Tuesday, February 24, 2009

लोहारिया तुम कहां हो

बारह साल हो गए। ...झाबुआ, धार, बड़वानी की यात्रा में वह हमारे साथ था। नमॆदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) के दल का वह एक सदस्य था। मैं भी उस दल के साथ था। दल में कई अन्य लोग थे। पर अब भी मुझे लोहारिया, उसकी बातें अक्सर याद आती हैं। बाकी लोगों की भी स्मृति खत्म नहीं हुई। लेकिन वे अलग से याद नहीं आते। लोहारिया के साथ ही याद आते हैं।

मुझे लगता है कि लोहारिया को देखकर यह तय किया जा सकता है कि कोई व्यक्ति अधिकतम कितना धैयॆ रख सकता है। एनबीए का दल नमॆदा बांध से विस्थापित लोगों को उनकी डूबी हुई या छीनी गई जमीनों के बदले सरकार की ओर से दी जा रही जमीनें देखने के लिए गया था। सरकार की ओर से ही यह व्यवस्था की गई थी। गांव-गांव जमीनें देखी जा रही थी। जमीनों की पड़ताल की इस कवायद में बारह दिन लगे। पूरे बारह दिन मैंने उसे लगभग एक ही मुखमुद्रा में देखा।

उसके चेहरे पर हमेशा पसरा रहने वाला आत्मसंतोष उसे औरों से अलग करता था। तमाम लोगों की तरह उसे भी पता था कि पथरीली जमीनों को बसने और खेती लायक बताकर ये अफसर झूठ बोल रहे हैं। एनबीए के बाकी लोग झुंझलाते थे। बहस करते थे। लड़ पड़ते थे नमॆदा विकास प्राधिकरण के अफसरों से। पर ऐसे में भी लोहारिया की भाव-भंगिमा नहीं बदलती। बस वह सिफॆ सुनता और देखता था। एक दिन मैंने उससे बातचीत की। उसने मुझे अपने बारे में बताया। नमॆदा बांध के पास ही उसकी लगभग आठ एकड़ जमीन थी। अच्छी फसल होती थी। पक्का मकान था। बांध बनने से जमीन-मकान सब डूबने का खतरा पैदा हो गया। सरकार ने उसके गांव को भी खाली करने का आदेश दिया। पर कोई इतनी आसानी से पुश्तैनी घर और जमीन कैसे छोड़ दे। लेकिन जीते जी कोई डूब भी तो नहीं सकता। ऐसे में घर के बदले घर, जमीन के बदले की मांग उसने भी की। सबकी तरह उसने भी कह दिया- जब तक ऐसा नहीं होता, डूब जाएंगे पर गांव नहीं छोड़ेंगे। लेकिन सरकारें आसानी से कुछ देती कहां है। सो वह भी हक की लड़ाई के लिए नमॆदा बचाओ आंदोलन के साथ हो गया।

उसकी जमीन, घर डूबने का खतरा था। जाहिर है वह बड़ी विपत्ति में फंसा था। लेकिन उसे देखकर कतई यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता था कि वह किसी मुसीबत में है। उसे स्थिति की गंभीरता का भी अंदाजा था। वह जानता था कि जल्द वह बेघर होने वाला है। सरकार ने वक्त पर जमीन और मुआवजा नहीं दिया तो उसे बूढ़े मां-बाप के साथ दर-दर भटकना पड़ सकता है। फिर भी वह और की तरह नहीं झुंझलाता। औरों की तरह माथे पर हाथ रखकर बैठा नहीं रहता।

इंसानी फितरत की एबीसी जानने वालों के लिए भी लोहारिया की ये बातें उसके प्रति उत्सुकता जगाती थी। उसका यह रूप देखकर मेरे मन में भी कई सवाल उठे थे। आज भी उठते हैं। क्या इसे ही धैयॆ कहते हैं? या इसे अगंभीरता कहेंगे? या फिर उसे कायर कहेंगे कि वह मुखर नहीं होता। बोलने से डरता है? लेकिन धैयॆ को छोड़कर कोई और जवाब लोहारिया पर फिट नहीं बैठता। वह अपनी समस्याओं के प्रति अगंभीर होता तो नमॆदा बचाओ आंदोलन के साथ नहीं जाता। वह डरता तो सबसे पहले किसी दिन अचानक डूब जाने के खतरे से डरता। नासमझ होता तो इतनी सुलझी हुई बातें नहीं करता।

तब तेईस साल के लोहारिया का कहना था कि चीखने-चिल्लाने या झल्लाने से मेरी समस्याएं नहीं सुलझेंगी। हमें पता है कि झूठ बोलते ये अफसर भी अपनी ड्यूटी पूरी कर रहे हैं। सरकार इन्हें यही कहने की तनख्वाह दे रही है। मैं भी तो अपना काम कर रहा हूं। एनबीए के साथ हूं। फिर मैं इनसे क्यों उलझूं।

पता नहीं अब लोहारिया कहां है? क्या कर रहा है? उसके धैयॆ का पुरस्कार, उसके हक के रूप में उसे मिला या नहीं, मुझे यह भी नहीं पता।

