Saturday, July 18, 2009

भविष्य को रिस्क चाहिए

जी हां, चिंता करने की नहीं, भविष्य बनाने की चीज है। आप चाहें तो आपका भविष्य बन सकता है, चाहें तो बिगड़ सकता है। भविष्य रिस्क है। जिसने रिस्क लिया, उसका भविष्य हमेशा उज्ज्वल रहा। जिसने रिस्क नहीं लिया. वह पड़ा रहा, सड़ता रहा। जिस भविष्य की चिंता में हम घुलते रहते हैं, हलकान होते रहते हैं, परेशान रहते हैं, हाय-तोबा मचाते रहते हैं, वह भविष्य रिस्क मांगता है। रिस्क। कुछ करने के लिए, कुछ पाने के लिए रिस्क का बड़ा महत्व है।
हमारे एक मित्र हैं। एक संस्थान में वे बिल्कुल ऊब चुके थे। बॉस से भी छत्तीस का आंकड़ा चल रहा था। हम मित्रों से अपनी परेशानी शेयर करते थे। हम सभी का यही सुझाव होता था कि भई बेहतर संस्थान है, थोड़ी-बहुत परेशानी को मत देखिए, तीस दिनों पर मिलने वाली तनख्वाह का ख्याल कीजिए। वे चुप हो जाते। एक दिन वे सीधे दफ्तर पहुंचे, अपनी टेबल पर बैठे और इस्तीफा लिखकर पहुंच गये बॉस के केबिन में। बॉस सन्नाटे में, थोड़ी देर बाद दफ्तर भी। लोग मित्र को समझा रहे थे कि ये आपने क्या कर दिया? मगर नहीं, वे पूरी तरह आत्मविश्वास से लबरेज थे। दोस्तों के जवाब में सिर्फ इतना ही कहा- रिस्क लिया।
आगे जो हुआ, वह दिलचस्प है। वे अगले ही रोज सीधा प्रतिद्वंद्वी संस्थान में पहुंचे। वहां उन्हें न केवल हाथोहाथ लिया गया, बल्कि एक प्रमोशन और वेतन में तीन-चार हजार रुपये की बढ़ोतरी तक दी गयी। अगले रोज से वह खुश चल रहे थे। कुछ लोगों ने पूछा कि अगर प्रतिद्वंद्वी संस्थान में आप हाथोहाथ नहीं लिये जाते तो क्या होता, आप क्या करते? जवाब सीधा था- रिस्क लिया था, कैसे न हाथोहाथ लिये जाते? और यदि हाथोहाथ नहीं लिये जाते तो क्या दुनिया इसी शहर और उसी संस्थान तक खत्म हो जाती है? आगे बढ़ जाता। यहां तक जन्म लेते ही तो नहीं पहुंच गया था? शुरुआत कहीं न कहीं जीरो से ही तो हुई थी। आज तो अपने पास उम्र और अनुभव का खजाना है। इसके साथ क्या यहां से एक कदम आगे नहीं जा सकता? सवाल पूछने वाले चुप। सबक लेने और विचार करने वाली बात थी। इसी साथी की बात करूं तो जान लीजिए कि वे उस संस्थान में भी ज्यादा दिनों तक नहीं टिके। थोड़ा और रिस्क लिया और जिस समय में उनके साथ के लोग कनीय और ज्यादा से ज्यादा वरीय बने घूम रहे थे, उसी समय में वे चीफ की हैसियत में आ गये। आज वे एक इकाई के प्रभार में चल रहे हैं।
रिस्क नहीं लिया तो भविष्य खराब हो जाता है, यह एक अन्य साथी के कदम से समझा जा सकता है। मेरे साथ काम करने वाले ही एक साथी की बात है। जानकार, विद्वान, चिंतक, अध्ययनशील, पर रिस्क नहीं ले सकते। रिस्क लेने के मौके पर बुरी तरह घबरा जाते हैं, उनकी पेशानी पर पसीने चुहचुहाने लगते हैं। चूंकि विद्वान हैं, इसलिए दूसरों के विचारों से जल्दी सहमत भी नहीं हो पाते और कांटा बॉस से ही जाकर फंसता है। संस्थान कोई हो, बॉस उनसे नाराज ही रहता है। बॉस ने उन्हें प्रमोट कर आगे नहीं बढ़ाया और उनके जूनियर जो उनसे कम काबिल थे प्रमोट होकर उनके बराबर पहुंच गये। जिस दिन यह हादसा सार्वजनिक हुआ, उस रोज वे काफी परेशान और हलकान थे। मेरा हाथ पकड़कर उन्होंने रुआंसे अंदाज में कहा कि संस्थान बदलना पड़े तो पड़े, एक प्रमोशन दिलवाइए।
मैं क्या करता? दोस्त थे, फोन घुमाना शुरू किया। संयोग... बात बनी और ऐसी बनी कि एक घंटे के अंदर उनके लिए प्रमोशन और बेहतर पैकेज का आफर हाथ आ गया। बस करना इतना था कि उसी रात निकलकर उन्हें उस संस्थान के बॉस से कल इंटरव्यू के लिए मिलना था। पर, यह क्या? साथी को पता नहीं कौन सा सिंड्रोम जकड़ गया। देखते-देखते वे पसीने-पसीने हो गये। अंततः जिस साथी ने उनके लिए अपने संस्थान में बात चलायी थी, उससे फोन पर उन्होंने माफी मांगते हुए इनकार कर दिया। नतीजा- उन्होंने एक वेलविशर खोया और पुराने संस्थान में बुरे हाल में पड़े रहकर हलकान होते रहे और बॉस के कई उल्टे-सीधे फैसले झेलने को मजबूर रहे। मेरी समझ से पूरा मामला रिस्क का था। रिस्क लेने में वे पीछे पड़ गये वर्ना वे आज कहीं से कहीं होते।
यहां एक बात कही जा सकती है। कभी-कभी रिस्क लेना उल्टा भी पड़ जाता है। पर, यहीं यह ठीक से समझ लेने की जरूरत है कि उल्टा पड़ने की संभावना नहीं हो तो इसे रिस्क ही क्यों कहा जाय? क्यों ठीक कहा न मैंने? सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि आपने कितनी फोर्स के साथ रिस्क लिया। रिस्क आपके इरादों और आपके हौसलों का इम्तिहान भी लेता है। पर, जिसे भविष्य संवारना हो, वह इम्तिहान से भला क्योंकर डरेगा? वह तो रिस्क उठायेगा और भविष्य संवारेगा। क्या आप भी ऐसा करने को तैयार हैं? फिलहाल इतना ही। व्यक्तित्व विकास की श्रृंखला में भविष्य संवारने के नुस्खों पर अभी चर्चा जारी रहेगी।


