Wednesday, December 31, 2008

तेरे में बहुत 'नमक' है रे भाई....

आज जो बातें लिख रहा हूं, मेरी समझ से व्यक्तित्व विकास के लिए यह बड़ा महत्वपूर्ण चैप्टर है। यदि आप इसे पढ़ रहे हैं तो गौर से और गंभीरता से पढ़ने की गुजारिश है। मेरे एक सहयोगी हैं, उन्होंने कहा कि आप पत्रकार हैं, पत्र, पत्रिकाओं और पत्रकारों के बारे में भी लिखिए। यह उनका सुझाव था। मैं मानूंगा या नहीं, यह तो बाद की बात है, पर उनकी बात से एक बात साफ होती है, उस पर ध्यान देने की जरूरत है। क्या है वह बात? वह है - संभावनाएं। मेरे साथी ने मुझमें पत्र, पत्रिकाओं और पत्रकारों के बारे में लिख सकने लायक संभावनाएं देखीं। आपको जहां कहीं भी जगह मिलती है, सम्मान मिलता है, संवाद का अवसर प्राप्त होता है, वह सब आपके अंदर छिपी संभावनाओं के मुतल्लिक ही तो मिलता है। और एक आदमी में कितनी संभावनाएं हैं!? दो बातें हैं। एक तो कुछ संभावनाएं व्यक्ति के अंदर जन्मजात होती हैं। जन्म के साथ ही व्यक्ति बेटा-बेटी- भाई-बहन, साला-साली आदि रिश्तों की संभावनाएं लेकर धरती पर आता है। अब उसमें पढ़ने की संभावनाएं हैं, चोर करने की संभावनाएं हैं, कुश्ती लड़ने की संभावनाएं हैं, पुजारी बनने की संभावनाएं हैं, यहां तक कि माफिया बनने की भी संभावनाएं हैं। परिस्थितियों के अनुसार संभावनाओं का विकास होता है और व्यक्ति उसके मुताबिक ढ़लता है। दूसरी बात है कि जन्मजात संभावनाओं के मद्देनजर आपको आगे की संभावनाओं के द्वार खोलने होते हैं, उसे मजबूत करना होता है। यह ऐसा है कि आपको स्कूल में डाल दिया गया पढ़ने के लिए और आप क्लास छोड़कर सिनेमा देख रहे हैं। आपने पढ़कर एक बेहतर इंसान बनने की संभावनाओं के मार्ग बंद कर दिये। है न? आपको किसी ने कहीं नौकरी लगा दी, आपने वहां कड़ी मेहनत की और प्रोन्नति पाते चले गये, आपका वेतन भी बढ़ा। इसका मतलब आपने अपने लिए संभावनाओं का द्वार खोला।
अब एक और बात पर गौर फरमायें। आदमी आम तौर पर जन्म लेने के बाद से मौत की घड़ी आने तक सिर्फ दूसरों की और दूसरों के लिए चिंताएं करता है। कभी खुद के बारे में नहीं सोचता। आपने सोचा क्या? आपमें पहलवान होने की संभावनाएं थीं और आप बना दिये गये पुजारी। नतीजा क्या हो रहा है-आप मंदिर में कुश्ती फरमा रहे हैं। आपको चोर होना था, आप बना दिये गये अधिकारी। नतीजा क्या हो रहा है-दफ्तर में आप घपले दर घपले कर रहे हैं, जेल जा रहे हैं, केस लड़ रहे हैं। आपको भगवत-भजन करना था और आप बना दिये गये सिरमौर। नतीजा-देश हमले और दंगे झेल रहा है, कराह रहा है। आपको बनना था माफिया, आप बन गये थानेदार। नतीजा-यह थानेदारों और आम जनता पर छोड़ता हूं।
तो कुल मिलाकर कहना यह चाहता हूं कि एक व्यक्ति के अंदर कई तरह की संभावनाएं छिपी होती हैं। जरूरत है उसे समझने की और उसके मुताबिक खुद को ढ़ालने की। आप बाजार में संभावनाएं तलाशते हैं, दिन-रात-हफ्तों-महीनों-सालों बर्बाद करते हैं, पर आपको अपने अंदर छिपी संभावनाओं का ही पता नहीं होता। कितना खतरनाक है यह। जो अपने अंदर छिपी संभावनाओं को नहीं जानता, उसमें आत्मविश्वास कहां से आयेगा? वह अपने आप को किस लायक पायेगा? है न यह विचार करने की बात? आपके व्यक्तित्व विकास के लिए यह बहुत जरूरी है कि आप अपने अंदर छिपी संभावनाओं के हर पहलू को अच्छी तरह समझें और फिर उसके मुताबिक आचरण तय करें। व्यक्तित्व विकास पर अभी बातें जारी रहेंगी।
आदमी में लाख जौहर हों, पर यदि आदमियत न हो तो सारे जौहर बेकार हैं।

