Tuesday, March 24, 2009

आप क्यों नहीं करते इंतजार

आपने सुना होगा समय पर ही पौधा फल देता है, पकता है, खाने लायक बनता है। आप पौधों को कितना भी पानी दें, उसमें कितनी भी खाद डालें, कितनी भी खेतों की जुताई करें, पर फल अपने निश्चित समयावधि में ही आता है और खाने लायक होता है। जीवन को ही देखिए, न तो बच्चा एकाएक पैदा होता है, न ही वह अचानक जवान हो जाता है। होता है क्या? बच्चे को साल दर साल संभाल कर रखना होता है, उसे भी संभलना पड़ता है, तब जाकर वह किसी काम का दावा करने के लायक बन पाता है। एक बार किसी काम के लायक वह समझ भी लिया गया तो जीवन की चुनौतियों से उसे मुतवातर जूझना पड़ता है। ऐसे-ऐसे मोड़ हैं कि जहां कहीं वह चूका, वहीं वह धराशायी हो जाता है। हो जाता है कि नहीं? तो जिसे धराशायी नहीं होना हो, जिसे निरंतर आगे बढ़ना हो, उसे इस सूत्र को गहराई से पकड़ने की जरूरत होगी। जरूरत इस बात की कि कोई हड़बड़ी नहीं, कोई जल्दबाजी नहीं। एक भागती हुई ट्रेन को पकड़ने के लिए आपने जल्दबाजी दिखायी, दौड़े और गाड़ी पकड़ने से पहलेही चोट खाकर घायल हो गये, गिर गये तो क्या गाड़ी पकड़ ली आपने? नहीं न? उल्टे घायल होकर बिस्तर पर पड़े-पड़े दो चार दिन बेकार में गुजार दिये। इस फेरे में आपके वैसे आवश्यक काम भी नहीं हो सके, जिन्हें हो जाना और कर पाना न केवल आसान था, बल्कि जरूरत का भी विषय-वस्तु था।
तोव्यक्तित्व विकास के लिए यह समझ लेना आवश्यक है कि किसी भी अच्छे परिणाम के लिए इंतजार करना पड़ता है। आपको खाना खाना है। इसके लिए खाना बनाने की जरूरत होगी। बनने में समय लगेगा। बिना समय दिये खाना पकता है क्या? बड़े-बुजुर्गों को हमेशा यह कहतेआपने सुना होगा। इंतजार का फल मीठा होता है। जीवन संदेशों में कर्म पर जोर देकर फल से व्यक्ति को बिल्कुल परे रहने को कहा गया है। यह शायद इसलिए कि आपके हाथों में कर्म ही है। हां, फल का मिलना कर्मों के आधार पर ही तो तय होता है। आपने किसी को गाली दी, आपका पिटना तय है। यदि गाली खाने वाला आपको नहीं पीट रहा है तो वह उसकी गांधीगीरी है, उसे सलाम ठोकिए। तो इंतजार जरूरी है। हड़बड़ी में गल्ती होने की संभावना है। मेरा तो यह मानना है कि जहां कहीं भी गल्तियों की संभावना दिख रही हो, वहां तो बिल्कुल हड़बड़ी न दिखाइए। थोड़ा धीमा होइए। रफ्तार कम कीजिए और कीजिए इंतजार। इंतजार परिणाम आने का, इंतजार कोशिशों को अंजाम पानेका और इंतजार उस अहसास का भी जो आपके अंदर तक पहुंचने के बाद महसूस होता है। इसे थोड़ा समझ लीजिए। आपको किसी ने गाली दी, जवाब में आपने भी उसे गाली दे दी। पर, जब रात में आप सोने गये तो आपको लगा कि उसका गाली देना ठीक था और आपका जवाब में गाली देना गलत। तो इस गल्ती को आप कैसे सुधार पायेंगे? जरूरी था कि गाली देने से पहले इंतजार कर लेते। क्योंकि तब अहसास का इंतजार करना होता। एक बात और। दुनिया में कुछ भी एकाएक नहीं होता। सब कालखंड, कालावधि का हिस्सा होता है। जीनव-मृत्यु के बीच फासले बहुत कम होते हैं। अभी जीवन है, अभी ट्रक के नीचे आ गये। अभी जीवन था, अभी खत्म। तो जल्दबाजी किस बात की, हड़बड़ी किस बात की? और कुछ बातें जो किसी के लिए बिल्कुल असामान्य होती हैं, किसी के लिए बिल्कुल सामान्य होती हैं। यह आपके लिए भी सामान्य हो सकती हैं, यदि आप इसके लिए थोड़ा इंतजार करना सीख जायें। एक बात और। यदि किसी पौधे को पानी नहीं दिया जाय तो क्या वह फल नहीं देगा? आम का होगा तो आम का ही देगा और देगा जरूर। आपको बुखार लग गया और आपने खूब दवा कर उसे छुड़ा लिया, पर क्या आप दवा नहीं खायेंगे तो बुखार नहीं जायेगा? कोई घाव, जिसकी आपने मरहम पट्टी नहीं की, क्या वह ठीक नहीं होता? सबकुछ ठीक होता है, पर उसके लिए इंतजार चाहिए, समय चाहिए और बेहतर परिणाम हासिल कर सकने लायक निरंतर प्रयास चाहिए। चाहिए कि नहीं। फिलहाल इतना ही। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। अगली पोस्ट में पढ़िए- आपका विकल्प वो तो उसका विकल्प कौन?

