Monday, September 14, 2015

हिंदी बोलें, हिंदी लिखें

अभी से कर सकते शुरुआत
हिंदी को लेकर न जाने कितनी बातें हुईं, हो रही हैं। अधिनियम पर अधिनियम बने। पर, हिंदी आज भी पूर्ण राष्ट्रभाषा का दर्जा पाने को तरस रही है। जिन लोगों ने इसकी पैरोकारी की, वे ही इसे अमल में नहीं ला रहे। मौका मिला नहीं कि अंग्रेजी को ही आगे सरका रहे हैं। यह सभी सरकारी विभागों में देखा जा सकता है। शासकीय प्रयोजन की अधिकतर कागजी कार्यवाही से हिंदी गायब है। यह आज की बड़ी चिंता है। खैर, सरकार ते जब चेतेगी तब चेतेगी, हम-आप तो अभी से शुरुआत कर सकते हैं। हिंदी के कुछ आग्र्रह है, उन्हें सुनिए, गुनिए....।

हिंदी हैं हम, वतन है... 
हिंदी भाषा है, अब तक हम यही जानते हैं। संभवत: इसीलिए इसकी लड़ाई भी भाषा की पहचान दिलाने तक ही आवाज बुलंद कर सीमित हो जाती है। देखने की बात यह है कि हिंदी हमारी भाषा इसलिए है कि हम खुद हिंदी है। जरा याद कीजिए वह गीत... हिंदी है हम वतन है हिंदोस्तां हमारा...। यह समझ विकसित करनी होगी।

आदत सुधारने की बात है
आपको हस्ताक्षर करने हैं। तपाक से अंग्रेजी में कलम घिसट दी। क्यों भई, क्या हिंदी में हस्ताक्षर मान्य नहीं होते? किसी ने पता पूछा, आपने पर्ची पर अंग्रेजी में अपना पता लिखकर थमा दिया। सोचिए, क्या इसे हिंदी में नहीं लिखा जा सकता? यदि हां, तो लिखते क्यों नहीं, आदत सुधारते क्यों नहीं?

बच्चों को बताना होगा 
आजकल छोटे-छोटे बच्चे गुड मार्निंग, टाटा-टाटा, बाई-बाई करते दिख जाते हैं। जिन्हें सलीके से कदम उठाना नहीं आता, पानी मांगना नहीं आता, उन्हें भी इस तरह बोलना सिखाया जाता है। सिखाने वाले भी बस इतना ही जानते हैं। हैरत है। वे चाहें तो इसके बदले हिंदी में प्रणाम, सुप्रभात, शुभ विदा जैसे शब्दों-वाक्य विन्यासों का इस्तेमाल कर सकते हैं। बच्चों को बता सकते हैं। ध्यान रहे संस्कार बचपन से ही डाले जाते हैं।

फार्म भी भरिए हिंदी में 
रेलवे स्टेशन गए। आरक्षण का फार्म भरते हैं। विकल्प है। इसे हिंदी में भी भरा जा सकता है। आप वहां अंग्रेजीदां क्यों बन जाते हैं? क्या हिंदी नहीं आती? आती है तो इसे हिंदी में ही क्यों नहीं भरते? हिंदी का आग्र्रह है, उसे हिंदी में ही भरिए। बैंकों, डाकघरों, सरकारी कार्यालयों की किसी कागजी कार्यवाही में भी इसी अनुशासन का पालन किया जा सकता है, कीजिए। अबकी हिंदी दिवस पर यह संकल्प लीजिए, शुरुआत तो कीजिए ही...।

(हिंदी दिवस पर हिंदी को समर्पित दैनिक जागरण के १४ सितंबर २०१५ के अंक में प्रकाशित मेरा आलेख)