Sunday, December 28, 2008

बड़ा समझदार था

देहात का दाढ़ी वाला दरिद्र
दोशाला ओढ़े आया था शहर
लेकर आया था चाहत खटने की
सुबह शाम दोपहर
लेकिन, वह स्टेशन से ही लौट गया
बड़ा समझदार था।
दोशाला ओढ़े और भी दरिद्र थे शहर में,
जो पड़े थे उससे भी ज्यादा दरिद्रता के कहर में,
यहां दाढ़ी, नहीं गरीबी की पहचान थी,
भाई जैसे लोगों की आन बान और शान थी
सुबह से शाम तलक खटने वालों को भी
रोटी की दरकार थी,
गरीब घुट रहे थे, क्योंकि
गरीबों की सरकार थी।
इससे अच्छा तो उसका गांव था
जहां अपना कह सकने लायक
कम से कम पीपल का तो छांव था।
और वह गरीबी का गीता ज्ञान समेटे,
पुरखों का ईमान समेटे,
स्टेशन से ही लौट गया,
बड़ा समझदार था।
(नोट - यह रचना पूर्णतः मौलिक और अप्रकाशित है)
बीच सड़क पर पड़ी थी एक भिखारी की लाश और बगल में लिखा था-भूख में जहरीली रोटी भी मीठी लगती है।