लगातार गल्तियों का मतलब सफलता के करीब भी जाना होता है, यदि गल्तियां होश में की जायें। इसलिए गल्तियों से सबक लीजिए, उससे घबराइए नहीं।

Friday, March 13, 2009

सामने वाला पगला, चमचागीरी न कीजिए

हालांकि, यह टिप्पणी बहस को आमंत्रित कर सकती है, पर व्यवहार में यह काफी सही उतरती है, व्यक्तित्व विकास के लिए इस टिप्स को समझ लेना जरूरी हो सकता है। अधिकतर लोग जो ड्राइविंग से वाकिफ होंगे, वे इस बात को बखूबी समझ सकते हैं। जब आप सड़क पर चलते हैं तो आपने देखा होगा कि आप भले ठीक चल रहे हों, अपने रास्ते पर जा रहे हों, पर यदि सामने वाला ठीक से नहीं चल रहा तो आप दुर्घटना के शिकार हो जाते हैं। अधिकतर दुर्घटनाएं किसी एक ड्राइवर की गलत ड्राइविंग की वजह से ही होती हैं। दोतरफा गलती कम ही दिखती है। तो जब आप ड्राइविंग कर रहे हों तो सामने वाले को बिल्कुल पगला मानकर ही चलना होगा और बचना होगा। आप मान ही लीजिए कि सामने वाला कुछ भी कर सकता है, किधर भी जा सकता है। और एक बार जब आप ऐसा मानकर ड्राइविंग करेंगे तो आपके साथ दुर्घटना की संभावना कम हो जाती है। है कि नहीं? तो ड्राइविंग की इस सजगता को व्यक्तित्व विकास के लिए सक्रिय व्यक्ति को पकड़ने की जरूरत है, समझने की जरूरत है। एक बार यह सूत्र पकड़ में आ गया तो समझिए, बड़ी चीज हासिल हो गयी।
दरअसल, दुनियावी काम और दफ्तरी मुकाम के बीच आदमी बिल्कुल भीड़ का हिस्सा बन जाता है और सामने वाले को ही अपना सब कुछ, सर्वस्व मान बैठता है। हर जगह दीदें फाड़ता रहता है, दुखड़ा रोते चलता है। यह व्यक्तित्व विकास के लिए खतरनाक स्थिति है। खतरा यह है कि यह बिल्कुल एकतरफा होता है। होता यह है कि जिसे आप सर्वस्व मान बैठते हैं, उसे आप खुद को पूरी तरह इस्तेमाल करने की छूट दे देते हैं। सामने वाले को बिना मांगे सुपरमेसी मिल गयी। और आपने देखा होगा जब बिना परिश्रम किसी को कुछ मिल गया तो उसका बेजा इस्तेमाल अवश्वसंभावी हो जाता है। सो, आपका बेजा इस्तेमाल भी निश्चित हो जाता है। और एक दिन जब आपके ज्ञानचक्षु खुलते हैं, आपका अहं, आपका जमीर आपको ठोकर मारता है और उसके इस्तेमाल पर आपकी नजरें जाती हैं तो आपकी पूरी प्रवृति विद्रोही हो जाती है, आप गद्दार तक कहे जाने लगते हैं। सारा डिवोशन (त्याग) खत्म। यह एक दिन में नहीं होता। गौर से देखा जाय तो व्यक्ति इसके लिए खुद ही जिम्मेवार होता है। सजग और सचेत अवस्था का आचरण, जिसमें सामने वाले को बिल्कुल पगला मानते हुए आपने काम किया यानी बचकर काम किया तो निश्चित मानिए, आपका व्यक्तित्व खिला-खिला रहेगा। खिला रहेगा कि नहीं?
चमचों को तो आपने देखा होगा। मौका-बे-मौका थोड़ी-बहुत तो चमचागीरी हर किसी ने की होती है। आई रिपीट, पर, चमचों को तो आपने देखा ही होगा। चमचों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह होती है कि सारी दुनिया तो उसे चमचा समझती ही है, जिसकी वह चमचागीरी करता है, वह भी उसे चमचा ही समझता है। और चमचे से हमेशा, मैं फिर कहता हूं, हमेशा, चमचागीरी की ही उम्मीद की जाती है। वह चाहे जितना उठ जाय, पर चमचागीरी से आजीवन ऊपर नहीं उठ पाता। स्थितियां ऐसी हो जाती हैं कि चमचागीरी से ऊपर उठना उसके लिए संभव नहीं हो पाता। कभी ऊपर उठा भी तो पता चलता है कि उसने एक की चमचागीरी छोड़कर किसी दूसरे की चमचागीरी शुरू कर दी। चमचागीरी उसकी जरूरत, उसकी मजबूरी बन जाती है। वह लाख काम का आदमी है, लाख हुनरमंद है, लाख जौहर वाला है, पर वह चमचा है। यह व्यक्तित्व विकास के लिए सक्रिय व्यक्ति के लिए खतरनाक है। इसे समझना और इससे बचना जरूरी है। है कि नहीं? फिलहाल इतना ही। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी।

