Friday, May 29, 2009

पानी का तिलस्म और उत्तर बिहार

सिर्फ जानें ही नहीं लेता, उत्तर बिहार में बहुत कुछ करता है पानी। यह गांवों को घेर लेता है और वहां पहुंचना और वहां से निकलना रोक देता है। सड़क-रेलमार्गों से उर्र-फुर्र करने वाले आदमी को पैदल और नाव की सवारी कराने लगता है। जमींदार को पानीदार बना देता है तो जमीनों से धान-गेहूं के बदले घोंघे, केंकड़े, मेंढ़क व मछलियां निकालने लगता है। पानी किसान को मजदूर और मजदूर को भिखमंगा बना देता है। औरतों को विधवा और बच्चों को यतीम भी बनाता है पानी। बच्चों के सिर से बुजुर्गों का साया छीन लेता है तो बुजुर्गों के हिस्से से बच्चों की सेवा-सुश्रुषा।
पानी का यह तिलस्म पश्चिमी चंपारण के वाल्मीकिनगर से, जहां राज्य का सबसे ऊंचा स्थल है, लेकर कटिहार के मथुरापुर तक, जहां राज्य का सबसे नीचा स्थल है, देखा जा सकता है। आठ बड़ी नदियों घाघरा, गंडक, बूढ़ी गंडक, बागमती, अधवारा समूह, कमला, कोसी और महानंदा का क्रीड़ास्थल है उत्तर बिहार। घाघरा व महानंदा क्रमशः उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल से होकर बिहार में प्रवेश करती है, जबकि बूढ़ी गंडक को छोड़कर अन्य सभी नदियां नेपाल से आती हैं। बूढ़ी गंडक का उद्गम स्थल बिहार ही माना जाता है, पर इसका काफी बड़ा जलग्र्रहण क्षेत्र नेपाल में पड़ता है। गंगा पूरे राज्य के लिए मास्टर ड्रेन का काम करती है, जो पश्चिम से पूर्व राज्य के बीचोबीच बहती है। राज्य में इस नदी की लंबाई 432 किलोमीटर है। इसके उत्तर का मैदानी इलाका ही उत्तर बिहार कहलाता है। 52,312 किलोमीटर के इस क्षेत्र की आबादी 5.23 करोड़ है और यहां की कुल 8,36000 हेक्टेयर जमीन को जलजमाव से ग्रस्त माना जाता है। यानी कुल क्षेत्रफल का 16 फीसदी हिस्सा पानी में डूबा रहता है, जहां प्रति वर्ग किलोमीटर लगभग 1000 लोग निवास करते हैं।
यह तिलस्मी कथा नहीं तो और क्या है कि1952 में तटबंधों की लंबाई राज्य में मात्र 160 किलोमीटर थी, जो बढ़ते-बढ़ते 2005 तक 3305 किलोमीटर हो गयी और इसी के साथ साल दर साल तबाही भी बढ़ती गयी। झारखंड बंटवारे से 24 किलोमीटर तटबंध उसके हिस्से में चला गया, जबकि पिछले पंद्रह वर्षों में 11 किलोमीटर तटबंध बह गये। इस प्रकार राज्य में 3430 किलोमीटर, जबकि उत्तर बिहार में 2952 किलोमीटर तटबंध अभी मौजूद है। राज्य सरकार दावा करती है कि तटबंधों के निर्माण में 29 लाख हेक्टेयर जमीन को सुरक्षा प्रदान की गयी है, जबकि इसकी हकीकत बाढ़ और बारिश के दौरान धरधरा कर टूटने वाले बांधों और फैलते पानी से समझा जा सकता है।
पानी के इस तिलस्म का गवाह तटबंधों के अंदर और बाहर दोनों ओर की लाखों बेहाल जिंदगियां हैं। सरकारी वादों में फंसी हजारों जिंदगियों को तिरहुत और बागमती तटबंधों पर नया समाजशास्त्र गढ़ते देखा जा सकता है। कोसी तटबंधों के भीतर फंसे गांवों की संख्या 386, बागमती तटबंधों के भीतर 96, महानंदा में 66 तथा कमला के भीतर 76 गांव फंसे हैं। तिलस्म यह है कि तटबंधों के बाहर सुरक्षित क्षेत्र के लोग तटबंध के भीतर रहने वाले लोगों से अब ईर्ष्याकरने लगे हैं क्योंकि अंदर रहने वाले लोगों को कभी बांध टूटने का भय नहीं सताता। वहां लोग नदी का आतंक झेलने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। तटबंधों से सुरक्षित जमीनों में कुछ भी नहीं पैदा होता, जबकि सुरक्षित अंदर के लोग बाढ़ के बाद रबी फसलों की भरपूर उपज लेते हैं। सुरक्षित क्षेत्र में जलजमाव से परेशान लोग बरसात के मौसम में रात-रात भर नहीं सो पाते, तटबंधों के टूटने का खतरा उन्हें सताता रहता है। दरअसल, भारत का 16.5 प्रतिशत बाढ़ प्रभावित क्षेत्र बिहार में पड़ता है, जबकि इतने ही क्षेत्र पर देश की 22.1 प्रतिशत आबादी बाढ़ पीडि़त है। आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर बिहार के कुल क्षेत्रफल का 70.6 प्रतिशत बाढ़ प्रवण क्षेत्र है। आजादी के बाद से इस क्षेत्र में बढ़ोतरी ही हुई है।
बिहार के द्वितीय सिंचाई आयोग की रिपोर्ट (1994) के अनुसार 1952 में 25 लाख हेक्टेयर बाढ़ प्रवण इलाका था, वह 1978 में 43 लाख हेक्टेयर व 1982 में 65 लाख हेक्टेयर से बढ़ते-बढ़ते 1993 में 68.8 लाख हेक्टेयर हो गया। जुलाई 2004 में ब्रिसबेन में अंतरराष्ट्रीय भूमि संरक्षण को लेकर इस्को-2004 (इंटरनेशनल स्वायल कंजर्वेशन आर्गनाइजेशन कान्फ्रेंस - ब्रिसबेन, जुलाई 2004) के नाम से आयोजित सेमिनार में एएन कालेज पटना के पर्यावरण और जल प्रबंधन विभाग के एके घोष, एएन बोस, केआरपी सिन्हा और आरके सिन्हा ने जो रपट पेश की, उससे इस संबंध में और खुलासा होता है। मार्च 1984 से मार्च 2002 के बीच का लेखाजोखा करते हुए रिपोर्ट में बताया गया कि सतही जल प्लावित क्षेत्र में तेजी से जो परिवर्तन हो रहे हैं, वह अलार्मिंग है। ये आंकड़े मार्च महीने और पूरे इलाके को तीन जोनों घाघरा-गंडक जोन, घाघरा-कोसी जोन तथा वेस्टर्न कोसी फैन बेल्ट से इकट्ठे किये गये। पानी के तिलस्म का बड़ा हिस्सा राजनेता, इंजीनियर, ठेकेदार और भारत-नेपाल वार्ता के बीच भी गढ़ा जाता है। इंजीनियरों का दल नेपाल में बड़े बांध की सिफारिश करता है, नेपाल से बात होती है, वादे मिलते हैं और काम ठप रहता है। कोसी हाई डैम की राजनीति अब तो तिलस्म से निकलकर चुनावी बयार के साथ बहने लगी है। हाल के कुछ वर्षों से इस बात का बड़ा प्रचार होता है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में नेपाल द्वारा नदियों में पानी छोडऩे के कारण बाढ़ आती है। इस भ्रांति को नेता के साथ मीडिया भी खूब प्रसारित करते हैं। पानी छोड़ा तो तभी जायेगा, जब उसे कहीं पकड़कर रखा गया हो। नेपाल से भारत में प्रवेश करने वाली केवल दो नदियों पर बराज की शक्ल में कंट्रोल संरचनाएं हैं। एक गंडक बराज है, जिसका बायां हिस्सा पश्चिमी चंपारण जिले में और दायां हिस्सा नेपाल के भैरवा जिले में है। दूसरा कोसी बराज है, जो भारत-नेपाल सीमा पर सहरसा जिले के वीरपुर कस्बे से सटाकर बना है। इन दोनों बराजों का संचालन जल संसाधन विभाग के इंजीनियर करते हैं, इसलिए अगर पानी छोड़ा भी जाता है तो उसकी जिम्मेवारी बिहार सरकार की बनती है। नेपाल में यह धारणा है कि भारत-नेपाल साझा प्रकल्पों में नेपाल को उसका समुचित हिस्सा नहीं मिल पाता। इसका असंतोष पिछले साल 2008 में कोसी बराज पर कुरसेला के पास देखने को मिला, जब नेपाली लोगों ने वहां कब्जा जमा लिया और वहां लगे मजदूरों और इंजीनियरों को खदेड़ दिया। काहिली देखिए कि 1991 में सप्तकोसी परियोजना पर नेपाल से बात हुई और सहमति बनी। अगस्त 2003 में केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री अर्जुन सेठी ने लोकसभा को बताया कि नेपाल से कोसी हाईडैम की परियोजना रिपोर्ट तैयार करने पर बात चल रही है। सवाल यह है कि बारह वर्षों में यह तय किया जाता है कि तकनीकी छानबीन के लिए कितने लोगों की जरूरत पड़ेगी तो बांध का निर्माण शुरू होने में कितना समय लगेगा। पर, 2008 में कोसी ने जिस तरह अपनी धारा बदली और सभी अवरोधों को तोड़ते-फोड़ते सैकड़ों की जान लेते लाखों लोगों को बेघर कर इतिहास रचा, उससे तो अब यह साफ हो जाना चाहिए कि उत्तर बिहार को पानी के इस तिलस्म में डूबने-तैरने से बचाने के लिए बड़ा उपाय सोचना होगा। उत्तर बिहार में जल प्रबंधन को लेकर चर्चा अभी जारी रहेगी। अगली पोस्ट में पढ़िए- नाकाम जल प्रबंधन-हर बार कहा, पर माना कहां?