Saturday, December 27, 2008

संवाद के बाद साज सज्जा

यह तो सभी जानते हैं कि हर चीज के कम से कम दो पहलू हो सकते हैं। ठीक ठंडा-गरम की भांति। मगर जैसा कि ओशो कहते हैं कि ठंडा व गरम दो चीज नहीं होते, बल्कि एक ही चीज तापमान के दो रूप हैं। थोड़ा कम जो तापमान है, वह ठंडा है। थोड़ा ज्यादा जो तापमान है, वह गरम है। सोचने का मुद्दा यह है कि तापमान के बदल जाने से वस्तु की प्रकृति कितनी बदल जाती है!
संदर्भ बदलता हूं। गमछा (अंगोछा या तौलिया) किसके घर में नहीं होता। सोचिए, आप इसका कैसा इस्तेमाल करते हैं? हाथ-मुंह पोंछते हैं, और क्या। अब इस गमछे को आप कंधे पर लेकर घूम रहे हैं। लोग आपको साधारण समझते हैं, आपका मनोमस्तिष्क भी एक साधारण मानव सा बना रहता है। इसी गमछे को जरा पगड़ी की तरह सिर पर बांध लीजिए। नकाशपोश की तरह चेहरे पर कस लीजिए। क्या होगा? लोगों के सामने आपकी पहली जो छवि प्रस्तुत होगी, वह एक बदमाश, गुंडे, लफंगे की होगी। लोगों की तो छोड़िए, आप खुद भी मिजाज में तल्खी, गरमी महसूस करने लगेंगे। तो यह देखा आपने कि एक गमछे के पहनने-बांधने का तरीका बदलने से मनुष्य की प्रकृति कितनी बदल जाती है।
मूंछों का किस्सा कहना चाहूंगा। हो सकता है आपको अपनी मूंछों का हमेशा ख्याल न रहता हो। मगर मेरे कहने पर जरा मूंछों को बढ़ाइए, उस पर ताव देना शुरू कीजिए। आप देखेंगे कि जितनी बार आप मूंछों को ताव देते हैं, उतनी बार मिजाज में गरमी का प्रवेश होता है। मूंछों की कोरों को कटवा लीजिए, छंटवा लीजिए, मिजाज बिल्कुल सामान्य बना रहेगा।
अब जरा इस पर गौर फरमाइए। एक फटा कुर्ता और मैला-कुचैला पाजामा पहना कोई व्यक्ति आपके बिस्तर पर बैठना चाहता है। आप बैठने देंगे? यदि वह बैठ भी गया तो बहुत देर तक नाक-भौं सिकोड़ते रहेंगे। हो सकता है, उसके जाने के बाद आप चादर को ड्राई-क्लीनर को भेज दें। तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि साफ-सुथरा सूट-बूट में कोई व्यक्ति आपके घर आया और आप उसे अपने बिस्तर पर बिठाने में इसलिए हिचक गये कि उसका ड्रेस कहीं पहले से बिछी चादर से गंदा न हो जाये, खराब न हो जाये। उपाय न रहा और वह उसी बिस्तर पर बैठ गया तो वह तो नाक-भौं सिकोड़ता ही रहेगा और जल्दी उठ जाने की हड़बड़ी दिखाता ही रहेगा और जव वह उठकर चला जायेगा तो आप भी लेंगे राहत की सांस।
तो कुल मिलाकर बात इतनी है कि आपका ड्रेस सेंस आपके व्यक्तित्व पर बड़ा प्रभाव डालता है। इससे आप लापरवाह नहीं हो सकते। रात में सोने के लिए पहने जाने वाले कपड़ों में किसी मेहमान के पास नहीं जा सकते। मेहमान के घर जाने वाले कपड़ों में लक-दक होकर आप दफ्तर नहीं जा सकते। दफ्तर में पहने जाने वाले कपड़ों में आप पूजा पर नहीं बैठ सकते। पूजा पर बैठने वाले कपड़ों में किसी समारोह में हिस्सा नहीं ले सकते। और यदि आप इस ड्रेंस सेंस का ख्याल किये बिना घूमते-फिरते रहे, कहीं के कपड़ों में कहीं पहुंचते रहे तो आपकी क्या छवि बनेगी, यह क्या कहने की जरूरत है? हो सकता है, लोग आपको पागल तक कहने लगें। तो व्यक्तित्व विकास के लिए संवाद पर नियंत्रण के बाद जो ख्याल करने की बात है, वह है ड्रेस सेंस। आज इतना ही, व्यक्तित्व विकास पर अभी बातें जारी रहेंगी।
आसमानी बिजली हमेशा एक ही जगह नहीं गिरती। अभी इधर गिरी है तो कभी उधर भी गिरेगी। इधर गिरी है तो कुछ बच भी गया है, उधर गिरेगी तो कुछ बचेगा भी, इसकी क्या गारंटी है?

