही नहीं, आप उनके लिए भी प्रेरणादायक बन जायेंगे, जिन्हें देखकर और कोसकर आप हीन भावना के शिकार होते हैं। याद रखिए, जिंदगी कभी तुलनाओं में अपना रास्ता नहीं तलाशती। जिंदगी का मुकाम मेहनतों और कोशिशों पर टिका होता है। जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान। यह कहावत भी आपने सुनी होगी, जिन ढूंढ़ा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ। मेहनत से जी चुराने वाले ही हीन भावना से ग्रसित हो सकते हैं। जिन्होंने मेहनत की ठान ली, वे जय-पराजय की बात करते हैं। जीते तो जश्न मनाते हैं, हारे तो अगली लड़ाई की तैयारी करते हैं। और यहां एक दिलचस्प बात कहना चाहूंगा-विश्व भर में या तो युद्ध चलता है या युद्ध की तैयारी चलती है। तैयारी का क्षण कोई हीन भावना से ग्रसित होने के रूप में बिताना या मनाना चाहे तो उसे आप क्या कहेंगे, बेवकूफ ही न?
फिलहाल इतना ही। व्यक्तित्व विकास के सिलसिले में हीन भावना से उबरने की संभावनाओं पर चर्चा यहीं संपन्न करता हूं। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। मेरी समझ से हीन भावना से उबरने की दिशा में सूत्र तलाशते चार आलेखों से व्यक्तित्व विकास के लिए सक्रिय सज्जनों को काफी मदद मिलेगी। धन्यवाद।

यूं ही छोड़ देने से परिस्थितियां ठीक नहीं होतीं।

Tuesday, June 16, 2009

हीन भावना से ऐसे उबरें (3)