पर आज भी जब कोई धैयॆ की बात करता है तो सबसे पहले मुझे लोहारिया की याद आती है।

Monday, February 23, 2009

पान, बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू ना शराब

एक सत्य मगर हंसने-हंसाने के सिलसिले से बात की शुरुआत करना चाहूंगा। रफ्ता-रफ्ता बातें स्पष्ट हो जायेंगी कि क्या कहना चाहता हूं। रोजाना शाम होते अपनी महफिल सजा लेने वाले एक खुदमुख्तार व्यक्ति के साजोसामान में एकबार भोला-भाला और तफरीहन-कभी-कभार मिजाज बनाने वाला एक शख्स शामिल हुआ। वह देखता है कि हर पैग के बाद खुदमुख्तार बुजुर्गवार मुन्नीबाई को बड़ी नफासत के साथ आवाज देते थे। मुन्नीबाई, जरा पकौड़े लाना, मुन्नीबाई जरा सलाद लाना। और जब मुन्नीबाई आती तो उस भोले-भाले शख्स की त्योरी चढ़ जाती। दरअसल, मुन्नीबाई एक काली-कलूठी काम करने वाली बाई थी और बुजुर्गवार की नफासत के मिजाज से उसकी सूरत बिल्कुल मेल नहीं खाती थी। शुरू में तो भोले-भाले शख्स ने कुछ पूछने की हिमाकत नहीं की, पर दो-चार पैग जब उसने भी चढ़ा लिये तो हिम्मत करके पूछ ही बैठा- कोई सुंदर सी बाई आपको नहीं मिली थी? बुजुर्गवार मुस्कुराये, बोले- बेटा, मुन्नीबाई मेरे पैग का पैमाना है। जान-बूझकर इस काली-कलूठी बाई को रख छोड़ा है। भोले शख्स ने पूछा-मतलब नहीं समझा? बुजुर्गवार बोले-जिस पैग के बाद मुझे मुन्नीबाई सुंदर दिखने लगती है, समझ जाता हूं, नशा हो गया है और पीना बंद कर देता हूं। महफिल में शामिल लगभग सभी कलाकार तो ठहाका लगाकर हंस पड़े, पर तफरीहन मिजाज बनाने वाले उस शख्स के आगे सन्नाटा नाच गया। नशे में बच्चा सुंदर बाई खोज रहा था। बुजुर्गवार की बातों से उसे सबक मिला। लगभग हर दिन नशा करने वाले बुजुर्गवार समझते थे कि नशा अपने चरम पर जाकर गुनाह की दावत देता है, इसलिए उन्होंने नशे को नापने का एक पैमाना खोज लिया था। पीते तो थे, पर नशा से परहेज करते थे। बच्चे ने बात समझी और संभल गया। कच्ची उम्र का था, तौबा ही कर ली दारू से। लेकिन, बड़े-बड़े लोग नहीं संभल पाते।
व्यक्तित्व विकास के लिए नशा पर नियंत्रण कितना जरूरी है, इसे एक-दो दृष्टांत से समझा जाये। एक साहबान जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर बिल्कुल नये शहर में ड्यूटी ज्वाइन करने पहुंचे तो कार्यस्थल पर बाद में पहुंचे, पहले पहुंच गये शराब के ठेके पर। छक कर सफर की खुमारी उतारी और रेस्ट हाउस में जाकर सो गये। नशे की नींद थी, जगने में थोड़ा विलंब हुआ। नहाये-धोये और लेट ही सही, पहुंच गये दफ्तर। उन्हें इस बात का अंदाजा भी नहीं था कि वे महक रहे थे और पूरा दफ्तर नाक-भौं सिकोड़ रहा था। उनकी बगल में बैठा एक युवक तो महक से उल्टियां करने लगा। भांडा फूट चुका था। पहले दिन से ही उस दफ्तर में उनके ऊपर दारूबाज का ठप्पा लगा और आप भरोसा कीजिए सीनियर, उम्रदराज और काबिल-जहीन होने के बावजूद वे उस इज्जत को तो नहीं ही पा सके, जिसके हकदार थे, अंततः उन्हें नौकरी छोड़कर चला जाना पड़ा। एक दूसरे साथी का जिक्र करूं। जहीन-तरीन, दिन में चार बार चेहरे पर पानी मारने वाले, साबुन से चेहरा चमका कर रखने वाले औऱ बड़ी नफासत से कपड़े पहनने वाले शख्स को आदत थी शाम में सुट्टा लगाने की, यानी गांजा पीने की। कहीं होते, शाम होते ही एकाध घंटे के लिए गायब हो ही जाते। लोग जान न जायें, इसलिए अपने कमरे पर सुट्टा लगाने का पूरा इंतजाम कर रखा था। एक छुट्टी के दिन जब उनके कमरे पर उनके दफ्तर के साथियों ने उनसे मिलने के लिए दस्तक दी तो किवाड़ के खुलते ही जो धुआं बाहर निकला, उससे उनके कैरियर में आग लग गयी। नशे के नाम पर तो बड़े-बड़े इल्म का जिक्र किया जा सकता है, मगर जो छोटे-छोटे पान, बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू जैसे सामान हैं, वे भी अच्छा-खासा व्यक्ति को भिखमंगा बना देते हैं। नशा करने वाला व्यक्ति अपने औसान में कभी नहीं रह पाता, आर्थिक दबाव बोनस में पाता है। ताज्जुब की बात तो यह भी है कि नशे को जिंदगी का हिस्सा बना लेने वाला शख्स भी दूसरे नशेड़ी भाई पर कभी विश्वास नहीं करता। ठीक किसी कातिल की भांति। आपने देखा होगा, बड़े से बड़ा हत्यारा भी नहीं चाहता कि उसका बेटा गुनाहों के दलदल में फंसे। मेरी समझ से, बातें स्पष्ट हो चुकी होंगी। व्यक्तित्व विकास के लिए नशा से परहेज जरूरी है। बात समझ गये हों तो शत्रुघ्न सिन्हा की एक फिल्म का वह गाना तो गुनगुना ही सकते हैं-पान, बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू ना शराब, हमको तो नशा है....। व्यक्तित्व विकास पर चर्चा अभी जारी रहेगी। धन्यवाद।

माफी जुर्म की परवरिश होती है, क्योंकि माफी मांग लेने से जुर्म का निशान नहीं मिटता।

Saturday, February 21, 2009

ये सोच लेना फिर प्यार करना

आपने देखा होगा कि बैलगाड़ी चलाने वालों के लिए उतनी सावधानियों का ख्याल नहीं रखना पड़ता, जितनी एक साइकिल सवार को। आगे बढ़िए तो जितनी लापरवाही बैलगाड़ी चलाने वाला कर सकता है, उतनी साइकिल वाला नहीं कर सकता। यदि आप मोटरसाइकिल चला रहे हों तो लापरवाही करने की गुंजाइश साइकिल चलाने वाले की अपेक्षा कम हो जाती है। मोटरसाइकिल चालक से ज्यादा सतर्कता चार चक्के का वाहन चलाने वाले को रखनी पड़ती है। चार चक्के में छोटी गाड़ी और बड़ी गाड़ी के ड्राइवर की सतर्कता का अनुपात अलग-अलग होता है। और यदि आप हवाई जहाज उड़ा रहे हों तो आपसे उम्मीद की जाती है कि आपसे बिल्कुल ही लापरवाही न हो। इसे थोड़ा अलग अंदाज में समझने की कोशिश कीजिए। बैलगाड़ी चलाने वाले या साइकिल चलाने वाले ने यदि लापरवाही की तो उसे उसके पास सुधारने का समय रहता है, क्योंकि उसकी गति धीमी रहती है, उससे अपेक्षाओं का स्तर भी कमजोर होता है। वह थोड़ा बहक भी गया तो खतरे कम हैं, सुधारने के मौके अधिक हैं। मगर, सावधानी का स्तर मोटरसाइकिल या मोटरकार चलाने वाले के लिए बढ़ जाता है। हवाई जहाज उड़ाने वाले ने यदि थोड़ी सी भी लापरवाही की तो फिर उसके पास सुधारने का समय नहीं रहता। जब तक वह सुधारने की कोई कवायद भी शुरू करेगा, तब तक तो बहुत देर हो चुकी होगी। इसलिए उससे बिल्कुल लापरवाही की उम्मीद नहीं की जाती। इस बात को ह्यूमन बीईंग और सेक्सुअल हैबिट्स के मामले में विचार के लिए पेश करना चाहूंगा।
एक जमाना था. जब महिला और पुरुषों में साफ-साफ भेद का विचार समाज पर ऊपर और नीचे दोनों तरफ से हावी था। महिलाएं गृहशोभा की विषय-वस्तु समझी जाती थीं। उनका घर से बाहर पांव निकालना एक मुश्किल भरा काम दिख पड़ता था। जो बाहर निकलती भी थीं, वे लिंग भेद के अंतर के दबाव से साफ-साफ दबी दिखती थीं। यहां तक कि उनसे बात करना, उनके साथ संबंधों के खुलासे को लेकर एक आम संकोच का मामला हुआ करता था। नतीजा, लिंग भेदी ये दो जीव साथ में रहकर, बैठकर, काम कर भी अलग-अलग, दूर-दूर ही दिखते थे। पूरा माहौल भाभी-दीदी-आंटी आदर, सम्मान और सामाजिक विचारों से ओतप्रोत हुआ करता था। दफ्तरों में एकाध दो महिलाओं के दर्शन हो जायें तो बड़ी बात थी। उस पर भी तुर्रा यह कि शाम के चार-पांच बजे तक तो वे घर भाग ही पड़ती थीं। खतरे कम थे। अब? माहौल बदला है। सड़कों पर, बाजारों में, दुकानों में, दफ्तरों में, पोस्टरों में, पत्रों में, विज्ञापनों में, जहां देखिए वहां, इनकी संख्या बढ़ी है। सहभागिता बढ़ी है। इतना ही नहीं, अभी और बढ़ेंगी क्योंकि इसके बढ़ने का सिलसिला जारी है, डिमांड बढ़ी है, जरूरत दिख रही है। कभी किसी महिला ने किसी से हंसकर बात कर ली, नजरें मिला लीं तो वह वर्षों प्यार के तराने, मुहब्बत के अफसाने गाता चलता था। किसी महिला के सरके पल्लू को किसी ने देख लिया तो महीनों उसके ख्वाबों में परियां झूमती रहती थीं। कभी कहीं स्पर्श हो गया तो समझो जीवन पार। बस और क्या चाहिए जिंदगी? आज नजरें मिलाना, घंटों बातें करना, सामने बैठकर मुस्काना और मुस्कुराते जाना कारोबारी-दफ्तरी मुकाम के हिस्से बन चुके हैं। अब पल्लू नहीं सरकते, क्योंकि फैशन की आड़ में कहिए या विज्ञापनों की धार में कहिए, वे गायब हो चुके हैं। यानी खतरे बढ़े? अब महिलाओं को सिर्फ इसलिए पीछे नहीं किया जा सकता कि वे महिलाएं हैं, घर की वस्तु हैं, गृहशोभा हैं। और खास बात यह कि लगभग हर क्षेत्र में वे आगे भी निकल रही हैं, आईकॉन्स बनती जा रही हैं। देहाती स्तर तक पर बच्चियां मिसालें कायम कर रही हैं, प्रेरणास्रोत बनती जा रही हैं।
मगर, मैथुनी सृष्टि में महिलाओं और पुरुषों के बीच एक-दूसरे के प्रति आकर्षण से कोई कैसे इनकार कर सकता है? यह सहज है, स्वाभाविक है। है न? और जब बड़ी तादाद एक लंबे समय तक एक-दूसरे के सापेक्ष हों तो उनके करीब और करीब आने के मौके बढ़ जाते हैं, इससे भी शायद ही किसी को इनकार हो। पर, यहीं लापरवाही के मौके भी बढ़ जाते हैं और समाज की उम्मीदें भी। दरअसल आधुनिकता की परिधि में समाज चाहे जितने गोते लगा ले, पर उसके मानक, निष्ठाओं की परिभाषाएं नहीं बदलतीं। जिंदगी जीने की कलाएं बदल जाएं, पर जीवन नहीं बदलता, जरूरतें नहीं बदलतीं। लाख फारवर्ड हो लें, मगर जान लीजिए, महिला से छेड़खानी या बलात्कार को दुनिया के किसी के हिस्से में जायज नहीं ठहराया जाता। तो व्यक्तित्व विकास के लिए सतर्क व्यक्ति के लिए लापरवाही की बढ़ती गुंजाइशों के बीच सावधानी के मौके भी इन्हीं क्षणों में बढ़ाने की जरूरत होती है। बढ़ते मौकों के बीच सेक्सुअल हैबिट्स के नियंत्रण से बाहर होने की गुंजाइश तो बढ़ी होती है और आपके पास हवाई जहाज के चालक वाला आप्शन होता है। यानी लापरवाही की बिल्कुल गुंजाइश नहीं। लापरवाही हुई कि व्यक्तित्व विकास का सत्यानाश। क्योंकि तेज रफ्तार जिंदगी उसे संभालने का आपको मौका नहीं देने वाली। एक बार पीछे छूट गये, एक बार गिर गये तो भीड़ में दब जाने का, क्रश हो जाने का सरासर खतरा। इस खतरों से बचने का सिर्फ एक ही रास्ता है, संभलिए। दूसरों को संभालिए भी। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। धन्यवाद।