हवा-ए-शाम के झोंकों जरा लिहाज करो, न लो चराग जलाते ही इम्तहान मेरा।

Tuesday, May 26, 2009

द ट्रायल आफ बैकुंठ शुक्ल

फणीन्द्र नाथ घोष की हत्या के आरोप में फांसी पर झूल जाने वाले शहीद बैकुंठ शुक्ल के केस का पूरा दृष्टांत आजादी की पचासवीं वर्षगांठ पर प्रकाशित पुस्तक 'द ट्रायल आफ बैकुंठ शुक्ल : ए रिवोल्यूशनरी पैट्रियट’ में विस्तार से मिलता है। इसके संपादक नंद किशोर शुक्ल ने कोर्ट की पूरी कार्यवाही को काफी मेहनत से सामने लाया है। द किंग-इम्परर बनाम बैकुंठ शुक्ल अभियुक्त यह मुकदमा चंपारण के बेतिया थाने में एफआईआर नंबर आठ, दिनांक ९ नबंबर १९३२ को सिपाही नंबर २७१ सहदेव सिंह के बयान पर दर्ज किया गया था। पुलिस चालान संख्या ८८, ५ अक्टूबर १९३३ को दाखिल किया गया, जिसके तहत सीआरपीसी की धारा २२१, २२२, २२३ के अंतर्गत अभियुक्त बैकुंठ शुक्ल तथा चंद्रमा सिंह के विरुद्ध आरोप लगाये गये थे। बेतिया के सब डिविजनल मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी आरएसपी ठाकुर की अदालत में मुकदमे की कार्यवाही १२ अक्टूबर १९३३ को शुरू हुई। बाद में मुकदमा सत्र न्यायाधीश टी ल्यूबी की अदालत को सुपुर्द किया गया। सत्र न्यायाधीश ने २३ फरवरी १९३४ को बैकुंठ शुक्ल को फांसी की सजा सुनायी। पटना हाईकोर्ट में अपील की गयी और सजा बहाल रखी गयी। इस मुकदमे में सरकार की ओर से ९१ गवाह पेश किये थे। सत्र न्यायाधीश उन तीन निर्णायकों से असहमत रहा था, जिन्होंने शुक्लजी को दोषी नहीं पाया था। बहुमत छोड़कर सिर्फ एक निर्णायक से सहमत रहकर फैसला सुनाया गया और पटना उच्च न्यायालय द्वारा सजा की पुष्टि के बाद १४ मई १९३४ को बैकुंठ शुक्ल को फांसी दे दी गयी। यह उनके जन्म दिन (१५ मई १९०७) से एक दिन पहले की तारीख थी। वारदात से लेकर बैकुंठ शुक्ल को फांसी देने तक के समय को जोड़ें तो पूरे ५५२ दिनों की अवधि में सब कुछ निपट गया यानी करीब डेढ़ वर्षों में। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक 'स्वतंत्रता सेनानी क्रांतिकारी बैकुंठ सुकुल का मुकदमा’ के तीसरे परिशिष्ट में प्रसिद्ध समाजवादी नेता स्व. बसावन सिंह लिखते हैं कि १९३४ के भूकंप में मुजफ्फरपुर के साथ-साथ फांसी की तख्ती भी ध्वस्त हो गयी थी, नहीं तो जहां चौबीस साल पहले खुदीराम बोस को फांसी हुई थी, बैकुंठ शुक्ल को भी वहीं लटकाया जाता। सेशन कोर्ट में इस मुकदमे की कार्यवाही सिर्फ ४२ दिन चली। आरंभ २२ नवंबर १९३३ को हुआ। २३ फरवरी १९३४ को फैसला लिखा और सुना दिया गया। १५ फरवरी १९३४ को मुकदमे की कार्यवाही के संबंध में सत्र न्यायाधीश टी ल्यूबी की टिप्पणी थी, 'आज बैकुंठ की पत्नी ने एक अर्जी दी है कि मुकदमा मुल्तवी किया जाय, क्योंकि वकील श्री लाल बिहारी लाल ने, जिन्होंने उनके पति की पैरवी करने का वादा किया था, मोतिहारी में महामारी के डर से यहां आने से इनकार कर दिया है। मैं कल ही आदेश दे चुका हूं और अब स्थगन नहीं दे सकता। अर्जी नामंजूर की जाती है। सरकारी वकील ने अपनी दलील जारी रखी, लेकिन जब १६.३० बजे अदालत उठी, तब तक वे उसे पूरा नहीं कर पाये थे। बाकी कल। अभियुक्त हवाले हाजत।’