हीन भावना का मतलब ही है कमजोरी, लाचारी, बेबसी। आप हीन भावना से तब तक नहीं उबर सकते, जब तक आप खुद को कमजोर, लाचार और बेबस बनाये रखते हैं। हीन भावना से उबरने का एकमात्र जो तरीका है, वह यह है कि आप जिस फील्ड में हैं, जहां भी हैं, वहां खुद को मजबूत, सक्षम और सामर्थ्यवान बनाये रखिए। यदि नहीं हैं तो इस दिशा में आज से ही प्रयास शुरू कर दीजिए। ध्यान रखिए, कोशिशें अकसर कामयाब हो जाती हैं।
घर से बात शुरू करते हैं। आपका कोई भाई, आपकी कोई बहन आज्ञाकारी है, पढ़ने में तेज है, क्लास में फर्स्ट आता-आती है तो निश्चित रूप से उन्हें मां-पिता का प्यार आपसे अधिक मिलेगा। ऐसी परिस्थिति में आपके हीन भावना से ग्रसित होने की संभावना बनती है और उपाय यही है कि आप भी आज्ञाकारी बनिए, पढ़ाई पर ध्यान दीजिए और अभिभावक की उम्मीद पर खरा उतर कर दिखाइए। पढ़ाई के लिए की गयी आपकी मेहनत और उसके एवज में मिलने वाला अभिभावक का प्यार आपको हीन भावना से निश्चित रूप से उबार देगा और आप पूरे परिवार के महत्वपूर्ण सदस्य के रूप में सम्मानित जीवन जी सकेंगे।
आप नौकरी पर दफ्तर गये। स्थिति यह भी हो सकती है कि आप वहां खूब मन लगा कर काम करते हों, बेहतर परिणाम देते हों, फिर भी कोई बुरा बॉसकभी जाति के नाम पर तो कभी अपने खुद के भ्रष्टाचार को छुपाने के नाम पर आपको तरजीह नहीं देता हो। हो सकता है कि वहां कोई चमचा, कोई कमअक्ल, कम काम करने वाला आपसे ज्यादा इज्जत - वेतनवृद्धि और आपसे ज्यादा सुरक्षित पा रहा हो। ऐसे में आपके हीन भावना से ग्रसित होने की जायज संभावना बनती है। लेकिन सावधान, यह सिर्फ आपके हीन भावना से ग्रसित हो जाने का ही मामला नहीं है, यह मामला एक गलत प्रबंधन और उसके द्वारा तैयार गंदे माहौल काभी है। ऐसी स्थिति से उबरने के दो रास्ते होते हैं।
पहला-आप यह देखिए कि आपके हीन भावना तक पहुंचा देने वाला यह माहौल जिस इमीडिएट बॉस द्वारा बनाया गया है, उसकी खुद की संस्थान में कितनी और कहां तक स्वीकार्यता-मान्यता है। यदि आपने यह फीडबैक लिया कि यह बिल्कुल उसकी अपनी मनमानी है और उसका बिल्कुल व्यक्तिगत गुण-अवगुण है तो हीन भावना से ग्रसित होने की जगह आपको सावधान होने की जरूरत है। वैसे तो लापरवाही कभी जायज नहीं होती, पर ऐसी परिस्थिति में इसे बिल्कुल त्यागने की जरूरत है। और निश्चित मानिए, एक सतर्क और जवाबदेह व्यक्ति का बहुत बुरा नहीं होता। देर से ही सही उसे स्वीकारा जाता है। इसके अलावा जल्दबाजी में जो काम करने के लायक है, वह यह है कि आप थोड़ा-थोड़ा कर, टुकड़ों में, सावधानीपूर्वक ऊपर के लोगों से बातचीत का संपर्क स्थापित कीजिए और अपनी समस्याएं शेयर कीजिए। गलत के विरोध में उठाया गया आपका एक-एक कदम आपको हीन भावना से निकालता चला जायेगा।
दूसरा- कभी-कभी ऐसी स्थिति भी आती है कि संवाद का सिलसिला भी अंततः दम तोड़ देता है और आपके लिए संभावनाओं के मार्ग बंद दिखने लगते हैं। हालांकि, ऐसा होता कम ही है, पर यदि यह मान भी लेते हैं कि आपको इससे बेहतर फलाफल हासिल नहीं हुआ तो हीन भावना से ग्रसित होने की फिर भी जरूरत नहीं है। जरूरत इसलिए नहीं है कि यह हीन भावना का मामला है ही नहीं। यह आपके लिए अपनी क्षमताओं को तौलने और उसके प्रदर्शन का मौका है। अपने बाजुबल को तौलिये और संस्थान बदलने की जुगत में भिड़ जाइए। निश्चित रूप से नयी जगह, नया मुकाम आपको हीन भावना से तो उबारेगा ही, आपके व्यक्तित्व को भी निखारेगा। निखारेगा कि नहीं? फिलहाल इतना ही। व्यक्तित्व विकास के सिलसिले में हीन भावना से उबरने की संभावनाओं पर चर्चा अभी जारी रहेगी।

आज जो प्रमाणित है, कभी वह केवल काल्पनिक था।

Friday, June 5, 2009

हीन भावना से ऐसे उबरें (2)