सपने वह नहीं होते जो रातों में सोकर देखे जाते हैं। सपने वो होते हैं, जो रातों की नींद उड़ा दे।

Thursday, February 19, 2009

दिल की गली से बचके गुजरना

हालांकि, यह एक गाने का पार्ट है, पर इसमें छुपा संदेश व्यक्तित्व विकास के लिए बड़ा अहम है। आजकल दिल-विल, प्यार-व्यार के चक्कर में अच्छा भला आदमी जहां देखो वहीं पिट जा रहा है, अपना खाना खराब करवा रहा है। आपका खाना खराब न हो, सरेआम फजीहत न हो, बीच बाजार नंगे न हो जायें, इसके लिए जरूरी है कि दिल को मजबूत रखे, उसे बहकने न दें। यह बहका तो गारंटी है कि जो होगा वह मंजूरे खुदा तो बिल्कुल नहीं होगा।
मेरे एक दोस्त हैं, मेरी उम्र से लगभग सात-आठ साल बड़े। बात भी सात-आठ साल पहले की है। बातचीत के मामले में हम एक दूसरे के काफी करीब थे। दफ्तरी मुकाम के दौरान पंद्रह-बीस मिनट के वकफे में हम साथ-साथ चाय पीते थे, पान खाते थे। लौट कर आते थे तो फिर नये मिजाज के साथ काम शुरू करते थे। एक दिन चाय सेशन में ही उनसे सेक्स और ह्यूमन बीईंग पर कुछ डिस्कशन होने लगी। बात तो हम दुनियावी कर रहे थे, पर उनका रुख व्यक्तिगत हो गया और एकाएक वे मानो बैकग्राउंड में चले गये। कहने लगे, क्या कहूं शुक्लाजी, उम्र बढ़ रही है, ज्ञान भी कुछ कम नहीं है, पर महिलाओं को देखते ही मिजाज बहकने लगता है। मैं चाहता हूं कि मेरे में महिलाओं को देखकर मातृत्व भाव आये, पर यह नहीं आ पाता है। मेरी नजरें उनके नाजुक अंगों को ही निहारने में खो जाती हैं। कभी-कभी तो इन नजरों की वजह से तब शर्मसार होना पड़ता है, जब मेरी नजरों का मतलब सामने वाली ताड़ जाती हैं। मैं क्या कहता? मैंने कहा, सर, आप इस चीज को लेकर चिंतन कर रहे हैं, .यही सुधार का लक्षण है। अच्छा संकेत है, इस पर सोचते रहिए, शायद मुक्ति का मार्ग मिल जाये। अब तक उनको लेकर कोई सेक्स स्कैंडल खड़ा नहीं हुआ, इसका मतलब है कि वे चेत गये, संभल गये और महिलाओं को देखकर उनमें मातृत्व भाव आने लगा, ऐसा माना जा सकता है।
इस प्रकार का एक निजी अनुभव पढ़ाना चाहूंगा। चार-पांच साल पहले एक मकान में ऊपर नीचे हम और एक मित्र रहते थे। टायलेट कम बाथरूम कामन था और नीचे था। मुझे उसके इस्तेमाल के लिए नीचे उतरकर यह देखना पड़ता था कि वह खाली है भी या नहीं। मित्र अपनी पत्नी के साथ रहते थे। कपड़ा धोने व बर्तन मांजने के लिए उन्होंने एक बाई लगा रखी थी। बाई जवान थी। कपड़े वह बाथरूम में धोया करती थी, इससे टायलेट भी इंगेज होता था। एक दिन मैं एक दफे नीचे उतरकर बाई को कह चुका था कि बाथरूम थोड़ा जल्दी खाली कर दे और ऊपर आ गया था। तकरीबन आधा घंटे बाद जब मैं फिर नीचे गया तो वह कपड़े साफ कर ही रही थी। मैं उसे बाहर निकलने और फिर बाद में कपड़े धो लेने के लिए कह रहा था। तभी मित्र कमरा खोलकर बाहर निकल आये और उन्होंने जिन नजरों से मुझे देखा, उन नजरों की छाप आज भी मेरे हृदय में अंकित है। उनकी नजरें साफ-साफ मेरे ऊपर इल्जाम लगा रही थी। कह रही थी कि अच्छा तो अब आप इस पर उतर आये हैं यानी बाई से आंखमिचौली! उन स्थितियों से बचके मैं अपनी छवि कैसे मित्र के सामने साफ कर पाया, यह दूसरा मसला है, लेकिन इतना जरूर है कि मशक्कत मुझे करनी पड़ी।
तीसरी घटना, एक सहकर्मी को लेकर है। महिलाओं के प्रति वे सदा से नरम मिजाज थे। लड़की देखी कि उसे लगते दुलारने-पुचकारने और सहानुभूति दर्शाने। धीरे-धीरे वे उसके करीब पहुंच जाते और कभी-कभी तो स्पर्श सुख लेते हुए बालों तक पर हाथ भी फिरा देते। पूरे दफ्तर में उनका सम्मान था। विद्वान थे। एक कालेज में एडहाक लेक्चरर के रूप में काम भी कर रहे थे। एडहाकी से पैसे नहीं मिल रहे थे, इसीलिए पत्रकारिता कर रहे थे और ठीक-ठाक कर रहे थे। मालिकान का भी भरोसा उनके प्रति कायम था। दिनकर, निराला, पाश, दुष्यंत की रचनाएं उनकी जुबान पर होती थी। एक दिन मामला गड़बड़ाया। एक लड़की उनकी हरकतों, बात-बात में बाल सहलाने की आदतों से भड़क गयी। अब तो पूछिए मत कि आगे दफ्तर में उनका क्या सम्मान रह गया। पूरे व्यक्तित्व पर पानी फिर गया था। सेक्सुअल हैबिट्स की ये तीन घटनाएं महज बानगी के रूप में ली जायें। मान-अपमान को पारिभाषित करतीं ऐसी ढेरों कहानियां कही जा सकती हैं। समझने का मसला यह है कि व्यक्तित्व विकास में आपकी सेक्सुअल हैबिट्स काफी प्रभाव डालती हैं। इससे व्यक्ति तुरंत और मौके पर एक्सपोज होता है और एक बार एक्सपोज हो गया तो फिर संभलने या संवरने का बहुत मौका नहीं मिलता। व्यक्तित्व विकास में सेक्सुअल हैबिट्स पर अभी चर्चा जारी रहेगी। धन्यवाद।