सफलता के लिए जरूरी है विफलता के सारे कारणों को तसल्ली से समझ लिया जाय।

Monday, March 9, 2009

खेलूं मैं होली खून से

होली के रंग में भंग हो गया
जब थोड़ा सा मनवा मेरा तंग हो गया,
बात कुछ ऐसी हुई, मैं गया भाभी के पास,
दिल में एक आग लिये और लिये ढेरों आस,
घर में मैं ज्योंही घुसा, पाया था चूल्हा ठंडा,
ढंडा चूल्हा देखकर सर पे पड़ा था डंडा,
बदतमीजी आदतन थी, चाहा खेलना होली,
भाभी का स्वीकार देखकर चलने लगी सीने पे गोली,
हाय मेरी बदकिस्मती, भाग भी न पाया,
जड़वत खड़ी भाभी ने जब दुखड़ा अपना सुनाया,
भैया गये थे पास की दुकान में लेने को राशन,
राशन क्या मिलता, उन्हें सुनना पड़ा था कड़वा भाषण,
कई महीने हो गये उधार का खाते-खाते,
खाली हाथ लौट आये छुपते, छुपाते,
बच्चे गये पड़ोस में, चाचा खिलायेंगे तो कुछ,
होली के इस रंग में रंगी खड़ी हूं बनके बुत,
आप आये हैं यहां तो आपकी भी आस है,
खेलिए होली, आपकी भाभी आपके पास है,
रंग और गुलाल से तर कीजिए, आइए जनाब,
हुस्न को हाथों से भर लीजिए, आइए जनाब,
वर्ष भर के बाद आया है यह होली का त्योहार,
बस समझिए, आप मुझको आज का ताजा उपहार,
'गलियों के कुत्ते' हमेशा भूंकते हैं मौज से,
उनको क्या पड़ी है, इन भूखों की बेबस फौज से,
दिल में जो इक आग थी, वह और भी भड़क उठी,
घर से जो भागा तो दहलीज भी कड़क उठी,
भागता परिवेश से, आक्रोश से, जुनून से,
दिल में इक आग थी, खेलूं मैं होली खून से,
उनके खून से, जिन्होंने बेबसों को मारा है,
जिनका बच्चा बाप के होते भी बेसहारा है,
रैलियों-रैलों की जिनको चिंता है सुन लीजिए,
मरना पड़ेगा आपको भी, रास्ता चुन लीजिए,
एक होली आपकी भी होगी ऊपर में हजूर,
रंग में जब भंग पड़ेगा, रोइएगा जरूर,
आप होंगे तन्हा और तन्हाई होगी साथ में,
न्याय का कोड़ा पड़ेगा, लहू होगा हाथ में,
बेबसों पर जुल्म का इल्जाम होगा आप पर।
आप होंगे घाट पर और घाट होगा आप पर।।