अभी कुछ दिनों पहले मेरे मोबाइल पर एक जोकवाला एसएमएस आया। एक बच्चे से कोई पूछ रहा था- जिस व्यक्ति में कमी ना हो, उसे क्या कहते हैं? बच्चे का जवाब था - कमीना (कमी ना)। हंसने की बात थी, एसएमएस पढ़कर हंसा, पर बात थी मार्के की। सोचा, ऐसा कौन सा व्यक्ति है, जिसमें कमी ना हो? है ऐसा कोई पूर्ण पुरुष? कभी किसी ने उसे देखा? कभी किसी ने उसके बारे में पढ़ा? नहीं न? तो यहां से खुलता है हीन भावना से बचने का मार्ग। जी हां, हर व्यक्ति में कोई न कोई कमी होती है। आपमें भी यदि कोई कमी है तो उसकी वजह से किसी हीन भावना से ग्रसित होने और ग्रसित होकर हलकान होने की बिल्कुल जरूरत नहीं है। जिसके सामने आप दब्बू बने रहते हैं, जरा आंखें खोलकर देखेंगे तो पायेंगे कि वह भी किसी न किसी के सामने आपसे ज्यादा दब्बू बना रहता है। तो फिर हीन भावना की कोई बात ही नहीं है। दुनियादारी है, वक्त का तकाजा है। आप जब भी अपने लक्ष्य से भटकेंगे, अपने काम से चूकेंगे, आपमें हीन भावना के बढ़ने की संभावना भी बढ़ जाती है। सुना ही होगा, पढ़ा ही होगा- नर हो न निराश करो मन को, कुछ काम करो, कुछ काम करो। आप जितना काम करेंगे, जितनी मेहनत करेंगे, उतना ही रिफंड पायेंगे। रिफंड खुशी के पारामीटर को बढ़ा देता है, हीन भावना को उड़नछू कर देता है।
एक धनी आदमी अपने बेटे को गांव में गरीबी व गरीबों को दिखाने ले गया। दिन भर गरीबों के दर्शन कराकर शाम में घर लौटने के दौरान पिता ने बेटे से पूछा-बताओ बेटे, आज तुमने क्या देखा और क्या महसूस किया? बेटे का जवाब बड़ा महत्वपूर्ण था। मेरा खास तौर से आग्रह है , उसे गंभीरता से पढ़ियेगा। बेटे ने कहा, पापा जी, मैंने देखा , हमलोग एक कुत्ता पालते हैं, उनके पास चार-चार, पांच-पांच कुत्ते हैं। पिता चुप। बेटा बोलता जा रहा था-हमारे पास रहने के लिए जमीन का एक टुकड़ा है, उनके पास जहां तक नजर जाये, वहां तक जमीनें हैं। हम दीवारों में बंद लोग हैं, उनके सामने खुला आकाश, फैली धरती है। हम स्वीमिंग पूल में नहाते हैं, जो दो फर्लांग तक भी नहीं जाता, उनके पास बड़ी-बड़ी, लंबी-लंबी नदियां हैं। हम भोजन करने के लिए अनाज बाजार से खरीदते हैं और हमारे खाने के लिए वे उसी अनाज को पैदा करते हैं। हमने अपनी सेवा के लिए नौकर लगा रखे हैं, जबकि उन्होंने सेवा में अपना जीवन झोंक दिया है। सच पिताजी, आज हमने जाना कि कितना गरीब हैं हम! पिता चुप, बोलने के लिए कुछ भी नहीं रहा था।
यह कथा दृष्टि की व्यापकता को फोकस करती है। आप जिन चीजों को लेकर हीन भावना से ग्रसित होते हैं, दरअसल वह आपका निराश और आग्रह छोड़ चुका मन है। अपने मन को आग्रही बनाइए, उस आग्रह के लिए खुद को क्रियाशील कीजिए, हीन भावना की तो कहीं कोई बात ही नहीं है। बढ़ते एक-एक कदम के साथ आप एक मार्ग की रचना करते जाएंगे और आप पाएंगे कि उसका अनुसरण करने वाला आपके पीछे ही है। पर, कदम तो बढ़ाना ही होगा। इसके लिए हीन भावना नहीं, इच्छा शक्ति को जागृत करने की जरूरत है। कार्ययोजना बनाने और उस पर अमल करने की जरूरत है। हीन भावना से उबरने के उपायों पर अभी चर्चा जारी रहेगी। धन्यवाद।

पूछो किसी भाग्यवादी से यदि विधि अंक प्रबल है, पद पर क्यों न देती स्वयं वसुधा निज रतन उगल है।