इच्छाओं के पूरा होने से खुशी मिलती है, पर जो व्यक्ति इच्छाओं से ऊपर उठ जाये वह आनंद को प्राप्त हो जाता है।

Wednesday, February 18, 2009

वह कवि हृदय

वक्त के झंझावातों में,
वेतन वृद्धि के फिराकों में,
पीएफ में कटौती रुकवाने के जज्बातों में,
संतति के मुंडन, जनेऊ, शादी, पढ़ाई-लिखाई के सवालातों में,
लदते जा रहे कर्ज के कागजातों में,
कहां खो गया न जाने,
वह कवि हृदय।

कल ये करूंगा, कल वो करूंगा,
टकटकी लगाये बैठे हैं कल पर,
और कल कभी आयेगा?
आ तो आज रहा, गा रहा, चला जा रहा,
और कल की मुलाकातों के ख्यालातों में,
कहां खो गया न जाने,
वह कवि हृदय।

जब दिल बीमार हो जाये तो गाते रहो,
दोस्त-दोस्त ना रहा, प्यार-प्यार ना रहा,
ऐंठन भरी आंतों में, विरह की रातों में,
दोस्तों की बातों में, दुश्मनों की करामातों में,
सभी तो इंसान हैं, कोई किसी से कम नहीं,
खाओ-पीओ, मौज उड़ाओ, मर जाओ तो गम नहीं,
कल का इंतजार, कल ये करूंगा, कल वो करूंगा,
और इंतजार के मकानातों में,
कहां खो गया न जाने,
वह कवि हृदय।

अपनों के सपनों में तड़पन है जिंदगी,
लेन-देन बाकी तो बचपन है जिंदगी,
दुनिया को देखो तो विचरन है जिंदगी,
प्रेम की कहानी में बिछुड़न है जिंदगी,
बस, कल सब ठीक हो जायेगा,
मेहनत है, हिम्मत है,
किस्मत है, मिल्लत है,
दिन-दिन भर भूखों रहने की लत है,
बच्चा भी भूखा, मैं भी हूं भूखा,
भूख के घेरे में सबकुछ है सूखा,
सूखे पड़े खेत, सूखा पड़ा खाता,
और खाता के 'खातों' में,
कहां खो गया न जाने,
वह कवि हृदय।

वह कवि हृदय,
जहां गीत उपजते थे, संगीत उपजते थे,
मीत उपजते थे, मिलन की रीत उपजते थे,
गम की न थी बात, सदा ही जीत उपजते थे,
और उन जीत के 'जातों' में,
कहां खो गया न जाने,
वह कवि हृदय, वह कवि हृदय....।

यदि आप अपनी आंखें बंद रखेंगे तो सामने अंधेरा ही तो दिखेगा।

Monday, February 16, 2009

ना कहना भी बहुत जरूरी

यह तो सभी जानते हैं कि आदमी ना कहने में कम, हां कहने में ज्यादा फंसता है। हां कहना आसान तो लगता है, पर आपके हां कहते ही शुरू हो जाती है इस हां को पूरा करने की मशक्कत, जोर आजमाइश। इसी के साथ शुरू हो जाती है आपसे अपेक्षाएं और उसी पर निर्भर हो जाती हैं आपकी सफलताएं। असफलता आपकी स्वीकृति पर संदेह पैदा करती है, सवालिया निशान खड़ा करती है। इसलिए किसी काम के लिए, किसी मौके के लिए यदि आपको हां कहना है तो आपका चूजी होना नितांत जरूरी है। बिना चूजी हुए आपने हां की तो समझिए आप फंसे। आपने कुछ वैसे व्यक्तियों को जरूर देखा होगा जो कभी ना नहीं कहते। कभी आदतन तो कभी मजबूरन। हो सकता है कि उन्हें इसके लिए सोसाइटी ने मान्यता भी दे रखी हो, लोगों में मान भी हो, पर कभी आप उनसे बात कर देखें तो पता चलेगा कि हां कहने की आदत से वे कितने परेशान होते हैं। खुद तो परेशान होते ही हैं, दूसरे को भी परेशान करते हैं। आखिर में जो परिणाम आता है, वह उनके पूरे व्यक्तित्व को प्रभावित कर जाता है, सवाल उठा जाता है, एक मायने में मानव के लिए स्थापित सामान्य व्यक्तित्व के मानकों को भी ध्वस्त कर जाता है। उनकी हां कहने से उनकी छवि में कितना निखार आ पाता है, इस बात को तो छोड़ दीजिए, जब सभी हां को पूरा करने में वे सफल नहीं हो पाते तो धीरे-धीरे वे हाशिये पर चले जाते हैं, लोग भी उनसे किनारकशी करने लग जाते हैं। उनके बारे में एक आम संवाद जो पूरी फिजा में तैरने लगता है, वह यह है कि भई, वे तो किसी काम के लिए ना कहते ही नहीं, भले काम हो ना हो। उनके चक्कर में फंसे हो तो बचना।
मेरी समझ से छवि ऐसी होनी चाहिए कि यदि आपने हां कह दिया तो इसका मतलब हां ही हो। आपने हां कह दिया तो आगे यह लगना चाहिए कि आप इसे पूरा करने के लिए कोई प्रयास उठा नहीं रखेंगे। और यह छवि हर काम, हर चीज के लिए हां कहने से नहीं बनती। यह छवि तभी बनती है, जब आपको ना कहने की कला आती हो। जब तक आप ना कहने के लिए सेलेक्टिव नहीं होंगे, तब तक आपकी हां का कोई मतलब नहीं होगा। यह खयाल करने की बात है कि आपकी हां का पावर ना कहने से ही मजबूत होता है।
मेरे एक संकोची मित्र है। कभी किसी काम के लिए ना नहीं कहते और हां कहने के बाद बातों को याद भी नहीं रख पाते। लोगों को याद दिलाना पड़ता है कि उन्होंने फलां काम के लिए कभी हां कहा था। दोष उनका भी नहीं है। आखिर वे करें तो क्या करें? जब ढेर सारे काम के लिए उन्होंने हां कह रखी है, तो आखिर वे किस-किस काम को करने की जहमत उठायें। आखिर आदमी के काम करने की भी अपनी सीमा है। सीमा से बाहर जाकर काम किया तो जा सकता है, लेकिन उसकी भी एक सीमा होती है। वे हमेशा परेशान तो दिखते हैं, पर कभी किसी को संतुष्ट नहीं कर पाते। दूसरों को तो छोड़िए, खुद को भी नहीं कर पाते। एक दिन बड़ी शिद्दत से वे कह रहे थे-अब कोई काम के लिए हां कहने से पहले सोचूंगा, तय करूंगा, खुद को नापूंगा और लगा कि कर पाऊंगा तभी हां कहूंगा। उनकी बात मैं भी कहना चाहूंगा। यदि आप अपने व्यक्तित्व में डायनमिक डेवलपमेंट चाहते हैं तो जरा हां-ना में फर्क कीजिए और कभी-कभी ना भी जरूर कीजिए। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी।