देसी भाषा में पायी थी मिडिल तक की शिक्षा : बैकुंठ शुक्ल का जन्म १५ मई, १९०७ को वैशाली जिले के लालगंज थानांतर्गत जलालपुर गांव में हुआ था। उनके पिता राम बिहारी शुक्ल किसान थे। देसी भाषा में मिडिल तक की शिक्षा हासिल करने वाले बैकुंठ शुक्ल ने शिक्षक का प्रशिक्षण भी लिया था। अंग्रेजी बिल्कुल नहीं जानने वाले श्री शुक्ल मथुरापुर लोअर प्राइमरी स्कूल में शिक्षक के रूप में भी काम किया। तब उन्हें आठ रुपये मासिक पगार मिलती थी। उनके पास लगभग छह बीघा पैतृक जमीन थी। इस जमीन को उन्होंने अपने भाई हरिद्वार शुक्ल के नाम कर दिया और आजादी के आंदोलन में कूद पड़े। उन्हें और उनकी पत्नी श्रीमती राधिका देवी को कांग्र्रेस के आंदोलन में किशोरी प्रसन्न सिंह, उनकी पत्नी सुनीति देवी, योगेन्द्र शुक्ल तथा बसावन सिंह ने उतारा। १९३० के सविनय अवज्ञा आंदोलन में बैकुंठ शुक्ल ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। नतीजा, पटना कैंप जेल में उन्हें सजा भुगतनी पड़ी। गांधी-इर्विन पैक्ट के बाद अन्य सत्याग्रहियों के साथ वे भी रिहा कर दिये गये। इसके शीघ्र बाद बिहार में योगेन्द्र शुक्ल के नेतृत्व में सक्रिय हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से उनका संपर्क हुआ और वे क्रांतिकारी बन गये। स्वयंसेवक के रूप में उन्होंने मुजफ्फरपुर के तिलक मैदान में लाठी चलाने का प्रशिक्षण लिया। बाद में हिंदुस्तानी सेवा दल के सदस्य बन गये। स्व. बैकुंठ शुक्ल की पत्नी श्रीमती राधिका देवी का देहांत २००५ में जलालपुर गांव में हुआ। आजादी के बाद उनके जीवनयापन के लिए बिहार सरकार ने बहुत थोड़ी सहूलियत दी थी, लेकिन वे निस्वार्थी और देश के प्रति समर्पित महिला थीं। उन्होंने सरकार से अपने पति की शहादत की कीमत कभी नहीं वसूली।