Tuesday, June 2, 2009

उत्तर बिहार में आर्सेनिक का बढ़ता दायरा

गंगा किनारे बसे राज्य के बारह जिलों भागलपुर, कटिहार, खगडिय़ा, मुंगेर, लखीसराय, बेगूसराय, समस्तीपुर, पटना, भोजपुर, बक्सर, वैशाली और सारण के लगभग 80 प्रखंडों में आर्सेनिक का खतरा मंडरा रहा है। हालांकि, वैज्ञानिक अभी यह बता पाने में अक्षम हैं कि जल में जहर के रूप में आर्सेनिक कहां से और कैसे फैलता जा रहा है, पर यह भी सच है कि इस खतरे से बांग्लादेश, पश्चिम बंगाल तथा नेपाल के भीतर का बड़ा हिस्सा भी प्रभावित है। बांग्लादेश सेंटर फार एडवांस्ड स्टडीज के निदेशक डा. अतीक रहमान ने अपनी एक रिपोर्ट में आर्सेनिक फैलने का कारण गहरे ट्यूबवेलों से अति सिंचाई को बताया। उनका मानना था कि इससे जमीन की गहराई में छिपे खनिज पानी के साथ बाहरी तल पर छा जाते हैं और खेतों को प्रदूषित करते हैं। यही पानी फिर जमीन के अंदर जाता है और मिट्टी के क्षरण व आक्सीजन की कमी की वजह बनता है। बाद में यह जहर बनकर चापाकलों और ट्यूबवेलों से निकलता है। व्यावहारिक रूप से डा. रहमान का यह सिद्धान्त प्रमाणित नहीं हो सका। यह पाया गया कि जिन इलाकों के चापाकलों या ट्यूबवेलों से आर्सेनिकयुक्त पानी निकल रहे थे, उसी की सौ गज की दूरी पर स्थित दूसरे चापाकलों व ट्यूबवेलों से शुद्ध पानी आ रहा था। कई रिपोर्टों में बताया गया कि आर्सेनिक के खतरे से बचने का एकमात्र उपाय पानी को फिल्टर कर इस्तेमाल करना ही है। फिल्टरेशन की जटिलता सामान्य आदमी नहीं अपना पाता है। सरकार की ओर से इस दिशा में कोई बड़ा प्रयास सामने नहीं आया है।
तिलका मांझी विश्वविद्यालय भागलपुर के वनस्पति विभाग की टीम ने डा. सुनील कुमार चौधरी और पटना स्थित अनुग्रह नारायण कालेज के पर्यावरण और जल प्रबंधन विभाग के डा. एके घोष के नेतृत्व में एक सर्वे किया। इसमें भागलपुर होकर बहने वाली जमनिया नदी की सतह पर भी आर्सेनिक की मौजूदगी पायी। जमुनिया नदी गंगा से लिंक नदी है और इसी नदी के पानी का ट्रीटमेंट कर भागलपुर के लोगों को पानी आपूर्ति की जाती है। इस टीम का मानना था कि सूबे में तीस लाख के खर्चे से जगह-जगह ट्रीटमेंट प्लांट तो लगाये गये, पर उनमें से बीस प्रतिशत ही ठीक से काम कर रहे हैं। ज्यादातर ट्रीटमेंट प्लांट पानी से आर्सेनिक को निकाल पाने में सक्षम नहीं है। खतरे की बात यह है कि आर्सेनिक से होने वाले रोग आज भी लाइलाज ही समझे जाते हैं और आज तक इसकी कोई दवा भी ईजाद नहीं की जा सकी है।
