Monday, May 2, 2016

एक वह दिन था और एक यह

गंगा वही थीं, लेकिन घाट बदला हुआ था। तब दशाश्वमेध घाट पर लगा था मंच और आज नजारा था अस्सी घाट पर। तब काशीवासियों के सामने थे सांसद नरेंद्र मोदी और आज थे प्रधानमंत्री मोदी। तब कुछ करने का भाव जो भीतर था, वह शब्दों में झलका था। आज वही अभिव्यक्ति ठोस आकार लेकर सामने थी। अनुग्र्रह भाव तब भी था, अब भी था।

अतीत के पन्ने उलटिए तो याद आ जाएगा 17 मई, 2014 की वह शाम, जब मोदी चुनाव जीतने और पार्टी को भारी बहुमत से जिताने के बाद प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने से पहले यहां आए थे। उन्होंने बाबा विश्वनाथ के दरबार में माथा टेका था और दशाश्वमेध घाट पर गंगा आरती में शामिल हुए थे। उस दिन उन्होंने अपने जो उद्गार व्यक्त किए थे, उनमें संकल्पों का पुट था, कुछ करने का इरादा था। हम देश के लिए जिएंगे, हम स्थिति बदल सकते हैं, दुनिया बदल सकते हैं, उम्मीदवारी का फार्म भरते यहां का बेटा हो गया, इस धरती को नमन करता हूं, मां गंगा को नमन करता हूं, यहां के मतदाताओं को नमन करता हूं...। 12 दिसंबर 2015 को जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे के साथ भी आए थे मोदी। तब कार्यक्रम सीमित था और दशाश्वमेध घाट से केवल आरती में शामिल हो मुग्ध भाव से गंगा को निहार कर चले गए थे।
रविवार को घाट बदला हुआ था, नजारा भी। चेहरे पर कुछ करने के बाद का विजेता भाव साफ-साफ झलक रहा था। बोल अनुग्र्रह भाव से भरे थे और तेवर गरीबों के लिए कुछ भी कर गुजरने का संदेश दे रहा था। हर-हर महादेव का नारा, काशी की पवित्र धरती, भोले बाबा और मां गंगा के आभार के साथ राजनीति पर जो प्रहार शुरू हुआ, वह रुकने का नाम नहीं ले रहा था। बोले - हमेशा योजनाएं वहीं बनीं, जिनसे वोट बैक मजबूत किया गया। एक साल में रसोई गैस के 25 कूपन बांटकर सांसद यह कहते बधाई लूटते थे कि हमने यह किया वह किया। हमने जो भी योजनाएं बनाईं, वे गरीब को ताकत देती है कि वे खुद अपनी गरीबी को परास्त करके निकलें। प्रधानमंत्री जनधन योजना व मुद्रा योजना के फायदे गिनाए।

भीड़ भले शांत थी। गर्मी से हाथ में लिए कागज आदि को झलते मोदी को बड़े गौर से सुन रही थी, गुन रही थी।  बलिया का जिक्र कि गरीबों को रसोई गैस दिया पर लोगों ने जोरदार तालियां बजाईं। आपने हमें जिताया तो हमसे ज्यादा से ज्यादा फायदा लें पर भीड़ ने फिर चहेते नेता का जोरदार स्वागत किया।
छोटी-छोटी बातों के जरिए मोदी ने रविवार को गरीबों के मनोबल को उठाने का ही सिर्फ प्रयास किया। गंगा पुत्रों के बीच केवल ई-बोट नहीं बांटी, ई-रिक्शे नहीं दिए, बल्कि एक अभिभावक की तरह उसके फायदे भी गिना गए। इशारों-इशारों में बता गए कि पांच सौ रुपये बचेंगे तो क्या करना है। बता गए कि बच्चों पर खर्च करना है। योजनाओं के नाम को लेकर पिछली सरकार पर प्रहार के साथ यह संदेश भी दे गए कि मोदी अलग मिट्टी का बना हुआ है।
(2 मई 2016 को वाराणसी जागरण में प्रकाशित)

Sunday, May 1, 2016

सुने बजरंग बली, सुनाए गुलाम अली

पहली पेशकश ही थी - मैंने लाखों के बोल सहे, सितमगर तेरे लिए...

संकट मोचन का दरबार और संगीत का महाकुंभ। मंगलवार को छह दिवसीय संकट मोचन संगीत समारोह की पहली निशा के सिरमौर थे गजल सम्राट पाकिस्तानी फनकार गुलाम अली। उनकी पहली पेशकश ही यह बता रही थी कि इस दरबार में हाजिरी लगाने के लिए उन्होंने कितनी बाधाएं पार कीं। राग विहाग में दादरा पेश करते जब उनके लब से 'मैंने लाखों के बोल सहे, सितमगर तेरे लिए...' का स्वर फूटा, मंच के सामने बैठा हर श्रोता करतल ध्वनि कर उठा। इसी के साथ संकट मोचन मंदिर का पूरा परिसर जय सियाराम व हर हर महादेव के जयकारे से गूंज उठा। जयकारे पर गजल सम्राट की मुस्कान गहरी हो गई और उनका सुर लय के गहरे सागर में डूब गया।
मंच पर आते ही श्रोताओं में शुरू कुछ गहमागहमी को गुलाम अली ने अपनी गुजारिश से शांत करा दिया। गुजारिश - मैं खुद को सबसे छोटा समझता हूं, मेरी बातें गौर से सुनें। अभी लोग संभलते कि फनकार ने एक शेर पेश कर दिया - वो उन्हें याद करें, जिसने भुलाया हो कभी, हमने न भुलाया, न कभी याद किया। अभी तालियों की गूंज थमी भी नहीं कि उनका दूसरा नजराना पेश हो चुका था - रोज कहता हूं भूल जाऊं उसे, रोज ये बात भूल जाता हूं। लोग वाह-वाह कर उठे और राग विहाग में शुरू हो गया उनका दादरा।
रागिनी पहाड़ी में दूसरी प्रस्तुति से पहले उनके शेर, अंदाज अपने देखते हैं आईने में वो, और ये भी देखते हैं कोई देखता नहीं... को भी श्रोताओं की ओर से खूब समर्थन मिला। तालियों की गूंज के बीच पेशकश के बोल सामने थे - दिल में इक लहर सी उठी है कि...  कुछ तो नाजुक मिजाज हैं हम भी, और ये शौक नया है भी... सो गए लोग इस हवेली के, एक खिड़की मगर खुली है भी...।
क्रीम कलर की शेरवानी और चेहरे पर गंभीर मुस्कान के साथ उन्होंने घोषणा की कि मेरी तीसरी पेशकश वह गजल है, जो खुद मुझे पसंद है और जिसे मैंने आशा भोंसले के साथ भी गाया है। बोल थे - गए दिनों का सुराग लेकर, किधर से आया, किधर गया वो...। और इसी के साथ संपन्न हो गया उनका कार्यक्रम, मगर लोग मानने को तैयार ही नहीं थे। आवाज आ रही थी, तेरे शहर में... वाला सुनाकर जाइए, तेरे शहर में वाला सुनाकर जाइए...।
(२७ अप्रैल २०१६ को वाराणसी जागरण के पहले पेज पर प्रकाशित)