आपकी क्षमताएं आपको टाप पर पहुंचाती हैं, पर आपका आचरण आपको उस टाप पर बनाये रखता है।

Friday, March 6, 2009

अंतर को पकड़िए, खिल उठेगी जिंदगी

जैसे नुक्ते के हेरफेर से खुदा जुदा हो जाते हैं, रेफ के हेरफेर से शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं, ठीक वैसे ही आचरण औऱ चरित्र के अंतर को पकड़ने से जिंदगी बदल जाती है, जीवन खिल उठता है। आप मानव हैं तो आपका चरित्र मानवीय होना चाहिए। मगर, मानवीय चरित्र के व्यक्ति का भी आचरण कुत्तों जैसा हो सकता है, बंदरों जैसा हो सकता है, सियार जैसा हो सकता है, भैंस जैसा हो सकता है, शेर जैसा हो सकता है। थोड़ी-थोड़ी बातों का अंतर होता है। इसकी ठीक से निगरानी कर और उसमें सुधार लाकर व्यक्तित्व को विकसित किया जा सकता है। दो-तीन चीजें हैं, जिन्हें साफ-साफ समझ लेना चाहिए। पहला कि भले आपका आज, आपका वर्तमान कल यानी भूतकाल की अवधारणाओं पर टिका हो, पर आने वाला कल यानी भविष्य आज की अवधारणा पर टिका रहे, इसे कतई जरूरी मत मानिए। ख्याल रहे, यहां बात चरित्र और आचरण के संदर्भ में हो रही है। आज आपको किसी ने गाली दी, आपने उसे पीट दिया। कल भी आपको कोई गाली दे रहा है औऱ आप उसे पीट रहे हैं। क्या यह मानवीय और सुधार का आचरण है? और यदि इसे आप मानवीय चरित्र समझ रहे हैं तो बड़ी भूल कर रहे हैं। इतना सिस्टमेटिक, इतना मैकेनिकल भी होने की जरूरत मैं नहीं समझता। बीते हुए कल में जो हुआ, वह आने वाले कल में संशोधित हो जाना चाहिए। कुछ ऐसा हो कि कल आपको किसी ने गाली दी और आपने उसे पीट दिया हो, मगर अब जो कल आ रहा है, उसमें कोई आपको गाली दे रहा है और आप उसे गले लगा रहे हैं तो मानिए आपका आचरण बदला। आपने कल और आज का अतर पकड़ा। दूसरी बात है आदत। क्षुद्र आदतों को, जो आपके व्यवहार में समाहित हो चुकी है, आपने अपना चरित्र मान बैठा है। इससे परेशानी बहुत होती है, दिक्कतें बहुत होती हैं। आपने शुरुआती जीवन में कुछ गलतियां कीं, कुछ आदतों पर अमल किया और उसे ढोये जा रहे हैं, दोहराये जा रहे हैं, उसी पर अमल किये जा रहे हैं, उसी के किस्से सुनाये जा रहे हैं। आपके ध्यान में भी नहीं है कि यह आपके बचपन, किशोरावस्था की बातें थीं, अब आप प्रौढ़ हो चुके हैं और सामने वाला जो अभी किशोरावस्था में है औऱ जो आपकी इन बीमारियों और किस्सों से पूरी तरह ग्रसित है, आपकी ओर उससे मुक्ति पाने का मार्ग जानने के लिए देख रहा है। इस उम्र के फर्क