जल प्रबंधन को लेकर किये गये विफलतम प्रयासों की यह वह कहानी है, जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुकी है। 19वीं सदी के उतरार्द्ध में बाढ़ नियंत्रण की समस्या पर गंभीर चर्चा शुरू हुई। 1893 में बंगाल के तत्कालीन चीफ इंजीनियर डब्लू इंगलिश ने भारत और नेपाल के कोसी क्षेत्र का भ्रमण किया और अपनी राय दी कि कोसी की प्राकृतिक धारा के साथ छेड़छाड़ बिल्कुल नहीं की जाय। 1897 के कोलाकाता की बैठक में अंग्रेजी शासन के सचिवालय के वरिष्ठ अधिकारियों ने कोसी की तबाही पर चिंता जतायी, पर इसकी मूल धारा के साथ छेडख़ानी न करते हुए नियंत्रण बांधों को नीचे के स्तर पर निर्माण का प्रस्ताव दिया। नेपाल सरकार से बात हुई, उसने अनुमति भी दी, पर बांध नहीं बना। इसके 31 वर्षों बाद 1928 में उड़ीसा बाढ़ समिति ने कटक में एक सम्मेलन किया, जिसमें विशेषज्ञ इंजीनियरों ने माना कि बाढ़ सुरक्षा के लिए बनाये जाने वाले बांध स्वयं बाढ़ का कारण बनते हैं। रेलमार्गों और राजमार्गों को भी इस सम्मेलन में तटबंध की श्रेणी में रखा गया और कहा गया कि ये सभी पानी के सहज प्रवाह में बाधा बनते हैं। इस कारण वर्षा के पानी का निकास नहीं हो पाता और बाढ़ आती है। इस सम्मेलन मेसभी बांधों को यथाशीघ्र तोड़ देने, रेलमार्गों व राजमार्गों में अधिकाधिक पुल व कलवर्ट बनाने की सिफारिश की गयी। उड़ीसा सम्मेलन की तर्ज पर 1937 में पटना की सिन्हा लाइब्रेरी में बिहार सरकार ने तीन दिवसीय सम्मेलन का आयोजन किया। इसमें तत्कालीन गवर्नर हैलेट, तिरहुत क्षेत्र के जानकार कर्नल टेंपिल, बिहार-बंगाल के भू-भागीय परिस्थितियों के जानकार व तत्कालीन बिहार के मुख्य अभियंता कैप्टन जीएफ हाल ने खुलकर अपने विचार रखे। डा. राजेन्द्र प्रसाद को भी इस सम्मेलन में शामिल होना था, पर वे किसी कारण नहीं आ सके। उनके पत्र को अनुग्रह नारायण सिंह ने पढ़ा। तीन दिनों की मशक्कत का कुल नतीजा यह था कि बाढ़ें आनी ही चाहिए। भूमि निर्माण का यह प्राकृतिक तरीका है। इसे रोकने की हर प्रक्रिया विफल ही होगी। नदियों के दोनों किनारों पर बने तटबंधों को एक न एक दिन आकार में इतने बड़े करने पड़ेंगे कि इनका रखरखाव असंभव हो जायेगा। वे टूटेंगे और बड़ी तबाही का कारण बनेंगे। इस सम्मेलन में आखिरी तौर पर यह माना गया कि समस्या का समाधान तटबंधों का निर्माण नहीं, बल्कि पानी के मार्ग में आने वाले हर अवरोधों को हटाना है। इसी नीति के पालन से तबाही से मुक्ति मिल सकती है। इस सम्मेलन के प्रस्तावों को बाद के वर्षों में मजाक बनाया गया। अवरोध हटाने के प्रयासों के बजाय तटबंधों के निर्माण पर ही जोर दिया गया।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब पश्चिम का औद्योगिक जगत आर्थिक संकटों में फंसा तो गरीब देशों को मशीन और तकनीकी बेचने की नीति अपनायी गयी। ऐसे में ही भारत में बड़े बांधों की तकनीक परोसी गयी। दामोदर नदी (अब झारखंड में) पर बांध की शुरुआत हुई और कोसी पर वाराह क्षेत्र में बड़े बांध का सुझाव दिया गया। अमेरिकी विशेषज्ञों की सहायता से 1946 में केन्द्रीय जल, सिंचाई और परिवहन आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष रायबहादुर अयोध्या नाथ खोसला ने कोसी पर वाराह क्षेत्र में बड़ा बांध बनाने की संभावना को केन्द्र में रखकर रपट तैयार की। इस रपट की सिफारिशों पर 6 अप्रैल 1947 को निर्मली (सुपौल) में साठ हजार कोसी पीडि़तों का सम्मेलन हुआ। इसमें वाराह परियोजना पर चर्चा और सहमति हुई। पर, सम्मेलन में शामिल तीन अमेरिकी विशेषज्ञों ने साफ-साफ कहा कि कोसी पर बांध बनाकर नियंत्रण के भयंकर परिणाम होंगे। इस सम्मेलन में चीन की पीली नदी का भी हवाला दिया गया। बताया गया कि बांध के कारण ही इस नदी का तल बीस फुट ऊपर हो गया है और यह आबादी के लिए खतरा बन चुकी है। इसके बावजूद 1946-51 तक वाराह परियोजना पर विचार चलता रहा। परियोजना की लागत 100 से 177 करोड़ हो गयी। 1953 में फिर कोसी प्रोजेक्ट के नाम से तटबंध योजना बनी, जिसके परिणामों से देश रूबरू हो चुका है। 2008 में नदी की भयंकर विनाशलीला ने यह बताया कि वह बांधों से उसे नहीं बांधा जा सकता। नदी ने अपनी अलग धारा बनायी और उन रास्तों पर बढ़ चली, जो उसके लिए तो अनजान थी ही, आबादी के लिए भी पहचान करने में मुश्किल हो गयी। दिक्कत की बात यह है कि नदियों की धाराओं के साथ अब भी छेड़छाड़ जारी है और किसी गंभीरतम प्रयास का सर्वथा अभाव ही दिख रहा है। गलत प्रयास का परिणाम हमेशा गलत ही होता है।
Monday, June 1, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment
टिप्पणियों का मतलब विचार... अपने विचार जरूर व्यक्त कीजिए।