जो शहीद हुए हैं उनकी, जरा याद करो कुर्बानी।

बैकुंठ शुक्ल की फांसी का वह दिन

सरकारी गवाह बन गये गद्दार फणीन्द्र नाथ घोष की बेतिया के मीना बाजार में हत्या कर भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु की मौत का बदला लेने वाले बैकुंठ शुक्ल को फांसी देने के वक्त गया जेल का सरकारी जल्लाद भी मानो थमक गया था। जेल के सुपरिंटेंडेंट मिस्टर परेरा रुमाल हिलाकर बार-बार संकेत दे रहे थे, पर उससे लीवर नहीं खींचा जा रहा था। शुक्ल जी ने जब चिल्लाकर कहा कि देर क्यों करते हो तो उसकी तंद्रा भंग हुई और उसने लीवर खींचा। उस दिन पूरे गारद में कोई चौकी नहीं गया, किसी ने भोजन नहीं किया, जेल का कोई मुलाजिम रोये बिना नहीं रहा। फांसी के दिन अलस्सुबह पांच बजे जब गया जेल के पंद्रह नंबर वार्ड से बैकुंठ शुक्ल फांसी स्थल की ओर जा रहे थे तो उनकी आखिरी आवाज थी - 'अब चलता हूं।मैं फिर आऊंगा। देश तो आजाद नहीं हुआ। वंदेमातरम्...।
बैकुंठ शुक्ल की गया जेल में फांसी के दिन का विवरण प्रसिद्ध क्रांतिकारी विभूतिभूषण दासगुप्त की कालजयी बांग्ला पुस्तक 'सेईं महावर्षार गंगा जल’ और इसके हिन्दी अनुवाद 'सरफरोशी की तमन्ना’ नामक पुस्तक में मिलता है। बसावन, रघुनाथ पांडेय और त्रिभुवन आजाद के साथ श्री दासगुप्त भी तब गया जेल के पंद्रह नंबर वार्ड में बंद थे। विभूतिभूषण दासगुप्त लिखते हैं- लाहौर षड्यंत्र केस में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी हुई थी और यतीन्द्रदास ने लाहौर जेल में ऐतिहासिक अनशन कर मृत्यु का आलिंगन किया था। क्रांतिकारी भाषा में जिसे इनरमैन (भीतरघाती) कहा जाता है, फणी घोष रिपब्लिकन पार्टी का वैसा ही इनरमैन था। लाहौर षड्यंत्र केस के अभियुक्तों को लेकर लाला लाजपत राय के हत्यारे सांडर्स को गोली मारने से लेकर दिल्ली की असेम्बली में बम फेंकने और ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध की तैयारी करने आदि जैसे अनेक अभियोग उस पर लगाये गये थे। अन्य लोगों के साथ फणी घोष भी एक सक्रिय क्रांतिकारी था और वह कई कार्रवाइयों में भाग ले चुका था। ऐसी संभावना थी कि उसे कठोर सजा मिलेगी, लेकिन उसने अनेक गंभीर आरोपों को स्वीकार ही नहीं कर लिया, बल्कि मुखबिर बनकर सर्वनाश कर दिया। वह गद्दार बन चुका था। बिहार के श्रीराम विनोद विद्रोही दल के विशिष्ट नेता थे। उनके बाद योगेन्द्र शुक्ल थे, जो रिपब्लिकन पार्टी के स्तंभ माने जाते थे। गया जेल के सात नंबर वार्ड के सेल में फांसी के अभियुक्तों को रखा जाता था और फांसी से एक दिन पहले अभियुक्त को पंद्रह नंबर वार्ड मेंरखकर सुबह फांसी पर लटका दिया जाता था।
दासगुप्त लिखते हैं कि गया जेल में रहते हुए उन्होंने ४५ व्यक्तियों को फांसी के पहले वहां रात बिताते देखा था। ऐसे में ही एक दिन उन्हें पता चला कि बैकुंठ शुक्ल की फांसी का दिन तय कर लिया गया है। वह जाड़े का मौसम था, वह भी गया का जाड़ा-हड्डी कंपाने वाला। दासगुप्त के शब्दों में - एक दिन जेल के अधिकारी अचानक बसावन को वहां से ले गये। बाद में पता चला कि उसे हजारीबाग जेल भेज दिया गया है। यह सतर्कता के तहत किया गया। पुराने सुपरिंटेंडेंट का भी तबादला हो गया था। उसके स्थान पर पटना जेल कैम्प के सुपरिंटेंडेंट मि. परेरा को गया जेल का सुपरिंटेंडेंट बनाया गया था। समय गुजरते देर न लगी और वह निर्धारित संध्या आखिर आ पहुंची। फांसी के अन्य अभियुक्तों की भांति बैकुंठ शुक्ल से भेंट करने के लिए हम उत्सुक थे, लेकिन हेड जमादार ने आकर कहा, आज आपलोगों को पहले ही बंद हो जाना पड़ेगा। जब आप लोग अंदर चले जायेंगे, तभी शुक्लजी को लाया जायेगा। एक बार अंतिम दर्शन के लिए अनुरोध करने में भी घृणा महसूस हुई। जो कल मृत्यु का आलिंगन करने जा रहा है, उसे देखने के लिए जल्लाद से अनुनय-विनय? हम अपने-अपने सेल में चले गये। उस दिन जेल के सभी कैदियों को बंद करने के बाद ही बैकुंठ शुक्ल को पंद्रह नंबर में लाया गया।
अभी शाम होने में देर थी। दासगुप्त कुर्ता पहनकर कंबल ओढ़कर लोहे के सीखचों को पकड़े खड़े थे। वे लिखते हैं- जंजीर और बेडिय़ों की झंकार के साथ बैकुंठ शुक्ल पंद्रह नंबर वार्ड में आये और ऊंचे स्वर में बोले-दादा, आ गया। अगल-बगल की सेलों से हम तीनों बोल उठे-वंदे मातरम्। फिर एक नंबर के सेल से शुक्लजी की आवाज आयी-विभूति दा, एक बार खुदीराम का फांसी वाला गीत गाइए न दादा - हासि हासि परब फांसी, मां देखबे भारतवासी (हंस-हंसकर फांसी पर झूलूंगा, भारत माता देखेगी)।
दासगुप्त के साथ-साथ बैकुंठ शुक्ल भी गला खोलकर गा रहे थे-दिले शुक्ल में है, दिले शुक्ल में है, दिले शुक्ल में है। कब चार बज गये, पता ही नहीं चला। बैकुंठ शुक्ल ही बोले-दादा, वक्त नजदीक आ गया है। आखिरी गाना वंदेमातरम् सुनाइए। एक नंबर, आठ नंबर, नौ नंबर, दस नंबर से एक साथ गाने गाये जाने लगे-वंदेमातरम्। लिखते हैं दासगुप्त-जेल गेट पर पांच का घंटा बजा। अभी अंधकार था। एक साथ अनेक भारी-भारी बूटों की आवाज गूंजती हुई पंद्रह नंबर में प्रवेश कर गयी। बैकुंठ शुक्ल ने पुकार कर कहा-'दादा, अब तो चलना है। मैं एक बात कहना चाहता हूं। आप जेल से बाहर जाने के बाद बिहार में बाल विवाह की जो प्रथा आज भी प्रचलित है, उसे बंद करने का प्रयत्न अवश्य कीजिएगा। पंद्रह नंबर से बाहर निकलने के पहले बैकुंठ शुक्ल क्षण भर के लिए रुके और दासगुप्त की सेल की ओर देखकर बोले-'अब चलता हूं। मैं फिर आऊंगा। देश तो आजाद नहीं हुआ। वंदेमातरम्...।शुक्लजी की आखिरी आवाज के साथ उस वक्त जेल में बंद तीनों व्यक्तियों की आवाज शामिल हो गयी। बाद में दासगुप्त को वहां के वार्डर ने बताया कि फांसी के वक्त शुक्ल जी के परिवार के साथ बाहर के लोग भी थे। शुक्ल जी की लाश उन्हें नहीं दी गयी। वार्डर ने ही बताया कि उन लोगों ने चंदा करके और कंधे पर ले जाकर शुक्ल जी का दाह-संस्कार किया।