को पकड़कर आदतें बदलने की जरूरत है, व्यक्तित्व विकास के लिए यह जरूरी है। तीसरी बात है सीधा संवाद। दूसरे अर्थों में चुगलखोरी बिल्कुल नहीं। आचरण के इस विषय-वस्तु को आप चरित्र माने बैठे हैं तो आपका व्यक्तित्व बिल्कुल प्रभावी नहीं हो सकता, इसकी गारंटी है। एक आदमी से आपकी शिकायत हुई और लगे लाबिंग करने। शिकायत करने वाले पर इसका बहुत बाद में फर्क पड़ेगा, आप उससे पहले फरेबी मान लिये जाएंगे, इतना याद रखिए। अभी कुछ दिनों पहले की बात है, अखबार के दफ्तर में एक डेस्क पर चपरासी ने अखबार नहीं दिया। वहां अखबार छपकर आने के साथ ही सभी डेस्कों पर एक-एक कापी देने की परंपरा है। डेस्क के साथी ने जब चपरासी से पूछा तो उसका कहना था कि ऐसा मैनेजर साहब का आदेश है। अब सन्नाटा। सभी डेस्कों को अखबार मिला और इसी डेस्क को इससे वंचित किया गया तो इसका मतलब डेस्क की महत्ता पर सवाल। साथी के मन में हलचल मच गयी। कहने लगे कि यह तो बड़ा मुद्दा है, मैं ऊपर तक उठाऊंगा, मालिकानों तक मेल करूंगा। मैंने कहा, ठीक है, सबकुछ कीजिएगा, पर आज मत कीजिए, और आज ही करना है तो पहले मैनेजर साहब से बात कीजिए। उनका कहना था कि क्यों, अब मैनेजर साहब से बात करने की क्या जरूरत है, उन्होंने तो रोक ही दिया है, चपरासी गलत थोड़े बोल रहा है। फिर भी मेरा कहना था-आज भर रुकिये। दरअसल रात हो गयी थी और मैनेजर साहब घर चले गये थे। मैं उन्हें घर पर डिस्टर्ब नहीं करना चाह रहा था। मैं भी दफ्तर से निकल गया। रात के ग्यारह बज रहे थे। रास्ते में मुझे लगा कि साथी कहीं मेल चलाकर मामला बिगाड़ ने लें, मैंने रुककर अपने मोबाइल से मैनेजर साहब को कॉल लगा दी। नमस्कार-प्रणाम के बाद उनके सामने मुद्दे की बातें रखीं। उन्होंने तत्काल कहा, ऐसा तो चपरासी को नहीं कहा गया है। उन्होंने बताया कि चपरासी ने गलत समझा है। उससे सिर्फ इतना कहा गया है कि जिस डेस्क का काम जब तक चलता है औऱ वहां जब तक साथियों की उपस्थिति रहती है, उस डेस्क पर उसी वक्त तक का अखबार दिया जाय। उन्होंने कहा कि साथी को समझाइए, यदि वे शुरू से आखिर तक अपनी डेस्क चलाते हों तो उन्हें शुरू से आखिर तक अखबार दिया जायेगा। यानी मैनेजर साहब से बातें करने के बाद मामला खत्म। मैंने साथी को फोन कर बताया तो सन्नाटा भी खत्म। कल्पना कीजिए, यह सीधा संवाद नहीं होता तो साथी की कितनी भद्द पिटती? व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। धन्यवाद।