औकात आनुपातिक सेंस है। किसी के सामने आपकी कुछ औकात नहीं तो जिसके सामने आपकी कुछ औकात नहीं, उसकी भी किसी के सामने कुछ औकात नहीं।

Sunday, February 8, 2009

प्रतिस्पर्धा का मतलब दुश्मनी नहीं


आपने देखा होगा कि अखाड़े में एक दूसरे का जबड़ा तोड़ कर रख देने की चाहत के साथ उतरने वाले पहलवान भी खेल शुरू होने से पहले एक दूसरे से हाथ मिलाने के बाद ही अपने दांव आजमाते हैं। इतना ही नहीं, पूरे खेल में अपनी-अपनी जीत के लिए मशक्कत करने वाले ये खिलाड़ी तमाशा खत्म होने के बाद भी प्रतिद्वंद्वी से हाथ मिलाते हैं और तभी समापन होता है। यह आम मानव को सबक लेने वाली प्रक्रिया है। जिसके जबड़े तोड़ने हैं, पटकी देनी है, चित करना है, उससे हाथ मिलाया जा रहा है। क्यों? क्योंकि दोनों खिलाड़ियों को पता है कि वे एक समय अंतराल में अपना फन, अपना जौहर दिखाने के लिए रिंग में हैं और साथी-प्रतिद्वंद्वी से उनकी प्रतिद्वंद्विता है, प्रतिस्पर्धा है, दुश्मनी नहीं। उसे पता है कि जिस खेल का वह खिलाड़ी है, उसी खेल को अगला भी खेलता है। तो साथी से अखाड़े में हाथ मिलाना कितना प्रोफेशनल है? हाथ मिलाने से दोनों के बीच कोई ऐसी दोस्ती नहीं हो गयी कि वे एक दूसरे पर वार न करें, एक दूसरे के खिलाफ दांव न आजमाएं। या फिर खेल में पराजित हो जाने के बाद हारा खिलाड़ी उसी शानो-शौकत से अपनी हार स्वीकार करता है और मुसकराता विजयी प्रतिद्वंद्वी से हाथ मिलता है और पेवेलियन लौट जाता है फिर से एक नयी कुश्ती की तैयारी और मशक्कत के लिए।
पर, आम जीवन में आम तौर पर क्या होता है? आपकी फील्ड का कोई साथी थोड़ा अच्छा काम कर गया, थोड़ी बड़ाई लूट ली, थोड़ा किसी का (किसी का क्या बास का) चहेता बन गया और बन गया आपकी आंखों की किरकिरी। किरकिरी ही नहीं, आपने तो दुश्मनी ठान ली और लगे उसको ऐन-केन-प्रकारेण नुकसान की जुगत करने। ऐसा करने में आपके सामने खतरे दो तरह के पैदा हो गये। एक तो यह कि आपने उस अच्छे-भले साथी को अपना दुश्मन बना लिया, दूसरे दुश्मनी साधने के चक्कर में आप अपना काम भूल गये। आप पर कुंठित, ईर्ष्यालू होने का विशेषण लगा, इसे बोनस समझिए।
मुझे याद है, बचपन में परीक्षाओं के दौरान भोर में (सुबह के तीन-चार बजे से) हमें पढ़ाई के लिए जगा दिया जाता था। हम लालटेन जलाकर पढ़ने लगते थे। मेरी क्लास का कोई दूसरा साथी जो बगल के घर में या दूसरे दरवाजे पर सोया करता था, झांक कर देख लेता था कि मैं पढ़ रहा था या नहीं। मुझे देखकर वह भी पढ़ने लगता था। लेकिन, अगले रोज जब भी पूछो तो कभी नहीं बताता था कि वह भी भोर में पढ़ता था। एक दिन लुकाछिपी पकड़ी गयी। जब वह लालटेन जलाकर पढ़ रहा था तो मैं उसकी खिड़की पर जाकर भूत की तरह खड़ा हो गया। उसने पहले तो हक्का-बक्का होकर मुझे देखा, पर थोड़ी ही देर में दोनों के मुंह से बेसाख्ता हंसी निकली और हम हंसते चले गये। यह कैसी प्रतिद्वंद्विता थी। वक्त की मार में हम शायद उस मौलिकता को भूल चुके हैं! और आप भरोसा करें, जब दोनों को यह पता चला कि दोनों एक ही मिजाज के पढ़ाकू हैं तो गुजरते वक्त के साथ हम गाढ़े मित्र भी बन गये। वैचारिक स्तर पर समानता शायद अंदरखाते व्यक्ति को दोस्त भी बना देती है।
तो क्या इस पर विचार करने की जरूरत नहीं है कि व्यक्तित्व विकास के लिए सतर्क व्यक्ति को हमेशा प्रतिस्पर्धा के लिए तो तैयार रहना चाहिए, पर प्रतिस्पर्धा को कभी दुश्मनी नहीं समझनी चाहिए? प्रतिस्पर्धा को दुश्मनी समझने की भूल यदि हो गयी तो समझिए यह आने वाले दिनों में आपकी सभी सकारात्मक क्रियाकलापों को ध्वस्त कर देगी। अपने स्वभाव को टटोलिए औऱ यदि इस बीमारी का थोड़ा भी लक्षण दिखायी दे तो दूर निकाल फेंकिए। यह आपको औऱ आपके व्यक्तित्व को बचाने के लिए नितांत आवश्यक है। व्यक्तित्व विकास पर चर्चा अभी जारी रहेगी। धन्यवाद।



दुनिया में कोई चीज बेकार नहीं होती, बेकार से बेकार समझी जाने वाली वस्तु की भी कहीं न कहीं बड़ी और मजबूत अहमियत होती है।