'इस कलंक को धोओगे या ढोओगे : जिस फणीन्द्र नाथ घोष की गवाही पर सांडर्स मर्डर केस में भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु को लाहौर सेंट्रल जेल में २३ मार्च १९३१ को फांसी दी गयी थी, उसकी मौत का फरमान पंजाब के क्रांतिकारियों ने कुछ यूं भेजा था-इस कलंक को धोओगे या ढोओगे? पंजाब से आये इस संदेश से बिहार के साथी विचलित थे। हाजीपुर सदाकत आश्रम में उनकी एक आपातकालीन बैठक हुई। इसमें मौजूद छह लोगों ने गोटी लगायी। गोटी इस बात पर कि आखिरकार फणीन्द्र नाथ घोष को खत्म कर भगत सिंह की मौत का बदला कौन लेगा। दरअसल, इस काम को करने के लिए हर कोई उतावला हो रहा था। यहां तक कि उस बैठक में मौजूद किशोरी प्रसन्न सिंह की पत्नी सुनीति जी इस बीड़े को उठाने के लिए मचल रही थीं। अक्षयवट राय जी ने यह कहकर कि छह आदमियों के परिवार में सुनीति बहन अकेली महिला हैं और उनके चले जाने से परिवार ही सूना हो जायेगा, उनके प्रस्ताव का विरोध कर दिया था। वे खुद इस काम को अपने हाथ में लेना चाहते थे। अंत में गोटी लगाने पर एकराय कायम हुई। सुनीति जी ने ही पांच व्यक्तियों के बीच गोटी लगायी और गोटी से निकला बैकुंठ शुक्ल का नाम। बस क्या था? बल्लियों उछल गये बैकुंठ शुक्ल और लग गये अपने काम में। साथी बने चंद्रमा सिंह। और ९ नवंबर १९३२ की शाम करीब सात बजे इस महारथी ने बेतिया के मीना बाजार में तेज और धारदार हथियार से फणीन्द्र नाथ घोष को काट डाला। तब फणीन्द्र नाथ घोष अपने मित्र गणेश प्रसाद गुप्त से बातचीत कर रहा था। गणेश ने बैकुंठ शुक्ल को पकडऩे का प्रयास किया तो उस पर भी प्रहार किये गये। फणीन्द्र नाथ घोष का प्राणांत १७ नवंबर को, जबकि गणेश प्रसाद का २० नवंबर को हुआ। फणीन्द्र की मौत से ब्रिटिश सरकार की नींव हिल गयी थी। जोर-शोर से हत्यारों की तलाश शुरू हुई। मौके पर दोनों क्रांतिकारियों की जो दो साइकिलें पकड़ी गयी थीं, उनके कैरियर से प्राप्त गठरी में से धोती, छूरा, सेफ्टी रेजर, आईना और टार्च बरामद हुए थे। धोती पर धोबी का नंबर लिखा था, इससे पुलिस को रास्ता मिला और वह दरभंगा मेडिकल कालेज के छात्रावास में रहने वाले बैकुंठ शुक्ल के ग्र्रामीण गोपाल नारायण शुक्ल तक पहुंच गयी। गोपाल शुक्ल ने स्वीकार कर लिया कि ४ नवंबर को बैकुंठ शुक्ल छात्रावास आये थे और बताया था कि मोतिहारी जाना है। उन्होंने ही उनसे धोती, रेजर आदि सामान लिये थे। इस प्रकार फणीन्द्र नाथ घोष के हत्यारों के रूप में बैकुठ शुक्ल और चंद्रमा सिंह की पहचान हुई। सरकार ने बैकुंठ शुक्ल की गिरफ्तारी पर इनाम की घोषणा कर दी। बाद में चंद्रमा सिंह ५ जनवरी १९३३ को कानपुर से, जबकि बैकुंठ शुक्ल ६ जुलाई १९३३ को हाजीपुर पुल के सोनपुर वाले छोर से गिरफ्तार कर लिये गये। गिरफ्तारी के समय उन्होंने 'इंकलाब जिंदाबाद’ और 'जोगेन्द्र शुक्ल की जय’ के नारे लगाये। मुजफ्फरपुर में दोनों शूरवीरों पर फणीन्द्र नाथ घोष की हत्या का मुकदमा चला। २३ फरवरी १९३४ को सत्र न्यायाधीश ने फैसला सुनाते हुए बैकुंठ शुक्ल को फांसी की सजा दे दी, जबकि चंद्रमा सिंह को दोषी नहीं पाते हुए रिहा कर दिया। बैकुंठ शुक्ल ने सत्र न्यायाधीश के फैसले के खिलाफ पटना उच्च न्यायालय में अपील की, लेकिन १८ अप्रैल १९३४ को हाईकोर्ट ने सत्र न्यायाधीश के फैसले की पुष्टि कर दी। इस फैसले ने १४ मई १९३४ को सरंजाम पाया और गया जेल में बैकुंठ शुक्ल को फांसी दे दी गयी। फिलहाल इतना ही। अगली पोस्ट में पढ़िए - द ट्रायल आफ बैकुंठ शुक्ल व देसी भाषा में पायी थी मिडिल तक की शिक्षा।

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।

Friday, May 22, 2009

हीन भावना से ऐसे उबरें (1)