Thursday, December 25, 2008

दिनचर्या के बाद क्या

एक मेरे सहकर्मी हैं। उनसे एक दिन मैंने मजाक में कह दिया कि आप तो आजकल बास के करीब चल रहे हैं। उन्होंने मुस्कुराकर इस बात को स्वीकार किया यानी उन्हें अच्छा लगा। कुछ दिनों बाद दफ्तरी काम के सिलसिले में मैंने उनसे थोड़ी कड़ाई की। वे मुझसे उलझ पड़े। उनका पहला जो रियक्शन था, वह यह था कि आप तो मुझे बास का चमचा कहते हैं। यह मेरे खिलाफ उनका व्यक्तिगत आरोप था। निसंदेह मैं कदापि नहीं चाह सकता था कि यह आरोप आगे बढ़े। यह आरोप आगे बढ़ता तो क्या होता? निश्चित रूप से मेरी छवि यूं ही उल-जुलूल बोलने वाले की बनती। बनती कि नहीं? मैं संभला और साथी से यह कहते हुए कि अब आइंदे आपसे मेरी व्यक्तिगत बातें नहीं हो सकतीं, मैंने पूरे विवाद को विराम दिया।
मेरे एक मित्र हैं जिन्होंने वैसे तो लव मैरिज की है, पर उन्हें सेक्स पर बातें करना अच्छा नहीं लगता। मित्रों के बीच इस पर शुरू होने वाली किसी प्रकार की बात को वे कड़ाई से रोक देते हैं। उनका मानना है कि इस मुद्दे पर सार्वजनिक रूप से बातें नहीं की जा सकतीं। उनका कहना है कि इस पर बात किसके साथ की जाय और किसके साथ नहीं की जाय, यह तय करने की जरूरत है। इतना ही नहीं, उनके साथ बातचीत में जब भी कोई (मित्र, सभी नहीं) अशुद्ध उच्चारण करता है तो वे धीरे से टोक देते हैं और शब्द का शुद्ध रूप समझा देते हैं। हर बात पर अपना विचार वे कदापि नहीं देते। पूछने पर भी विचार दें कि नहीं, इस पर विचार करते हैं। जूनियर हो या सीनियर, नमस्कार करने और हालचाल लेने में वे हमेशा आगे रहते हैं। वे कितना ठीक करते हैं, यह बहस का मुद्दा हो सकता है, पर देखा यह जा रहा है कि दिन-ब-दिन दोस्तों के सर्कल में उनका सम्मान बढ़ता जा रहा है, दफ्तर में उनकी छवि निखरती जा रही है।
तो दिनचर्या के बाद व्यक्तित्व विकास का जो सबसे अहम पहलू है, वह है - संवाद। हालांकि, व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि दो व्यक्तियों के बीच कभी संवाद स्थापित नहीं होता। जब आप किसी से बातें कर रहे होते हैं तो प्रदर्शन तो दो व्यक्तियों के बीच होने वाली बातचीत का होता है, पर दोनों व्यक्ति उस दौरान भी खुद से ही बातचीत करते होते हैं। संवाद व्यक्ति के अंदर चलता है और उसका अगला वाक्य खुद के द्वारा बोले गये पहले वाक्य को संपुष्ट करता होता है। वाक्य निर्माण की सतत प्रक्रिया व्यक्ति के अंदर चलती है। चलती है कि नहीं? तो, जिन्हें अपने व्यक्तित्व के विकास को लेकर जोर-आजमाइश करनी है, उन्हें इस सिलसिले पर नियंत्रण रखना होगा। यानी संवाद के प्रति सतर्कता रखनी होगी। आपके द्वारा बोला गया एक-एक वाक्य सोचा-समझा और परखा हुआ होना चाहिए। वर्ना आपको पता भी नहीं चलेगा और आप ही का बोला वाक्य दृष्टांत के रूप में आपके सामने पेश कर दिया जायेगा और आप हक्के-बक्के रह जायेंगे। संवाद नियंत्रित हो, इसके लिए पहली शर्त है दिनचर्या का ठीक होना। संवाद पर उसी का नियंत्रण हो सकता है, जो दिनचर्या में बंधा हो। यह मेरा मानना है कि जिसकी दिनचर्या निश्चित नहीं होगी, उसका संवाद कभी निर्धारित नहीं हो सकता। व्यक्तित्व विकास पर बातें अभी जारी रहेंगी।
यदि आपके पास हथियार के नाम पर सिर्फ एक हथौड़ा हो तो सभी समस्याएं
कील की तरह दिखने लगेंगी।