हालांकि, राज्य सरकार ने इस ओर ध्यान देना शुरू किया है। इसी वर्ष 21 मार्च को पटना के तारामंडल में आर्सेनिक युक्त जल से मुक्ति पाने के उपायों पर विचार को कार्यशाला आयोजित की गयी। इस चिंता में केन्द्र भी शामिल हो चुका है और उसकी ओर से कई इलाकों (पटना के मनेर, हाजीपुर के बिदुपुर, बक्सर के सिमरी व बक्सर शहर) में ट्रीटमेंट प्लांट लगाने और आर्सेनिक मुक्त पानी उपलब्ध कराने के लिए पौने तीन सौ करोड़ की योजनाओं को मंजूरी दी गयी है। लोक अभियंत्रण विभाग अलग-थलग बस्तियों की भी पहचान में जुटा हुआ है। देखना तो यही है कि इन सरकारी प्रयासों से दिन-रात खतरे में जी रहे लोगों को आर्सेनिक युक्त पानी से कब छुटकारा मिल पाता है?
लेयर भी दे रहा खतरे का संकेत : उत्तर बिहार में आम तौर पर 30 से 40 फुट पर पानी मिल जाया करता था। यह पीने के लिए भी मुफीद होता था। यानी इस लेयर पर चापाकल हो या कुआं, स्वच्छ और मीठा जल मिल जाता था। पिछले पांच वर्षों में इस लेयर में जगह-जगह फर्क आया है। गंगा बेसिन का इलाका समझे जाने वाले समस्तीपुर में सर्वाधिक 40 फुट का फर्क दर्ज किया जा रहा है। अब वहां 70-80 फुट की गहराई में जाने पर ही पानी मिलता है। अन्य जिलों में यह फर्क 10-20 फुट का है। यह लेयर पानी मिलने का है। ताजा रिपोर्टों और स्थल परीक्षणों में पाया गया कि अब इस लेयर का पानी पीने योग्य बिल्कुल नहीं है। पीने का पानी 150 फुट या इससे नीचे उतरने पर ही मिल है। मधुबनी के कुछ इलाकों में इसका स्तर जहां 250 फुट की गहराई पकड़ चुका है, वहीं दरभंगा के कुछ इलाकों (मनीगाछी के कुछ क्षेत्रों) में 300 फुट से ऊपर जाने पर ही पीने योग्य पानी मिलता है। समस्तीपुर के पटोरी, मोहनपुर, मोहिउद्दीननगर व गंगा दियारा इलाके में भी पानी पीने के लिए 320 फुट की गहराई पर ही चापाकल गाड़े जा रहे हैं। हिमालय की गोद में बसे चंपारण के दोनों जिले पूर्वी और पश्चिमी चंपारण भी गिरते जलस्तर से वंचित नहीं हैं। इस इलाके में जलस्तर सामान्य समझा जाता है, पर यहां भी यह एक से दो फुट नीचे खिसका है। हालांकि, इन इलाकों में चालीस से पचास फुट की गहराई पर पीने योग्य पानी मिल जाता है।