सच पूछिए, यदि किसी को यह पता चल गया कि वह हीन भावना से ग्रसित हो चुका है या हो रहा है तो उसकी बीमारी का समझिए आधा इलाज हो गया। जिस दुश्मन को आप ठीक से समझ गये, समझिए उसकी आधी ताकत आपके पास आ गयी। जब तक दुश्मन के पैंतरों से आप अनजान रहते हैं, तभी तक वह आपके लिए खतरनाक रहता है। हीन भावना दरअसल तुलनात्मक अवस्था है, जहां व्यक्ति दूसरे के सापेक्ष खुद का आकलन करने लगता है। निश्चित रूप से यह खतरनाक स्थिति है, क्योंकि कभी कोई किसी के जैसा नहीं हो सकता है। गांधी के चेले भले बहुत पैदा हो गये, पर दूसरा गांधी फिर नहीं हुआ। दुनिया का हर व्यक्ति विशिष्ट है, अनूठा है। आपमें अनूठा क्या है, आपमें विशिष्ट क्या है, इसे खोजें और उसके तराशने में लग जायें। एक बार यह आदत पड़ गयी तो आप इतना व्यस्त हो जायेंगे कि हीन भावना क्या होती है, इसका अहसास भी आपसे बहुत दूर हो जायेगा।
होता यह है कि आदमी पैदा लेने के वक्त से ही सिर्फ और सिर्फ दूसरे की बातों पर अमल करने और उसी की चिंता में रात-दिन बिताने की जिन आदतों में पड़ता है सो पड़ा ही रहता है। आदमी को कभी खुद की ओर ध्यान देने का न तो वक्त मिल पाता है, न वह इसके लिए कोई प्रयास करता है। खुद की पुकार वह नहीं सुन पाता। उसका मन आइसक्रीम खाने को हो रहा है, पाकेट में पैसे भी हैं, पर खा नहीं रहा। क्यों? क्योंकि दफ्तर का डिकोरम इजाजत नहीं देता, बीवी रोक रही है। बड़ा अजीब लगता है, पर सच है। तो ऐसी ही छोटी -छोटी खुद की बातों को जब व्यक्ति सुनने का प्रयास शुरू कर दे तो हो सकता है कि उसका मिजाज बदले। हो सकता है कि वह खुश रहने लगे।
कुरुक्षेत्र में दिनकर लिखते हैं कि “ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में मनुज नहीं लाया है, अपना सुख उसने अपने भुजबल से ही पाया है” । दरअसल, हीन भावना का सही व्यावहारिक अर्थ खुद पर से विश्वास का कम हो जाना ही तो है। तो इससे पार पाने के लिए सबसे पहला जो उपाय है, वह यह है कि व्यक्ति खुद पर विश्वास करना शुरू करे। यानी आत्मविश्वास। फैसला लेने से पहले चार बार सोचें, पर यदि एक बार फैसला ले लें तो फिर किसी की टीका-टिप्पणी या थोड़े लाभ-हानि के चलते उसे न बदलें। ऐसी आदत डल गयी तो आप सही निर्णय लेने की कला तो सीख ही जायेंगे, लोगों में भी आपकी स्वीकार्यता बढ़ने लगेगी, बढ़ जायेगी। हीन भावना कहां गायब हो जायेगी, आपको पता भी नहीं चलेगा।
हीन भावना के पनपने के लिए प्राथमिक स्तर पर कारण के रूप में परिवेश का जिक्र किया गया था। परिवेश का मतलब वैसा माहौल जहां एक दूसरे को नीचा दिखाने वाले लोगों की जमात हो और आप उसमें फंसकर हीन भावना के शिकार हो रहे हों। दरअसल, बेवकूफों की जमात में बुद्धिमान भी बेवकूफ बन जाता है। ऐसे में जमात बदलने की जरूरत होती है, न कि उस जमात में रहकर घुट-घुट कर सांसें लेने व हलकान होते रहने की। एक व्यक्ति चाह ले, ठान ले तो पूरा माहौल, पूरा परिवेश बदल सकता है। ऐसे लोगों के उदाहरणों से इतिहास भरा-पड़ा है, पर यह लंबे समय के लिए जुझारू रणनीति पर काम करने से ही संभव है या फिर धैर्य की लंबी परीक्षा से गुजरने वाली बात है। जो लोग माहौल नहीं बदल पाते और खुद को हीन भावना से ग्रसित मानकर उपाय खोजते रहते हैं, वे दरअसल सिकनेस के शिकार होते हैं। होम सिकनेस, सिटी सिकनेस, इनवायरनमेंट सिकनेस। विकास के लिए व्यक्ति को इन सिकनेस से दूर रहना चाहिए। अच्छा भला आदमी होम सिकनेस के फेरे में खुद को बर्बाद कर लेता है। बर्बादी इंफीरियरिटी कांप्लेक्स की ही ओर तो ले जाती है।
दरअसल, पूरा मामला व्यक्तियों की क्षमताओं पर डिपेंड करता है। क्षमतावान व्यक्ति पहाड़ों से चट्टानों को तोड़कर रास्ता बना लेता है। ऐसा कर वह दूसरों के लिए भी मार्ग आसान बनाता है। आपको जब कभी ऐसा लगता हो कि आप हीन भावना के शिकार हो रहे हों या हो गये हों तो अपनी क्षमताओं को बढ़ाने की दिशा में सचेष्ट हो जाइए। आप जिस फील्ड में हैं, वहीं अपने ज्ञान को बढ़ाने में, क्षमताओं को विकसित करने में तल्लीन हो जाइए। आप वैसे लोगों के संपर्क से धीरे-धीरे किनाराकशी कर लीजिए, जो आपकी बातें नहीं सुनते, आपका उपहास उड़ाते हैं, आपका सम्मान नहीं करते। आप प्रतिभावान नये दोस्तों की श्रृंखला तैयार कीजिए। उनसे अपनी समस्याएं डिस्कस कीजिए, अनुभव बांटिए और भविष्य की कार्ययोजना पर बहस कीजिए। आप देखेंगे, ज्यों-ज्यों आपकी क्षमताओं का विकास होता जायेगा, हीन भावना गायब होती जायेगी। फिलहाल इतना ही। दरभंगा के सुधी पाठक श्री पंकज जी (निक नेम) द्वारा पूछे गये सवाल “हीन भावना से कैसे उबरें” के तहत जवाबों की तलाश में व्यक्तित्व विकास पर चर्चा अभी जारी रहेगी। धन्यवाद।

आप किसी को गद्दार कैसे कह सकते हैं, जबकि आप खुद ही किसी के विश्वासपात्र नहीं बन पाये?

Wednesday, May 20, 2009

हीन भावना से कैसे उबरें?