Saturday, February 7, 2009

काम मेरा, नाम तेरा, वाह भई वाह


यह एक आम कहावत है कि करे कोई और भरे कोई। जब कभी ऐसा मामला सामने आता है तो संजीदा ही होता है और आदमी को हिला देता है। व्यक्ति की पूरी छवि को खराब करता है, वह अलग से। इसे गंभीरता से समझने और अपने आचरण को दुरुस्त करने की जरूरत है। अपने व्यक्तित्व विकास के लिए प्रयासरत व्यक्ति को तो इस पूरे मसले को गंभीरता से समझ ही लेना चाहिए, क्योंकि लगभग हर फील्ड (क्षेत्र) में आजकल यह तमाशा खूब देखने को मिल रहा है। हर व्यक्ति क्रेडिट लेने की होड़ में पड़ा है। इतना ही नहीं, इसी के साथ अपनी गल्ती दूसरे के माथे थोपने का भी सिलसिला सा चल पड़ा है। जाहिर है जब किसी चीज की होड़ चल पड़ती है तो नये-नये हथकंडे भी सामने आते हैं, झेलने भी पड़ते हैं। दिक्कत जो फंसती है, वह यह कि जब आप दूसरे का क्रेडिट लेते होते हैं तो पूरा मामला आपके फेल होने का किस्सा ही अपने अंदर छुपाये होता है। यह प्रक्रिया आपको एक नाकारेपन की ओर भी ले जाता है। क्षणिक अवस्था व आवेग के साथ क्षणिक खुशियां देने वाली आपकी यह हरकत आपको एक लंबे समय तक अपमानित होने की पृष्ठभूमि भी तैयार करती होती है। आप किसी भी धर्म को मानने वाले हों, किसी भी परंपरा में पल रहे हों, इतना तो मानते ही होंगे कि चीजें छुपती नहीं हैं। एक न एक दिन सच्चाई सामने आती है और जब आती है तो अपने पूरे वेग और आवेग के साथ आती है। तो दूसरे के क्रेडिट को अपने खाते में दिखाकर कुछ क्षणों, दिनों, महीनों के लिए तो कोई खुश हो सकता है, लंबे समय तक के लिए नहीं। और जब आप एक्सपोज हुए तो? व्यक्तित्व विकास के लिए खतरा वहीं पैदा होता है। एक्सपोज होने पर आप अन्य लोगों की नजरों में गिरेंगे, यह तो एक मसला है, खतरनाक बात यह है कि तब आप अपनी नजर में भी गिर सकते हैं। मैंने तो, भई, देखा है। मैंने देखा है, एक सीनियर छुट्टी पर थे। मैंने अपनी ओर से जो काम का प्लान किया, उसे उन्होंने यह कहकर रोक दिया कि आऊंगा तो डिस्कस करूंगा। वे आये और काम वैसा ही हुआ, जैसा मैंने प्लान किया था। दूसरे की क्रेडिट अपने खाते में करने की आदत, क्या करते? एक दिन मेरे ही सामने किसी दूसरे सीनियर से लगे उस काम को अपने खाते में बताते हुए बखान करने। एकाएक उनकी नजर मेरे ऊपर गयी, नजरें मिलीं, कुछ याद आया, अहसास हुआ और मैंने देखा उनकी नजरों को गिरते। उनकी पलकों का झपकना, नजरों का गिरना उनका अपने आप में ही गिरना तो था।
इसके ठीक विपरीत, आपके आसपास वैसे लोग भी होंगे, जो इस खेल से परे हर किसी को उसके काम का न केवल क्रेडिट देते हैं, बल्कि उसे सार्वजनिक तौर पर घोषित करते हैं और उसे सम्मान का भागी बनाते हैं। अब वैसे लोगों की छवि, गरिमा और प्रतिष्ठा को जरा आंखें बंद कर याद कर लीजिए। ऐसे व्यक्ति के होने से माहौल भी कितना खुशनुमा होता है, इसे भी याद कर लीजिए। साफ हैं, वैसा व्यक्ति, कोई जरूरी नहीं कि किसी बड़े ओहदे पर हो, लोगों के बीच प्रतिष्ठा पाता है और पाता ही रहता है। इसी के साथ, आपके आसपास वैसे लोग भी होंगे, जो दूसरों की गल्तियां अपने सिर ले लेते हैं और गल्ती करने वाले को उसकी गल्ती के लिए कभी अपमानित होने का मौका नहीं देते। वे खुद तो सम्मान और प्रशंसा के पात्र बनते ही हैं, गल्ती करने वाले साथी को भी सबक मिलता है और देखा तो यह गया है कि वह कम से कम उस प्रकार की गल्तियां नहीं दोहराता। तो व्यक्ति विकास की प्रक्रिया में यह एक कला ही है कि आप कभी दूसरे का क्रेडिट अपने नाम करने की कोशिश न करें, बल्कि हर व्यक्ति को उसके काम का क्रेडिट दें। साथ ही यह भी कोशिश हो कि अपनी गल्ती दूसरे के माथे न थोपें। एक बार इस पर अमल आपने शुरू किया तो फिर कौन है, जो आपको प्रतिष्ठित होने से रोक दे? व्यक्तित्व विकास पर चर्चा अभी जारी रहेगी। धन्यवाद।


शैतान की फितरतों का विश्लेषण करने से ही उससे टकराने का रास्ता सूझता है। आंखें बंद कर लेने से खतरे खत्म नहीं हो जाते।

Thursday, February 5, 2009

मैंने तुम्हे कहीं देखा है


मैंने तुम्हे कहीं देखा है,
सूखे पत्ते की तरह गिरते,
गिर कर भी संभलते,
संभल कर भी बहकते,
फिर भटकते,
फिर बदलते,
मैंने तुम्हे कहीं देखा है।

बदमाशों व हथियारों के साथ,
शरीफों पे दिनदहाड़े डालते हाथ,
जेबों पर दिखाते करामात,
फिर खाते मात,
फिर खाते लात,
मैंने तुम्हे कहीं देखा है।

देते भाषण,
लूटते राशन,
पीते किरासन,
लगाते आसन,
वह भी वज्रासन,
मैंने तुम्हे कहीं देखा है।

हाथ मिलाते,
हाथ छुड़ाते,
फिर मिलाते,
फिर छुड़ाते,
फिर मिलाते,
मैंने तुम्हे कहीं देखा है।

एक जंगेजां को जिंदा जलाते,
कइयों के मरने के बाद पुल को बनाते,
फिर सलामी में गोलियां दगवाते,
हंसते,
मुसकाते,
मैंने तुम्हे कहीं देखा है।

आग लगाते,
आग बुझाते,
लोगों को समझाते,
उजड़वाते,
बसवाते,
उजड़वाते,
बसवाते,
उजड़वाते,
मैंने तुम्हे कहीं देखा है।

तुम्ही तो आस हो,
तुम्ही तो पास हो,
तुम्ही तो सर्वनाश हो,
लोगों का विनाश हो,
मैंने तुम्हे ही देखा है,
कहां देखा.... कहीं देखा है।


किसी से कुछ मांगने में यदि आपको कठिनाई होती हो तो मान लीजिए आपमें शराफत जन्म ले रही है, क्योंकि शरीफ आदमी के लिए किसी से कुछ मांगना बहुत कठिन होता है।