एक चुटकुला : एक दोस्त ने दूसरे से कहा, अपराध से कुछ भी हासिल नहीं होता। दूसरे ने कुछ सोचकर कहा- इसका मतलब मैं जो जॉब कर रहा हूं, वह क्या अपराध है? क्योंकि इस जॉब से तो मुझे कुछ भी हासिल नहीं हो रहा।

Tuesday, July 14, 2009

कुछ ऐसा भी है भविष्य का मैकेनिज्म

आदमी अनाम और शिशु के स्वरूप में जन्म लेता है। शिशु का भविष्य क्या है? उसका नामकरण, उसका लालन-पालन। फिर भविषय क्या है? उसका सही तरीके से पठन-पाठन। फिर क्या है? उसका रोजी-रोजगार। फिर क्या? शादी विवाह। फिर? बाल-बच्चे। इसके बाद ? अपने बच्चों का पालन-पोषण। फिर? उसकी पढ़ाई - लिखाई, शादी-ब्याह। फिर? बुढापा, उपेक्षा, अकेलापन। फिर? उदासी। फिर? जीवन की ईहलीला समाप्त। इतना भी तब, जब कहने -सुनने की बात तक ही सब सीमित हो। झटके बीच में कई हैं। बीमारी, दुर्घटना, प्राकृतिक प्रकोप। एक बच्चा जन्म लेता है और जन्मते ही खत्म हो जाता है। जीवन के किसी मोड़ पर आगे के जीवन का कोई संज्ञान नहीं होता। कहते हैं न, पल का पता नहीं और सामान सौ साल का। आदमी पल बीतने के साथ ही क्या से क्या हो जाता है, कहां से कहां पहुंच जाता है, यह तो हम सभी जानते हैं। हम यह भी जानते हैं कि कुछ हासिल करना हो तो उसके लिए छोटे-छोटे एजेंडे तय करने पड़ते हैं और उस पर कड़ी मेहनत से काम करना होता है। सफलता फिर भी हाथों नहीं होती। मैन प्रोपेजेज गाड डिस्पोजेज का संज्ञान हो तो इसे ठीक से समझा जा सकता है। भविष्य गुजरते दिन के साथ गुजरता जाता है, खासकर इसलिए कि हर दिन नया होता है, हर दिन का अपना एजेंडा होता है। उसका भविष्य भी उसी के साथ चलता है और उसके गुजरते उसका भविष्य भी गुजर जाता है। नये दिन की शुरुआत भविष्य से करनी ठीक होगी क्या? अभी तो उसका वर्तमान ही चालू होता है और कोई उसे भविष्य माने बैठा है। मुझे लगता है, गड़बड़ी यहीं होती है। हमारे गांव में एक देहाती लोकोक्ति है- बाबा मरीहें त बैल बिकाई। मतलब- बाबा मरेंगे तो बैल बिकेगा। मजाक की यह लोकोक्ति वर्तमान को फोकस करती है और वर्तमान को संवारने का संकल्प लेने को उत्सुक करती है। क्यों? क्योंकि वर्तमान ही भूत होने वाला है, भविष्य का निर्धारण भी यही करता है।
और भविष्य की चिंता का आलम देखिए। लोग चिंता करते हैं और चिंताओं में खुद को घुला डालते हैं। हड्डी निकल आती है, पीले पड़ जाते हैं। मेरे एक कनिष्ठ सहकर्मी की चर्चा करना चाहूंगा। संपादक से उनकी नहीं बन रही थी। बड़े परेशान थे। चुपचाप सुनते थे और घुलते थे। मेरी एक आदत है। फ्रेंड सर्कल में जब भी मैं किसी से मिलता हूं तो यह जरूर पूछता हूं कि क्या हाल है भई, कोई दिक्कत तो नहीं? सच मानिये, कोई दिक्कत तो नहीं मैं यूं ही नहीं पूछता। इस सवाल से लोग अपनी दिक्कतें शेयर करने लगते हैं और कभी किसी के काम आने का मौका मिल जाता है। मैंने महसूस किया है, कोई मनपसंद खाना खाकर, किसी अच्छी जगह सैर कर या फिर कोई नौकरी, कोई पदोन्नति