दस लोगों से दस-दस रुपये कर्ज लेने के बजाय किसी एक व्यक्ति से सौ रुपये ले लीजिए। तकादा करने सिर्फ एक ही व्यक्ति आपके दरवाजे पर पहुंचेगा।

Monday, March 2, 2009

बिना होश का जोश होता है विध्वंसक

जोश का आना बुरा नहीं है, बशर्ते यह होश के साथ आये। जोश का आना बुरा क्यों नहीं है? इसलिए कि बिना जोश के कहीं कोई काम होता है? सफलता की मंजिलें तय करने के लिए व्यक्ति में जोश तो होना ही चाहिए। मगर, व्यक्ति में अपने जोश के प्रति पूरा-पूरा होश रहना बहुत जरूरी है। यह जान लीजिए, बिना होश का जोश विध्वंसक होता है, विनाशक होता है। एक मेरे सहकर्मी हैं। थोड़े कनिष्ठ पद पर। बताते हैं कि बीपी (ब्लड प्रेशर) के पेंशेंट बन चुके हैं। थोड़ी-थोड़ी बात पर उत्तेजना, भावातिरेक और जोश दिखाने की आदत से उन्हें लिप्त कहा जा सकता है। दूसरी नौकरी पकड़ने के बाद जब पहली नौकरी छोड़ने जाते हैं तो पूरी तरह जोश में होते हैं, पर उसके परिणामों का होश वे बिल्कुल नहीं रख पाते। करते क्या हैं? आम तौर पर लोग नौकरी बेहतरी के लिए तो बदलते हैं, पर पुराने संस्थान में परेशानी का बढ़ना और अच्छे माहौल का नहीं रहना भी मुख्य वजहें होती हैं। अमूमन लोगों के पास संस्था के प्रति कोई न कोई खुन्नस होती ही है। तो इसका क्या मतलब कि जब आप दूसरी नौकरी तलाश लें तो पहली वाली संस्था से बिल्कुल बिगाड़ कर लें? जी तो चाहता है, उल-जुलूल बकने का, कुछ मिजाज के लायक जवाब देकर अलविदा करने का, पर यह जोश होता है और यहीं होश की जरूरत होती है। क्या है होश? होश की बात यह है कि जिस संस्था में आप शुरुआत करने जा रहे हैं, वहां क्या गारंटी है कि आपकी स्थिति हमेशा ठीक ही रहेगी? क्या जरूरी है कि वहां आपका कभी बिगाड़ नहीं होगा? और जब होगा तब क्या करेंगे? फिर से नौकरी की तलाश करनी होगी, यही न? तो ठीक है कि आप इससे पहले जिस संस्था को छोड़ कर आये हैं, वहां नयी नौकरी मांगने नहीं जायेंगे, पर जिस तीसरी जगह नौकरी मांगने जायेंगे वहां कहीं वही व्यक्ति हुआ, जिसे आप इस्तीफा फेंक कर आये थे तो सोचिए क्या होगा? सहकर्मी के साथ यही हो रहा है। तो कभी बेबजह का, बिना होश के दिखाया गया आपका जोश, भारी पड़ जायेगा। है न?
एक लड़का है। जोशीला, गर्म मिजाज का। कभी किसी से भिड़ जाने की आदत है। इंटर करने के बाद उसे ग्रेजुएशन में नाम लिखाना था। अभिभावक उसे जरूरत के मुताबिक पैसे दे रहे थे, पर उसकी डिमांड थोड़ी ज्यादा थी। लड़के की मां ने कहा कि अभी इस पैसे से जरूरी काम करो, नाम लिखवाओ, कमरे ठीक करो, फिर और पैसे दिये जायेंगे। बच्चा जोश में आ गया। उसने रुपये फाड़ डाले और रुठकर घर बैठ गया। बाद में तो वह जिद पर आ गया। गया ही नहीं कालेज करने। नतीजा, वह इंटर पास ही रह गया। आज जब उसे नौकरी के लिए ग्रेजुएशन की डिग्री की अहमियत समझ में आयी तो काफी वक्त बीत चुका है। लड़के के पास हाथ मलने के सिवाय कोई चारा नहीं रह गया है। अपने जोश को वह हजार बार लानतें भेजता रहता है। अब होश के साथ जोश का एक उदाहरण। वीपी सिंह के मंडल कमीशन का जमाना था। गांवों में अगड़ी और पिछड़ी जाति के लोग बेबजह एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे। मजदूर नहीं मिलने के कारण कुछ गांवों में अगड़ी जाति की जमीनों में फसलें नहीं बोयी जा सकीं। कम से कम दो गांवों का नाम यहां लिया जा सकता है। ये हैं वैशाली जिले के जलालपुर और चिंतावनपुर गांव। इन गांवों में अगड़ी जाति के युवकों ने, जो कभी शाम होते ही पीने-पिलाने और बाजार में दंगा-फसाद के लिए कुख्यात थे, ठान ली कि वे खेती करेंगे। एक लड़का उठा और ट्रैक्टर से पूरे गांव के खेतों को जोतता चला गया। दूसरा युवक उठा और बीज इकट्ठा कर समवेत रूप से उसे एक-एक कर खेतों में बोता चला गया। इनके जोश का नतीजा है कि ये दोनों गांव अब खेती के लिए किसी पर निर्भर नहीं हैं। आजकल यहां केले और आम की खेती लहलहा रही है। हालांकि, बाद में पिछड़ी जाति के लोगों को भी चेतना आयी और वे उनके साथ हो गये हैं। तो व्यक्तित्व विकास के लिए यह बहुत जरूरी है कि व्यक्ति जोश तो दिखाये, पर होश के साथ। होश में जोश दिखाने वाला व्यक्ति ही समाज में प्रतिष्ठा भी पाता है। फिलहाल इतना ही। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी।

मनुष्य का निज धर्म सेवा ही होना चाहिए, करुणा नहीं। करुणा ईश्वर के लिए छोड़ दीजिए।