पानी सिर्फ भिंगोता ही नहीं, बेपानी भी कर देता है।

Monday, June 1, 2009

सबसे बड़ा सवाल - शुद्ध पानी

जी हां, उत्तर बिहार में लोगों को शुद्ध पानी कैसे मिले, यह बड़ा सवाल बन गया है। सम विकास योजना की मद से सरकारी चापाकलों के गाड़े जाने की बात हो या जलापूर्ति योजनाओं के माध्यम से शुद्ध पेयजल मुहैया कराने की, कहीं भी ये कल्याणकारी साबित नहीं हो पायी हैं। सरकारों ने वादे कर दिये, अधिकारियों ने इस पर 'मशक्कत’, पर यह कड़वी सच्चाई है कि देहात तो देहात, शहरों तक में लोगों को शुद्ध पानी नहीं मिल पा रहा है। उत्तर बिहार के दो प्रमुख प्रमंडलीय मुख्यालयों मुजफ्फरपुर और दरभंगा तक में भी आपूर्ति किये जाने वाले पानी पर भरोस नहीं किया जा सकता। कहीं नली टूटी है तो कहीं पाइप फटा है। यहां बाजाप्ता नगर निगम चल रहे है और इसी के साथ यहां समय-समय पर शुद्ध पेयजल के लिए आंदोलन भी चलते रहते हैं। मुजफ्फरपुर में पुरानी पाइप लाइन बदलने की प्रक्रिया चल रही है, पर नयी पाइप लाइन कब चालू होगी, यह कोई भी नहीं बता पा रहा है।
समस्तीपुर और दरभंगा दो जिले ऐसे हैं, जहां पानी में आर्सेनिक जानलेवा खतरे के रूप में सामने आया है। इससे बड़ी संख्या में लोग कैंसर जैसे संक्रामक बीमारी से ग्रसित हो रहे हैं और असमय काल के गाल में समाते जा रहे हैं। समस्तीपुर में गंगा के तटीय इलाकों पटोरी, मोहनपुर, मोहिउद्दीननगर, विद्यापतिनगर, सिंघिया, बिथान आदि प्रखंडों के करीब एक हजार हैंडपंप आर्सेनिक के रूप में जगह उगल रहे हैं। इन इलाकों में 410 फुट के बाद ही पीने योग्य पानी निकलता है। इतनी गहराई तक जाकर चापाकल गाड़ना काफी खर्चीला है और किसी आम आदमी के लिए आसान नहीं है। यहां सरकारी सभी चापाकल जवाब दे चुके हैं। वहीं, दरभंगा जिले के बिरौल प्रखंड के पडऱी में आर्सेनिकयुक्त पानी से दहशत बढ़ती जा रही है। यहां जहर युक्त पानी पीने से पिछले एक साल में तीन दर्जन से भी अधिक लोग कैंसर से ग्रसित हो गये और असमय काल कवलित हो गये। सरकारी स्तर पर इससे छुटकारा दिलाने की कोई योजना सामने नहीं आयी।
दरअसल, उत्तर बिहार की बड़ी आबादी आज भी खुले कुओं और जलस्रोतों से पीने का पानी लेने को मजबूर है। प्रखंडों में जल मीनार लगाने की योजनाएं धराशायी हो चुकी हैं। हर जगह सिर्फ दावे चल रहे हैं। मुजफ्फरपुर को ही नमूना माना जाय तो यहां के साहेबगंज में पंप लगा, जलमीनार गायब है। कुढऩी में वाटर टावर नहीं बन सका। बाढग़्र्रस्त क्षेत्र औराई, कटरा और गायघाट में लोग आज भी कुओं का गंदा पानी पीने को विवश हैं। साहेबगंज में लीकेज प्राब्लम है तो बरूराज और मोतीपुर में कई पंप जले पड़े हैं।

सवालों का जवाब तलाशने वाला समाज ही पूजा जाता है।