दरभंगा से एक सुधी पाठक पंकज जी (निक नेम) ने इस ब्लाग पर व्यक्तित्व विकास के सिलसिले में लिखे गये आलेखों को पढ़ा और उसकी सराहना करते हुए मेल पर पूछा है कि व्यक्ति इंफीरियरिटी कांप्लेक्स (हीन भावना) से कैसे उबरे? पहले तो मैं उन्हें बधाई दे लूं कि वे मेरे ब्लाग पर आये, मेरे आलेखों को पढ़ा और सराहना की। एक बधाई इसलिए भी कि उन्होंने पर्सनालिटी डेवलपमेंट से संबंधित एक महत्वपूर्ण सवाल उठाकर इस दिशा में कुछ और लिखने को प्रेरित किया। सवाल करने वाले हर व्यक्ति का पता नहीं क्यों मैं दिल से सम्मान करना चाहता हूं। दरअसल, आज जिस सोसाइटी में हम रह रहे हैं, वहां सवाल उठने बंद हो गये हैं। जिस सोसाइटी में सवाल नहीं उठाये जाते, उस सोसाइटी को सीधा-सीधा मृत मान लेने में मैं कोई बुराई नहीं समझता। जब सवाल उठेंगे तभी तो जवाब ढूंढ़े जा सकेंगे। मैं पर्सनालिटी डेवलपमेंट पर कई आलेख लिख चूका हूं, इसे कौन पढ़ता है, क्यों पढ़ता है, इसका सही पैमाना भी पंकज जी के सवालों से ही तय होता है, इसलिए उन्हें सवाल पूछने के लिए फिर से बधाई।
अब आते हैं मुद्दे पर। मुद्दा है, व्यक्ति हीन भावना से कैसे निकले, कैसे उबरे? तो आइए, पहले जानते हैं कि व्यक्ति आखिर हीन भावना से कैसे और किन परिस्थितियों में ग्रसित होता है। मेरा मानना है कि एक बार हीन भावना के पनपने और उससे ग्रसित होने के कारणों का विश्लेषण कर लिया जाय तो शायद जवाब तलाशना कठिन नहीं रह जायेगा। दरअसल, अलग-अलग परिस्थितियों में हीन भावना के पनपने के अलग-अलग कारण होते हैं। जब कारण अलग-अलग होंगे तो जाहिर है कि उनके निदान की विधियां भी अलग-अलग होंगी।
प्राथमिक स्तर पर दो चीजें हैं। एक परिवेश, दसरी व्यक्ति की क्षमता। आप जिस लायक हैं, उस लायक यदि आपको परिवेश नहीं मिला, माहौल नहीं मिला और ऐसी स्थिति निरंतर बनी रही तो आपके हीन भावना से ग्रसित होते जाने की संभावना बन आती है। दूसरी ओर, जब आप क्षमता से अधिक जिम्मेवारी ओढ़ लेते हैं, सुबह से शाम तक भाग-दौड़ के बाद भी आउटपुट निल पाते हैं और कार्यों के निवर्हन में हमेशा पीछे रह जाते हैं तो वैसे माहौल में भी आपके हीन भावना से ग्रसित होने की संभावना बन आती है।
तीसरी स्थिति कमजोर नेतृत्व के कारण उत्पन्न होती है, जबकि चौथी स्थिति व्यक्ति द्वारा स्वयं रचित होती है। ऐसा देखा गया है कि कमजोर नेतृत्व अपनी कमजोरी को छुपाने के लिए भी सदा दूसरों को उपेक्षित रखता है। अपने नीचे के साथियों को निराशा की गर्त में धकेलने और अपमानित करने के लिए वह तरह-तरह के हथकंडे अपनाता है। दरअसल, कमजोर नेतृत्व की चाहत अपने नीचे के लोगों से ऐन-केन-प्रकारेण काम करा कर उसका श्रेय खुद लूटना होता है। ऐसी स्थिति में उसके नीचे के लोगों के हीन भावना से ग्रसित होते जाने की संभावना बनती है।
व्यक्ति खुद भी अपने विचारों से बैठे-बिठाये हीन भावना से ग्रसित हो जाता है। यह बिल्कुल उसका निठल्ला और तुलनात्मक अध्ययन को अग्रसर रहने वाला माइंड होता है। किसी ने कार खरीद ली, वह हीन भावना से ग्रसित हो गया। किसी का बच्चा फर्स्ट कर गया, वह हीन भावना से ग्रसित हो गया। कोई पार्टी में गया, सजे-धजे लोगों को देखा और आ गयी हीन भावना। फिलहाल इतना ही। व्यक्तित्व विकास की श्रृंखला में हीन भावना (इंफीरियरिटी कांप्लेक्स) से कैसे उबरें को लेकर सुधी श्री पंकज जी के सवाल पर जवाबों को तलाशती चर्चा अभी जारी रहेगी।
घड़ी
की तरह हमेशा नियमित, पर रहिए गुलाब की तरह हरदम ताजा। फूलों की तरह नरम, पर बनिए चट्टानों की तरह कठोर भी।

Monday, May 4, 2009

अपने घर में रहिए पराये की तरह

जी हां, अपने व्यक्तित्व को चमत्कारिक बनाना चाहते हैं, सर्वग्राह्य बनाना चाहते हैं, सुखमय बनाना चाहते हैं और शांतिपूर्ण बनाना चाहते हैं तो मेरी सलाह है कि इस आलेख के शीर्षक को सूत्रवाक्य मानिए और आज से अमल शुरू कर दीजिए। क्या है इस वाक्य में? आइए दोहरायें। कहा यह जा रहा है कि अपने घर में रहिये पराये की तरह। थोड़ा अटपटा लग सकता है। मन में सबसे पहला जो सवाल उठेगा, वह यह कि क्या भई, अपने घर में पराये की तरह रहने की सलाह क्यों दी जा रही है? अब जरा मेरे साथ सोचिए। जब आप पराये घर में जाते हैं तो क्या करते हैं? सोचिए। बिल्कुल सलीके से घुसते हैं। घुसते हैं कि नहीं? चप्पल खोलकर, पैरों को झाड़कर। संभलकर बैठते हैं और सतर्क व्यवहार करते हैं। करते हैं कि नहीं? उस घर के एक-एक सदस्य यहां तक कि बच्चों के साथ भी आपका व्यवहार सम्मानपूर्ण होता है। होता है कि नहीं? उस घर की किसी चीज को नुकसान पहुंचाने की तो आप सोचते ही नहीं। जरा सोचिए, उस घर की महिलाओं की आप कितनी इज्जत करते हैं? करते हैं कि नहीं? तो आपका यही आचरण आपके अपने घर में भी शुरू हो जाये तो क्या अच्छा नहीं रहेगा? क्या यह बिल्कुल चमत्कारिक प्रभाव उत्पन्न करने वाला नहीं होगा? मेरा मानना है कि होगा और जरूर होगा। बस इस पर एक बार सोच विचार कर अमल तो कीजिए।

अब इसी मिजाज के दूसरे पहलू पर भी जरा गौर फरमाइए। जिस तरह आपने अपने घर में पराये की तरह रहना शुरू किया, ठीक उसी तरह पराये घर में यदि रहने की नौबत आये तो अपने की तरह रहने पर अमल कीजिए। मतलब समझे? पराये घर में रहिए अपने की तरह। जी हां, पराये घर के हर साजोसामान को अपने घर के सामान की तरह हिफाजत कीजिए, उसके साथ संभलकर पेश आइए। उस घर के माता-बहनों को अपनी माता-बहन समझिए और उसी प्रकार उनसे व्यवहार कीजिए। उस घर के बड़े-बुजुर्ग को अपने घर के बड़े-बुजुर्गों सा सम्मान दीजिए और फिर देखिए चमत्कार। चमत्कार होगा कि नहीं? मेरा तो मानना है कि होगा और जरूर होगा, बस एक बार अमल करके तो देखिए।