पाकर मुझे कभी उतनी खुशी नहीं हुई, जितनी कभी किसी के काम आने वाला काम करके हुई। तो एक दिन उस साथी से भी इसी अंदाज में मैंने पूछ डाला। और बस, वे लगे बताने। उनके कहने का कुल मतलब इतना ही था कि वे संपादक के आदेश दर आदेश से दबे हुए थे। खुद की स्टेमिना कम थी और नुक्स निकल आने के बाद नौकरी से निकाल दिये जाने का भय सता रहा था। वे फफक रहे थे कि मेरा तो भविष्य चौपट हो गया। मैं क्या करूं? मेरी समझ में इतनी ही बात आयी कि साथी को अपनी समग्र चिंताओं के साथ एक बार संपादक से बात करनी चाहिए। इस प्रस्ताव को मानने को वे कतई तैयार नहीं थे। खतरा और बढ़ जाने का खतरा था। फिर मैंने उन्हें कुछ यूं समझाया।
खतरा क्या है? कितनी तनख्वाह है आपकी? पांच-सात -दस हजार? साथी तब सात हजार रुपये प्रति महीने पर नियुक्त थे। मैंने कहा- आज महीने की दस तारीख है। आप तनख्वाह ले चुके हैं। अब यह सात हजार रुपये आपको अगले महीने की सात तारीख को ही मिल पायेंगे। आपके पास आज से कम से कम २७-२८ दिनों का समय है। है कि नही? उन्होंने घुंडी घुमायी, कहा-हां। उनसे मैंने फिर कहा, आप अभी जाकर संपादक से बात करें। अपनी बातों को रखें और यह मानकर रखें कि आज से आपकी नौकरी खत्म। नौकरी खत्म होने से क्या होगा? आपको सात रुपये प्रति महीने मिलने बंद हो जायेंगे। यह भी सात हजार रुपये आप एक महीने बाद ही उठा पायेंगे। और मान लेते हैं कि आज नौकरी चली गयी तो आज से तीन महीने बाद तक आप बेरोजगार रहेंगे। तो यदि नौकरी रहती तो इस बीच आप कितनी रकम बना पाते, इक्कीस हजार। इक्कीस हजार का आज इंतजाम करते हैं। हित-मित्र, नाते-रिश्तेदार आदि से। हो पायेगा कि नहीं, इतनी रकम का इंतजाम? उन्होंने कहा-हां। तो इंतजाम करते हैं और तीन महीने के लिए निश्चिंत और इस दौरान क्या सात हजार रुपये की नौकरी आप नहीं खोज पायेंगे। यदि नहीं खोज पायेंगे तो मान लीजिए कि आप दीन-हीन , लाचार और बेबस इंसान हैं। तब तो फिर कोई चिंता नहीं, फिर कोई बात नहीं। और यदि हिम्मत हो, खुद पर भरोसा हो तो निदान इतना ही है कि भविष्य की चिंता छोड़िए, फिक्र वर्तमान की कीजिए, इंतजाम वर्तमान का कीजिए। क्योंकि इसी वर्तमान के साथ आपका भविष्य भी गुजरने वाला है। बात उनकी समझ में आयी। पहला असर तो यह देखा कि चेहरे से तनाव खत्म हो गया था। फिर बोले-आपने तो आंखें खोल दीं। आज वे विपरीत परिस्थितियों में भी काफी सुकून में दिखते हैं। संपादक से तो उन्होंने बात नहीं की। दरअसल, उन्होंने खुद को ही थोड़ा अरेंज कर लिया, भविष्य की चिंता छोड़ वर्तमान पर ज्यादा ध्यान देने लगे और नतीजा-वर्तमान ठीक। वर्तमान ठीक तो भविष्य भी ठीक। और चिंता? अब तो वे भी कहने लगे हैं कि अब चिंता काहे की??
(फिलहाल इतना ही। भविष्य को लेकर बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ है, वह अभी जारी रहेगा। व्यक्तित्व विकास के लिए सतर्क व्यक्ति इंतजार करें अगली पोस्ट का।)