इन नदियों को बचाना होगा

पतित पावनी गंगा हो या वरदायिनी बूढ़ी गंडक, मैया कमला हो या माता सीता की नगरी होकर बहने वाली बागमती-लखनदेई, किसी का पानी पीने लायक नहीं रहा। पहाड़ों के सिल्ट से भरी उत्तर बिहार की ये नदियां कचरा निष्पादन का आसान माध्यम बनी हुई हैं। प्रदूषण से इनकी कलकल करती धाराओं का रंग तक बदरंग हो चुका है, पर नियंत्रण के कहीं कोई उपाय नहीं किये जा रहे हैं। सिकरहना नदी के दूषित जल से पश्चिमी चंपारण का बड़ा उपजाऊ हिस्सा रेत बनता जा रहा है। प्रतिवर्ष इस पर काबू पाने की सरकारी घोषणा होती है और फिर सब कुछ हवा-हवाई हो जाता है। नेपाल से वाया रक्सौल सरिसवा नदी का पानी नेपाल के कल-कारखानों से निकले कचरे के कारण हरा हो गया है। धनौती नदी ग्लोबल वार्मिंग का शिकार हो सूखती जा रही है। पूर्वी चंपारण, सीतामढ़ी, शिवहर, मुजफ्फरपुर के कुछ इलाकों और दरभंगा को बागमती व अधवारा समूह की नदियों के कहर से बचाने के लिए तीन दशक पूर्व हरित क्रांति के नाम पर बागमती परियोजना की शुरुआत की गयी थी। आधे-अधूरे काम व तटबंधों के निर्माण के कारण यह योजना बर्बादी का कारण बन गयी, नदियों का कहर जारी है। दरभंगा शहर के किनारे से गुजर रही बागमती गंदा नाला सा ही दिखती है। यही हाल सीतामढ़ी में लखनदेई का है। नाला बनी यह नदी कूड़ा-कचरों से पटी हुई है। कोसी व कमला बलान का पानी अभी उतना प्रदूषित नहीं दिखता, जबकि अधवारा समूह की करीब आधा दर्जन नदियों का पानी जहरीला हो चुका है। मधुबनी के इलाकों में इसका पानी पीने से कई मवेशी मर चुके हैं और कई लोग गंभीरतम रूप से बीमार हो चुके हैं। नेपाल की सिगरेट फैक्टरी का कचरा इन नदियों में फेंके जाने से बेनीपट्टी के इलाकों से होकर बहने वाली इन नदियों के पानी का रंग भी बदल चुका है। बूढ़ी गंडक मुजफ्फरपुर से लेकर समस्तीपुर तक कचरा, दूषित जल, बेकार प्लास्टिक व कूड़े-कर्कट से पटी हुई है। नदी की जलधारा पर तैरती अधजली व लावारिसलाशें कभी भी देखी जा सकती हैं। पीने की तो बात छोडि़ए, इसका पानी कपड़ा घोने लायक भी नहीं रह गया है। मुजफ्फरपुर इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी के अध्यापकों डा. अचिन्त्य एवं डा. सुरेश कुमार की अध्ययन रिपोर्ट में बूढ़ी गंडक के पानी में सीसा की मात्रा को दो से 4.89 मिली प्रति लीटर बताया गया, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं भारतीय मानक ब्यूरो के मानक के अनुसार इसकी अधिकतम मात्रा 0.05 मिली प्रति लीटर ही होनी चाहिए। दरभंगा होकर गुजरने वाली कमला और जीवछ नदियों का तल गाद से काफी ऊपर उठ चुका है, यह भी कम खतरे की बात नहीं है। वैसे, कमला सात माह और जीवछ 10 महीने तक सूखी रहती है।