जिंदगी के वजुहातों से दो चार होने के दौरान आदमी शिकवा-शिकायतों में ही बहुत सारा समय गुजार देता है। शिकायत का पुतला बना घूमता-फिरता है आदमी। उसे शिकायत रहती है अपनों से, परायों से, जान-पहचान वालों से और वैसे लोगों से भी जो उसके जान-पहचान वालों में भी नहीं होते। यह शिकायती लहजा उसकी रातों की नींद हराम कर देता है, दिन का चैन छीन लेता है, अपनों से दूर कर देता है, परायों को करीब नहीं फटकने देता है। गफलत, गफलत, शंका-शक, चिंता, गुस्सा, बदला-दुश्मनी, घृणा-वितृष्णा, यही सब कुछ तो हैं जिसकी परिधि में फंसकर आदमी अपना पूरा व्यक्तित्व खराब कर लेता है, वर्तमान दुखों से भर लेता है, भविष्य चौपट कर लेता है। वर्तमान सुखद रहे, भविष्य संवरे, इसके लिए जरूरी है व्यक्ति के व्यक्तित्व का सुधरना। व्यक्तित्व विकास की बड़ी पाठशाला उसका अपना घर ही हो सकता है। घर से संभलने की कवायद हो तो प्रकाश बाहर भी फैलना शुरू होता है। मेरा मानना है कि घर से शुरुआत तभी हो सकती है, जब आप अपने घर में पराये की तरह और पराये घर में अपने की तरह रहना शुरू कीजिएगा। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। धन्यवाद।

अकेले बोल सकते हैं, इकट्ठे चिल्ला सकते हैं, अकेले मुस्कुरा सकते हैं, इकट्ठे हंस सकते हैं, अकले जी सकते हैं, इकट्ठे जश्न मना सकते हैं।

Saturday, May 2, 2009

एक बार में एक ही धंधा करें

यह जमशेदपुर और कुछ दिनों पहले की बात है। वहां त्रिदंडी स्वामी आये थे। उस दौरान उनका मौन व्रत चल रहा था। बातें स्लेट पर ही लिखकर करते थे। काफी मशक्कत के बाद उनसे रूबरू होने का मौका मिला। मेरा उनसे एक ही सवाल था। मैंने उनसे पूछा- बाबा, शास्त्रों में लिखा है कि एक बार भगवान का नाम लेने से जीवन कृतार्थ हो जाता है, सफल हो जाता है। हम तो बार-बार भगवान का नाम लेते हैं, फिर भी कष्टों में पड़े हुए हैं। बाबा मुस्कराये, बोले, सॉरी, स्लेट पर लिखे- शास्त्रों पर आपने भरोसा कहां किया! मैभौचक्क। बाबा ने आगे लिखा- शास्त्रों पर भरोसा करते तो बार-बार नाम नहीं लेते। और जब जिस चीज पर भरोसा नहीं, उसका फल आप कैसे पा सकते हैं? बाबा के दृष्टांत से मैं कोई धार्मिक अंधविश्वास की विवेचना नहीं करने जा रहा। पर, व्यक्तित्व विकास के लिए जो सार्थकता इसमें छिपी है, बस उसी को उद्धृत करना चाहता हूं। उनके कहने का मतलब था - विश्वास बड़ी चीज है। व्यक्तित्व विकास के लिए इसे ऐसे समझें कि अपना व्यक्तित्व तो विश्वास भी सबसे पहले अपने ऊपर। यानी आत्मविश्वास। जी हां, यह बहुत जरूरी है। जिस आदमी को खुद के ऊपर विश्वास नहीं होगा, वह कैसे और क्योंकर आगे बढ़ पायेगा। है न विचार करने के लायक?

अब एक दूसरे बाबा संत जगदीश गौतम उर्फ जयमंगलाबाबा की बात सुनिये। जब मैं ग्रेजुएट करने के बाद गांव में बेरोजगारी का दिन गुजार रहा था या यूं कहिए कि रोजगार की तलाश में लगा था, उसी दौरान यह यायावर बाबा वहां आये। उनसे थोड़ी देर की मेरी जान-पहचान हुई। बाद में संयोग ऐसा हुआ कि पत्रकारिता और अखबारों की नौकरी के दौरान जहां-जहां रहा, वहां-वहां वे यज्ञ अनुष्ठान के लिए पहुंचे और एक बुजुर्ग से मिलने की हैसियत से उनसे मेरी लगातार , कुछ-कुछ वक्फों के बीच में, मुलाकात होती रही। कभी जमशेदपुर, कभी अमृतसर, कभी वैशाली तो कभी मुजफ्फरपुर। अभी हाल ही में उन्होंने मुजफ्फरपुर के शेरपुर में एक विराट यज्ञ कराया है। मेरा मानना है कि जीवन की व्यस्तताओं के बीच मानव को समय निकालकर बड़े जनों, गुरु जनों के साथ बैठना चाहिए और निर्विवाद रूप से जीवन के मसलों पर चर्चा करनी चाहिए। कौन जाने, कहां, किस वेश में मिल जायें भगवान...।

तो, अभी थोड़े दिनों पहले मैंने उनसे सवाल ठोका- बाबा, आदमी कभी इस धंधे में, कभी उस धंधे में लगा रहता है, विफल होता रहता है। उसे शिकायत रहती है, बास से, संस्थान से, नौकरी से। ऐसे में क्या करे आदमी? बाबा ने ऐसे तो बहुत सारी बातें कहीं, पर उनकी दो बातें यहां लिखे जाने के लायक है। उनके कहने का सार यह था कि आदमी पहले अपना लक्ष्य तय करे। यह तय करे कि उसे करना क्या है? यह पता हो जायेगा कि उसे करना क्या है तभी उसकी सारी इंद्रियां उस दिशा में कार्य करना शुरू करेंगी और उसे सपोर्ट करेंगी। लक्ष्यहीनता की स्थिति में परेशानी अवश्यसंभावी है। परेशान आदमी का लहजा शिकायती हो जाता है। पहले तो वह दूसरों पर दोष देता चलता है, धीरे-धीरे वह खुद को दोष देने लगता है और अंत में इस आदत से उसका पूरा जीवन चौपट होकर रह जाता है। दूसरी बात, विफलताएं लक्ष्यहीन व्यक्ति को ही परेशान करती हैं। जिसने लक्ष्य तय कर लिया, इसका मतलब लक्ष्य प्राप्त करने के लिए उसने कमर भी कस ली। कमर कसने का मतलब वह आने वाली परेशानियों से दो-चार होने के लिए तैयार हो गया। फिर विफलताएं उसे परेशान नहीं करतीं। जितना वह परेशान होता है, लक्ष्य के प्रति उसका अटैंशन उतना ही बढ़ जाता है। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि आदमी एक बार में एक ही काम करे। इससे काम की संपन्नता निश्चित हो सकती है। एक समय से कई धंधे अपने हाथ में लेने से विफलता और निराशा के हाथ लगने की संभावना बढ़ जाती है। फिलहाल इतना ही। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी।

जीवन में कुछ क्षण ऐसे आते हैं, जब हमें किसी की जरूरत नहीं होती, पर जीवन में ही कुछ क्षण ऐसे भी आते हैं, जब जरूरत पड़ने पर हमें एक भी व्यक्ति नहीं दिखता।