Wednesday, February 4, 2009

ट्रबल शूटर बनें, क्रिएटर नहीं


बहुत दिनों, लगभग पांच-छह साल पहले का किस्सा है। तब, मैं और मेरे जैसे कई साथी मुफलिस ही रहा करते थे। अलग-अलग सिंगल कमरा किराये पर लेकर। सुबह जल्दी नींद खुल गयी तो इकट्ठा चाय पीने के खयाल से मैं बगल में ही रहने वाले एक साथी के कमरे पर चला गया। उन्होंने गैस स्टोव पर चाय बनायी और पिलाई। तभी, बाहर गली से रेहड़ी वाले ने ताजा सब्जी की हांक लगायी। चाय पिलाने वाले साथी ने कहा, आइए ताजा सब्जियां खरीद लूं। हम दोनों बाहर निकले और रेहड़ी से सब्जियां पसंद करने लगे। इसी बीच साथी हड़बड़ी में आ गये। उन्होंने रेहड़ी वाले से कहा, छोड़ो यार, अभी रहने दो, बाद में ले लूंगा, अभी जाओ। और यह कहते हुए वे एकाएक मुड़े और अंदर भागे। मुझे भी हांक लगाते गये कि आइए, भीतर आइए, जल्दी। मैं अकबकाया, हकबकाया, उनकी हरकत बिल्कुल समझ में नहीं आयी। मैंने पूछा भी कि आखिर हुआ क्या? उन्होंने कहा, अरे छोड़िए, भीतर आइए। सब्जी वाले से उन्होंने कहा, जाते क्यों नहीं हो भई, चलो निकलो, जल्दी। मेरे भीतर पहुंचते उन्होंने कहा, गली के मुहाने पर आपने नहीं देखा क्या? मैंने पूछा - क्या? बोले, अरे भाई शर्माजी (काल्पनिक नाम)। शर्माजी हमलोगों के सहकर्मी थे। मुफलिस ही रहते थे इसी गली में और संभवतः किसी काम से कहीं जा रहे थे। मैंने पूछा, तो क्या हुआ? उन्होंने कहा, आप नहीं जानते कि शर्माजी कितने घिस्सू आदमी है। अभी वे सब्जी खरीदने लगते और पैसे मुझे चुकाने पड़ते। मैंने पूछा, क्यों, पैसे आप क्यों चुकाते? बोले- मैं नहीं चुकाता तो वे सब्जी वाले को पैसे देने के लिए मुझी से उधार मांगने लगते, मैं पैसे पास में रखकर झूठ नहीं बोलता। नतीजा पैसे देने पड़ते। एक बार पैसा दे देता तो फिर उनसे वसूलना मुश्किल। उनके पास पैसे कभी एक्सट्रा होते ही नहीं हैं कि आप अपना बकाया वसूल सकें। तो यह था, सब्जी की खरीदारी छोड़कर उनके एकाएक भीतर भाग चलने का राज। यह शर्माजी के व्यक्तित्व का दोष था। पता नहीं, तब शर्माजी उस साथी से सब्जियां खरीदवाते या नहीं, पैसे उधार लेते या नहीं, पर उनकी छवि तो उनके अपनों के बीच कुछ ऐसी ही थी। इस तरह के व्यक्ति हर किसी के आसपास रहते हैं। उनकी उपस्थिति ही दूसरों के लिए समस्या बन जाती है। आम तौर पर लोग ऐसी शख्सीयत से दूर भागने लगते हैं। उन्हें देखकर ही लोग भविष्यवाणी करने लगते हैं कि भई, अब वे आ रहे हैं, तो कोई न कोई उनकी समस्या होगी ही, समय जाया करेंगे और तरद्दुद में डालेंगे, उनसे बचो।
अब एक दूसरे साथी का जिक्र करूं। बड़ी से बड़ी समस्या उनके सामने ले जाइए, चुटकी बजाते हल कर देते हैं। किसी साथी को छुट्टी में घर जाना हुआ तो वे खोदकर पूछते हैं और अपने पास से कुछ पैसे उसकी जेब में डाल देते हैं। अपने पास पैसे न हुए तो उधार लेकर भी इंतजाम करते हैं, यह हिदायत देते हुए कि आप घर जा रहे हैं, पैसों की वहां जरूरत हो सकती है। इसे रखिए, काम होगा तो खर्च कीजिएगा, वर्ना वापस भी लाकर दे सकते हैं। लोग उनके व्यवहार से अभिभूत रहते हैं। उनका पैसा कभी किसी के पास फंसा, यह तो नहीं जानता, पर उन्हें देखकर ही लोग उनके स्वागत के लिए उनके सामने बिछ से जाते हैं। अपनी समस्या उनके पास भले लाख रहे, पर उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं देख सकता, यहां तक कि उनके खास दोस्तों को भी काफी बाद में, जब उनकी समस्याएं हल हो जाती हैं तब उसके बारे में पता चल पाता है। तो व्यक्तित्व विकास के लिए यह बड़ा प्रभावी सूत्र है, जो हर किसी की साफ समझ में होनी चाहिए। आप समस्याओं का समाधान बनें, न कि समस्याएं क्रिएट करते चलें। नौकरी में हों, व्यवसाय में हों, किसानी में हों, आपके लिए जरूरी है कि आप समस्याओं के निदान करने वाले के रूप में पहचाने जाएं, समस्याएं उत्पन्न करने और उसे बढ़ाते जाने के लिए नहीं। एक बार इस पर विचार कर अमल करना शुरू करें, देखिए कैसे आपके जीवन में चमत्कार होना शुरू होता है। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी।


वक्त से पहले और जरूरत से ज्यादा चर्चा होने पर नये खिलने वाले फूल की फितही खिलावट रुक जाती है।

Tuesday, February 3, 2009

बुड्ढे हो गये और इतना भी नहीं जानते...


यह एक त्रासद स्थिति हो सकती है, व्यक्तित्व का सबसे बड़ा दोष भी, कि उम्र बढ़ने के साथ आपका ज्ञान न बढ़े। ठीक कक्षाओं की भांति दुनिया आपसे यह उम्मीद करती है कि गुजरते लम्हों और बढ़ती उम्र के साथ आपके पास ज्ञान का भंडार भी बढ़ना चाहिए। ज्ञान की बढ़ती श्रृंखला ही किसी के व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाती है। जिसके पास जितना ज्ञान, वह उतना महान। ज्ञान के मामले में मेरा मानना है कि इसके अर्जन के तीन तरीके हो सकते हैं। पहली बात - जो बातें आप जान चुके हैं, उसका आपके स्मरण में रहना पहली तरह का ज्ञान है। दरअसल आदमी ज्ञान तो अर्जित करता चलता है, पर उसे भूलता भी जाता है। तो जानी हुई बातों का समय-समय पर दोहराव पुरानी बातों के स्मरण के लिए, ज्ञान के प्राथमिक स्तर को बरकरार रखने के लिए बहुत जरूरी होता है। संभवतः यह इसलिए भी जरूरी होता है, क्योंकि तभी आप उससे आगे की जानकारियां इकट्ठा करने के लिए प्रेरित हो पायेंगे। तो पहली बात यह कि आपको जो याद रखना है उसका आपको ज्ञान हो और जो भुलना है, वह भी आपको पता हो। आपके यह संज्ञान में रहना चाहिए कि याद रहने वाली चीजें आपको याद रहें और भूलने वाली चीजें भूल ही जाएं। वर्ना जो याद रखना है उसे भूलने लगे तो बड़ी गड़बड़ शुरू हो जाएगी।
दूसरी बात - नयी चीजों को जानने की कोशिश। आपके सामने बहुत सी चीजें नयी हो सकती हैं, जिन्हें जानना आपके लिए जरूरी हो सकता है। तो लगभग हर दिन एक-दो नयी चीजों के बारे में जानने की कोशिश ज्ञानअर्जन की दिशा में काफी सहयोगी हो सकती है। आप कहीं हों, किसी फील्ड में हों, रोजगार में लगे हों, बेरोजगार हों, यह जरूरी है कि लगातार आपके पास जानकारियां बढ़ती रहें। देखने की बात यह भी है कि यह रातोरात नहीं हो सकता है। रातोरात न तो कोई कालिदास बन सकता है, न ही टाटा-बिड़ला। लेकिन, अभ्यास की प्रक्रिया आपने शुरू कर दी, तो इतना जरूर है कि आप कालिदास को भी पछाड़ सकते हैं।
तीसरी बात - अज्ञानता का ज्ञान। अमरीका की इंटेलिजेंस ने माना कि अफगानिस्तान में जिन परिस्थितयों से उसकी फौज का सामना हुआ, उससे वे बिल्कुल अनजान थे, उसके बारे में कोई स्ट्रेटजी वे तैयार नहीं कर पाये थे। तो अपनी अज्ञानता का भी आपको ज्ञान हो, यह जरूरी है। ज्ञान अर्जन के मामले में देखा गया है कि जिस किसी मौके या स्तर पर व्यक्ति चूका, उसी मौके या उसी स्तर से उसका व्यक्तित्व प्रभावित होने लगा। दुनिया की इस मान्य प्रक्रिया से शायद ही किसी को इनकार हो कि आप आगे बढ़ते रहिए, नहीं तो कोई न कोई आपसे आगे निकल ही जायेगा, आपको पीछे धकेलकर। सूचना क्रांति के दौर और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भी शायद यह बहुत जरूरी है कि आपके ज्ञान का स्तर हमेशा बढ़ता रहना चाहिए। और यह बिल्कुल आपके स्वयं के ऊपर निर्भर करता है, आपके प्रयास के ऊपर निर्भर करता है।
इसके अलावा, देखने की बात यह भी है कि आज दुनिया जिस तरीके से विस्तार ले रही है, जिस तरीके से रोज नयी-नयी व्यवस्थाएं, परियोजनाएं, कंपनियां व अवसर सामने आ रहे हैं, उस लिहाज से आदमी को इन सबके बारे में जानना, जानकारियां रखना कितना जरूरी है। कोई फंड आ गया, आपको पता ही नहीं, तो उस फंड का आप लाभ कैसे ले पायेंगे? कोई व्यवस्था लागू हुई, आप उससे अनजान रहे तो उसमें आपका हिस्सा कैसे निर्धारित हो पायेगा। सूचनाएं, जानकारियां आपके पास होनी ही चाहिए। और आप अपने पड़ोस में, इर्द-गिर्द, देख सकते हैं, जिसके पास अधिकतम सूचनाएं हैं, अधिकतम जानकारियां हैं, उसी के पास अधिक पैसे हैं, वही धनी है। गरीब वही है, जिसके पास न तो सूचनाएं हैं, न जानकारियां। तो क्यों न अपने व्यक्तित्व विकास के लिए, सफलता के लिए, आगे बढ़ने के लिए, आज से ही ज्ञान अर्जन का प्रयास शुरू कर दिया जाय? व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी।