जो नहीं है उस पर दुख मनाने से बेहतर है जो है उस पर खुश हुआ जाय।

Wednesday, July 8, 2009

... फिर भी बचा रहता है भविष्य

आदमी डरता है, घबराता है, भाग-दौड़ करता है, हड़बड़ी-जल्दबाजी मचाता है, नैतिक-अनैतिक सबकुछ करता है, करने को तैयार रहता है, काहे के लिए? भविष्य के लिए ही न? कुछ अपने भविष्य के लिए तो कुछ बच्चों के भविष्य के लिए ही न? सोचों की थोड़ी ऊंची उड़ान ली जाय तो समाज के लिए, कौम के लिए और देश के लिए ही न। छोटी-छोटी घटनाओं पर लोग-बाग हाय-तोबा मचाते हैं कि चौपट हो गया भविष्य, बर्बाद हो गये हम। और ध्यान देने की बात यह है कि जिस वक्त हम ऐसा बोलते रहते हैं, सोचते रहते हैं, समझते रहते हैं, उस वक्त भी हमारा वर्तमान हमारे साथ रहता है, पलक झपकने के साथ वह भूत तो हो जाता है, पर भविष्य पर कुछ भी फोकस नहीं होता। भविष्य तो भविष्य ही रह जाता है। पहुंच से दूर, पकड़ से बाहर।
भविष्य का बड़ा घनचक्कर है। कल ये करूंगा, कल वो करूंगा। और कल कभी आता है? आता तो आज है, गाता है, चला जाता है। और हम कल की मुलाकातों के ख्यालातों में ही रह जाते हैं। रह जाते हैं कि नहीं? भविष्य एक सपना है, एक कल्पना है। सपनों में जीने वाला आदमी, कल्पनाओं में समय व्यतीत करने वाला आदमी यानी भविष्य संवारने के चक्कर में फंसा आदमी, चाहे वह रोगी हो, योगी हो, भोगी हो, कदम दर कदम समझौता दर समझौता ही तो करता चलता है। कोई भी समझदार व्यक्ति यह कह सकता है, जिसे कदम दर कदम समझौता दर समझौता करना पड़े, उसका चाहे सबकुछ ठीक हो जाये, भविष्य तो कतई ठीक नहीं हो सकता। हो सकता है क्या? तो क्या करें, कैसे समझें भविष्य की उलझन को?
भविष्य का घनचक्कर व्यक्तित्व विकास के मार्ग को कैसे प्रभावित करता है, अब जरा इस पर विचार करें। एक कहावत सुनी होगी आपने। रोपा पेड़ बबूल का, आम कहां से आये। मतलब? भविष्य जो है, वह वर्तमान का बिल्कुल उचित परिणाम भर है। और कुछ नहीं है। यानी जब आप बबूल का पौधा लगायेंगे तो उसमें से आने वाले दिनों में आम के फल नहीं मिल सकते, नहीं मिलेंगे, नहीं मिलते हैं। आम का फल चाहिए तो आम के पौधे ही लगाने होंगे। आपने किसी को गाली दी तो आपका भविष्य आपको आपकी पिटाई का न्योता दे रहा है, इसे गंभीरता से समझने की जरूरत है। आपने जहर पीया तो आपका भविष्य आपकी मौत को आमंत्रित कर चुका है। आपने परीक्षा में सभी प्रश्न हल किये तो आपका भविष्य आपको पहले स्थान पर स्थापित करने वाला है। तो यह तय है कि आप कल परीक्षा में पास हों, कुछ सुपरिणाम आपके हिस्से में आयें, इसके लिए जरूरी है कि आप भविष्य नहीं, वर्तमान और वर्तमान की हरकतों पर ध्यान दें।