एक झूठ बार-बार बोला जाय तो सच हो जाता है।

इतिहास में दर्ज है जल प्रबंधन के विफलतम प्रयास की कहानी

जल प्रबंधन को लेकर किये गये विफलतम प्रयासों की यह वह कहानी है, जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुकी है। 19वीं सदी के उतरार्द्ध में बाढ़ नियंत्रण की समस्या पर गंभीर चर्चा शुरू हुई। 1893 में बंगाल के तत्कालीन चीफ इंजीनियर डब्लू इंगलिश ने भारत और नेपाल के कोसी क्षेत्र का भ्रमण किया और अपनी राय दी कि कोसी की प्राकृतिक धारा के साथ छेड़छाड़ बिल्कुल नहीं की जाय। 1897 के कोलाकाता की बैठक में अंग्रेजी शासन के सचिवालय के वरिष्ठ अधिकारियों ने कोसी की तबाही पर चिंता जतायी, पर इसकी मूल धारा के साथ छेडख़ानी न करते हुए नियंत्रण बांधों को नीचे के स्तर पर निर्माण का प्रस्ताव दिया। नेपाल सरकार से बात हुई, उसने अनुमति भी दी, पर बांध नहीं बना। इसके 31 वर्षों बाद 1928 में उड़ीसा बाढ़ समिति ने कटक में एक सम्मेलन किया, जिसमें विशेषज्ञ इंजीनियरों ने माना कि बाढ़ सुरक्षा के लिए बनाये जाने वाले बांध स्वयं बाढ़ का कारण बनते हैं। रेलमार्गों और राजमार्गों को भी इस सम्मेलन में तटबंध की श्रेणी में रखा गया और कहा गया कि ये सभी पानी के सहज प्रवाह में बाधा बनते हैं। इस कारण वर्षा के पानी का निकास नहीं हो पाता और बाढ़ आती है। इस सम्मेलन मेसभी बांधों को यथाशीघ्र तोड़ देने, रेलमार्गों व राजमार्गों में अधिकाधिक पुल व कलवर्ट बनाने की सिफारिश की गयी। उड़ीसा सम्मेलन की तर्ज पर 1937 में पटना की सिन्हा लाइब्रेरी में बिहार सरकार ने तीन दिवसीय सम्मेलन का आयोजन किया। इसमें तत्कालीन गवर्नर हैलेट, तिरहुत क्षेत्र के जानकार कर्नल टेंपिल, बिहार-बंगाल के भू-भागीय परिस्थितियों के जानकार व तत्कालीन बिहार के मुख्य अभियंता कैप्टन जीएफ हाल ने खुलकर अपने विचार रखे। डा. राजेन्द्र प्रसाद को भी इस सम्मेलन में शामिल होना था, पर वे किसी कारण नहीं आ सके। उनके पत्र को अनुग्रह नारायण सिंह ने पढ़ा। तीन दिनों की मशक्कत का कुल नतीजा यह था कि बाढ़ें आनी ही चाहिए। भूमि निर्माण का यह प्राकृतिक तरीका है। इसे रोकने की हर प्रक्रिया विफल ही होगी। नदियों के दोनों किनारों पर बने तटबंधों को एक न एक दिन आकार में इतने बड़े करने पड़ेंगे कि इनका रखरखाव असंभव हो जायेगा। वे टूटेंगे और बड़ी तबाही का कारण बनेंगे। इस सम्मेलन में आखिरी तौर पर यह माना गया कि समस्या का समाधान तटबंधों का निर्माण नहीं, बल्कि पानी के मार्ग में आने वाले हर अवरोधों को हटाना है। इसी नीति के पालन से तबाही से मुक्ति मिल सकती है। इस सम्मेलन के प्रस्तावों को बाद के वर्षों में मजाक बनाया गया। अवरोध हटाने के प्रयासों के बजाय तटबंधों के निर्माण पर ही जोर दिया गया।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब पश्चिम का औद्योगिक जगत आर्थिक संकटों में फंसा तो गरीब देशों को मशीन और तकनीकी बेचने की नीति अपनायी गयी। ऐसे में ही भारत में बड़े बांधों की तकनीक परोसी गयी। दामोदर नदी (अब झारखंड में) पर बांध की शुरुआत हुई और कोसी पर वाराह क्षेत्र में बड़े बांध का सुझाव दिया गया। अमेरिकी विशेषज्ञों की सहायता से 1946 में केन्द्रीय जल, सिंचाई और परिवहन आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष रायबहादुर अयोध्या नाथ खोसला ने कोसी पर वाराह क्षेत्र में बड़ा बांध बनाने की संभावना को केन्द्र में रखकर रपट तैयार की। इस रपट की सिफारिशों पर 6 अप्रैल 1947 को निर्मली (सुपौल) में साठ हजार कोसी पीडि़तों का सम्मेलन हुआ। इसमें वाराह परियोजना पर चर्चा और सहमति हुई। पर, सम्मेलन में शामिल तीन अमेरिकी विशेषज्ञों ने साफ-साफ कहा कि कोसी पर बांध बनाकर नियंत्रण के भयंकर परिणाम होंगे। इस सम्मेलन में चीन की पीली नदी का भी हवाला दिया गया। बताया गया कि बांध के कारण ही इस नदी का तल बीस फुट ऊपर हो गया है और यह आबादी के लिए खतरा बन चुकी है। इसके बावजूद 1946-51 तक वाराह परियोजना पर विचार चलता रहा। परियोजना की लागत 100 से 177 करोड़ हो गयी। 1953 में फिर कोसी प्रोजेक्ट के नाम से तटबंध योजना बनी, जिसके परिणामों से देश रूबरू हो चुका है। 2008 में नदी की भयंकर विनाशलीला ने यह बताया कि वह बांधों से उसे नहीं बांधा जा सकता। नदी ने अपनी अलग धारा बनायी और उन रास्तों पर बढ़ चली, जो उसके लिए तो अनजान थी ही, आबादी के लिए भी पहचान करने में मुश्किल हो गयी। दिक्कत की बात यह है कि नदियों की धाराओं के साथ अब भी छेड़छाड़ जारी है और किसी गंभीरतम प्रयास का सर्वथा अभाव ही दिख रहा है।
गलत प्रयास का परिणाम हमेशा गलत ही होता है।