लफ्फाजियों से इंसान महान नहीं बनता, इसके लिए कुर्बानियां देनी पड़ती हैं।

Sunday, February 1, 2009

मुजस्सम हुस्न में बह गया तबस्सुम

अरे क्या गोया तबस्सुम, अरे क्या खोया तबस्सुम,
मुजस्सम हुस्न में बह गया तबस्सुम।
दरो-दीवार हैं न खिड़कियां मेरे घर में,
ताक लो, झांक लो, सब देख लो, ऐ मेरी तबस्सुम।

तुम्हारी नाक के नीचे गिला है, शिकवा है,
तुम्हारी आंख के नीचे कजा है, फजा है,
हमीं हम हैं, खुदी की याद में खोये हुए,
बर्बादे इश्क-मुश्क का, यही मंजर तबस्सुम।

सुना था छीन लेती है मोहब्बत रूह जिस्म से,
सुना था दोस्तों को भी बना देती है ये दुश्मन,
यहां तो रूह जिस्म है बना, दुश्मन बने हैं दोस्त,
यहां क्या ताल, हाल, ढूंढ़ लो, आओ तबस्सुम।

मरीज जिद का शराबी, हकीम नीम जैसा है,
सलाहियत पे चला है, कसाइयत को झेला है,
जुनूने गम का मारा है, सुकूने हम में जीता है,
ये चाल, माल मयस्सर, बहुत ही दूर तबस्सुम।

मुजस्सम हुस्न में बह गया तबस्सुम।
मुजस्सम हुस्न में बह गया तबस्सुम।

वक्त एहसान के जज्बे की बानगी भी भर देता है।

तू मेरा यार, मैं तेरा यार

बातों की शुरुआत एक बहुत ही गरीब व्यक्ति के जीवन की गाथा से करना चाहूंगा। वे मेरे गांव में दफादार थे। तब चौकीदारों-दफादारों को सौ रुपये से भी कम तनख्वाह मिला करती थी। जैसा कि गांवों में अमूमन शुरुआती उम्र में ही शादी हो जाती है, सो उनकी भी हो गयी थी और सही मायने में वे जब तक होश संभालते, तब तक चार बच्चों की परवरिश का बोझ उनके कंधे पर आ चुका था। उनके घर में खाने-पीने तक का संकट रहा करता था। तनख्वाह से जिंदगी क्या चलती, साल-साल भर पर तो भुगतान होता था। बंटाई पर खेती से जीवन चलता था। मिलनसार थे। हफ्ते में एक बार उन्हें थाने जाना होता था। थाने यानी उस इलाके का बाजार। उनकी आदत थी, जिस रोज वे थाने जाते थे, उस रोज अपनी जान-पहचान वालों के घर जाकर यह पूछ लेते थे कि कुछ बाजार से मंगाना हो तो उनसे मंगा ले। लोग पैसे देते थे, वे सामान लाकर उनके घरों तक पहुंचा देते थे। पूरा गांव उनका मित्र था, वे उनके मित्र थे। नाते-रिश्तेदारों तक में यह प्रसिद्ध था कि कोई काम हो तो दफादार साहब को कह दिया जाय। वे उनका काम अपने काम की तरह करते। और एक दिन उन्हें अपनी लड़की की शादी करने का वक्त आया। एक लड़का उन्हें पसंद आया, पर वहां जितना दहेज मांगा जा रहा था, उतना देने की उनकी कतई हैसियत नहीं थी। स्कूटर की डिमांड भी रखी गयी थी। लोग उनके दरवाजे पर आ-जा रहे थे और जानकारी ले-दे रहे थे। दफादार साहब के मुंह से उनकी कोई इच्छा पहली बार सुनी जा रही थी। उनकी इच्छा थी कि उसी लड़के से उनकी लड़की की शादी हो जाय। और आप भरोसा करें, उसी लड़के से उनकी लड़की की शादी हुई और धूमधाम से हुई। हुआ सिर्फ इतना कि जिंदगी भर उन्होंने मुफ्त में जिनकी सेवाएं की थीं, उन्होंने मिलजुलकर उनकी सेवा कर दी। दफादार साहब आज इस दुनिया में नहीं हैं, पर उनके अन्य तीनों लड़के ठीक-ठाक जिंदगी की गाड़ी खींच रहे हैं। सभी के पास मोटरसाइकिल है, घर में लैंडलाइन फोन तो लग ही गया हैं, परिवार के सदस्यों के हाथों में मोबाइल तक चमक रहे हैं। लाइक फादर, लाइक सन। बच्चे भी दुश्मनी साधने में भरोसा नहीं करते। एक दोस्त के रूप में उन पर कोई भरोसा कर सकता है।
इस पूरी कथा में दफादार साहब के व्यक्तित्व को देखने-समझने की जरूरत है। व्यक्तित्व विकास के लिए यह बड़े मतलब का मसला है, जिस पर एक बार अमल करने की आदत पड़ गयी तो समझिए जिंदगी तर गयी। इसके तहत करना सिर्फ इतना है कि आदमी कुछ भी करे, किसी भी उम्र या पेशे में रहे, सिर्फ दोस्त बनाता चले, सच्चा दोस्त। अपनी कार्यशैली का कुछ हिस्सा रोजाना मित्रता कायम करने के लिए दान करे, झोंके। आज जिसे मजबूत माना जाता है, वह वही तो है जिसके दोस्तों की फेहरिश्त लंबी है, जिसके शुभेच्छुओं की संख्या अधिक है। कोई कार वाला आपका दोस्त है, अब आपके पास कार न होने का कोई गम नहीं। कोई होटल वाला आपका दोस्त है, आपके ठहरने-भोजन की चिंता खत्म। कोई अफसर, कोई नेता, कोई जज, कोई पत्रकार.... जिसके दोस्त हों, उनके सामने बहुत सारी परेशानियां सिर ही नहीं उठातीं। आम तौर पर होता यह है कि आदमी सिर्फ पैसे कमाने की धुन में लगा रहता है और समाज, परिवार, यहां तक कि खुद से भी कटता चला जाता है। न तो किसी का सच्चा दोस्त बन पाता है, न किसी को बना पाता है। कभी सहपाठियों को तो कभी सहकर्मियों को दोस्त समझ लेता है और लगातार खता खाता रहता है। खता खाने के बाद फिर उन्हीं को गद्दार ठहराता, खिलाफ में भुनभुनाता, हरकत करता उलझा रहता है। दोस्ती टूटने का गम भी मनाता है, गाता चलता है- दोस्त-दोस्त ना रहा, प्यार-प्यार ना रहा। विचार कीजिए, जब आप किसी के नहीं तो आपका कौन? तो मेरी मानिए, यह गाना छोड़िए कि दोस्त-दोस्त ना रहा....., अब तो गाइए, मैं तेरा यार, तू मेरा यार, यही है सफल जिंदगी का सार, यही है, यही है, यही है। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। धन्यवाद।

जिनसे ताल्लुकात होते हैं, उनकी ख्वाहिशातों का भी खयाल रखना पड़ता है, वर्ना ताल्लुकात खत्म होने का खतरा हमेशा चौकस मानिए।