भविष्य को लेकर जो शीर्षक बनाया गया है, उसके जेरेसाया कुछ अलहदा , कुछ महत्वपूर्ण बातें कहना चाहता हूं। यह पूरी चर्चा बस उस एक शार्षक को परिभाषित करने के लिए ही है। व्यक्तित्व विकास के लिए सतर्क व्यक्ति को इसे गंभीरता से समझने और उस पर विचार करने की जरूरत है। अमल तो विचार के साथ ही शुरू हो जायेगा, इसकी गारंटी है। मैं कहना यह चाहता हूं कि वर्तमान का उचित परिणाम भर भले भविष्य है, पर यह तब भी है जब न वर्तमान है और यह तब भी है जब न भूत है। नहीं समझे? जी हां, यदि भविष्य का वजूद है तो उसका भूत और उसका वर्तमान एक अलग प्रकार की ही चीज है। भविष्य कभी बर्बाद नहीं होता, कभी चौपट नहीं होता। हो ही नहीं सकता। बल्कि सब कुछ चौपट हो जाये तो भी जो एकमात्र चीज बची रहती है, वह भविष्य ही है।
आज आप लुट गये, बर्बाद हो गये, आपकी बीवी किसी प्रेमी के साथ भाग गयी, बच्चा खो गया, नौकरी चली गयी, फेल कर गये, संपत्ति पर किसी ने कब्जा कर लिया, आपके पास कुछ नहीं बचा, आप चिल्ला रहे हैं, कराह रहे हैं, तड़प रहे हैं, आपकी आंखों के आगे अंधेरा छाया है, रास्ता नहीं सूझ रहा, वैसी स्थिति में भी मैं आपको दिलासा दिलाता हूं कि संभलिए, आपका भविष्य बचा हुआ है। भविष्य यानी कल।
जी हां, चेतिए, आपका भविष्य बचा हुआ है। कल आयेगा और आपके लिए भी कल आयेगा। वह आपका भविष्य है। आप उसे फिर से संवार सकते हैं, क्योंकि भविष्य बचा हुआ है और अभी उसे आना है। जो नहीं बचा रहने वाला, संवारा तो उसे ही जाता है। तो जब भविष्य ही बचा रहता है तो फिर काहे की भविष्य की चिंता। चिंता तो उसकी की जाती है, जो बचा नहीं रहने वाला। भविष्य तो आखिर तक बचा रहने वाला है तो काहे की चिंता, काहे की फिक्र? काहे का डर, काहे की घबराहट, काहे की भाग-दौड़, काहे की हड़बड़ी-जल्दबाजी , काहे के लिए नैतिक-अनैतिक करने की मजबूरी? काहे की? काहे की??
फिलहाल इतना ही। भविष्य को लेकर बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ है, उससे कुछ और बातें मन में आ रही हैं, व्यक्तित्व विकास के लिए सतर्क व्यक्ति के लिए शायद वह किसी काम आ जाये। इंतजार कीजिए अगली पोस्ट का।


ब्रह्मा का अभिलेख पढ़ा करते निरुद्यमी प्राणी, धोते वीर कु-अंक भाल का, बहा भ्रुवों से पानी। (दिनकर की पुस्तक - कुरुक्षेत्र - से)