Tuesday, December 23, 2008

व्यक्तित्व विकास का पहला सबक

पिछले दिनों व्यक्तित्व विकास की बातें शुरू की थीं। मेरा मानना है कि इसकी पहली शर्त दिनचर्या से शुरू होती है। दिनचर्या वह अहम फैक्टर है, जिस एकमात्र के खंगालने, झकझोड़ने और दुरुस्त कर लेने से व्यक्ति के अंदर और बाहर बहुत कुछ ठीक हो जाता है। इस प्रक्रिया की शुरुआत भर करने से चीजें ठीक होने लगती हैं। जैसे - आपके बगल का व्यक्ति आपके बारे में अब तक क्या जानता था, इस पर ध्यान देना बिल्कुल छोड़ दीजिए। अभी कल से आपने दिनचर्या में ईश्वर की प्रार्थना शुरू कर दी, कुछ आरती गाने लगे, कुछ मंत्रोच्चारण करने लगे। निश्चित रूप से तत्काल लोगों को इसका पता चलेगा। पहला आपके बारे में यही संदेश जायेगा कि आप धार्मिक होते जा रहे हैं। इससे आपकी एक छवि बननी शुरू हो जायेगी। इसकी जितनी निरंतरता बढ़ेगी, आपके बारे में परसेप्सन उतना ही दृढ़ होता जायेगा। एक बार दिनचर्या का खयाल आ भर जाय तो सबसे पहले जो चीज आपके व्यक्तित्व में शुमार होगी, वह है अनुशासन। और एक नारा तो आपने सुना ही होगा-अनुशासन ही देश को महान बनाता है।
इसी प्रकार कोई दिन भर का अपना काम तय कर ले और उसके अनुरूप अमल करने लगे तो क्या होगा। दो बातें होंगी। एक तो व्यक्ति के अंदर खुद काम करने की फूर्ती और उत्साह का निरंतर संचार होने लगेगा, दूसरे इससे उसके बारे में सोसाइटी में, वर्कप्लेस पर यह साफ हो जायेगा कि यह व्यक्ति वर्क टू रूल है, वर्क टू टाइम है। इसका हिडेन मैसेज होता है-यह आदमी भरोसे का है।
इतना तो आप मानते ही होंगे कि आज बाजार में भरोसे की कितनी कद्र है, कितना वैल्यू है। भरोसा न हो तो आप माचिस की एक डिब्बी नहीं लेते। बिस्कुट का एक पैकेट नहीं खरीदते। फिर आपका पूरा अपीयरनेंस भरोसे के काबिल बन जाये, क्या आप नहीं चाहेंगे? और यह सिर्फ दिनचर्या दुरुस्त करने से हो सकता है। आपको कब सोना है, कब जगना है, कब स्नान करना है, कब नाश्ता करना है, कब भोजन करना है, कब दफ्तर पहुंचना है, दफ्तर में प्रायरिटी पर कौन-कौन से काम करने हैं, कब बाजार करना है, कब किस दोस्त को फोन करना है, कब किसे चिट्ठी ल5�A4�खनी है, जवाब नहीं आया तो कब उसे रिमाइंडर भेजना है.... यह सब कुछ आपके टो पर होना चाहिए। दिनचर्या बनाइए, उस पर अमल करना शुरू कीजिए, अमल नहीं कर पाये तो रात में उसका अध्ययन करने के दौरान अफसोस जताइए, कल का नया संकल्प लीजिए और आप पायेंगे चौबीस-छत्तीस घंटे में कितना कुछ बदल गया। व्यक्तित्व विकास पर बातें जारी रहेंगी। अभी इतना ही। फिलहाल इस पर थोड़ा चिंतन कीजिए कि ऐसा क्यों कहा गया था। किड्स नामक विचारक ने कहा था- द मोर आई सी ए डाग, द मोर आई हेट ए मैन (जितना मैं एक कुत्ते को देखता हूं, उतना ही आदमी से घृणा करने लगता हूं)।

Friday, December 19, 2008

हिन्द को हिन्दुस्तानी लूटता है

साथ फूलों का हवा से छूटता है
दिल का शीशा इस तरह भी टूटता है
इस तरह सिस्टम में कुछ रद्दोबदल है
हिन्द को हिन्दुस्तानी लूटता है।

आज से शुरू करें व्यक्तित्व का विकास

आम तौर पर लोग व्यक्तित्व विकास (पर्सनलिटी डेवलपमेंट) को जरूरी नहीं मानते। मगर, जिस तरह बिना सुगंध किसी फूल की कोई अहमियत नहीं होती, उसी तरह बिना व्यक्तित्व के आपकी कोई अहमियत नहीं है। मैं यह नहीं बताना चाहता कि दुनिया भर में मानवों की संख्या कितनी है, पर यह जरूर बताना चाहूंगा कि उनमें मानवों में हरेक की अलग-अलग पहचान है। क्यों है? निश्चित रूप से उनकी पहचान उनके व्यक्तित्व की वजह से ही है। आपका व्यक्तित्व कैसा हो, यह बिल्कुल आपके ऊपर ही निर्भर करता है। आपके द्वारा की जाने वाली एक-एक हरकत आपके व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक होती है। बचपन से बुढ़ापे तक, जनवरी से दिसंबर तक, सुबह से शाम तक आदमी दूसरे के ही बारे में ही सोचता है, घुलता है और खत्म हो जाता है। उसके पास अपने बारे में सोचने का वक्त ही नहीं होता। आपके व्यक्तित्व का विकास तभी संभव होगा, जब आप अपने बारे में सोचना शुरू करेंगे। सवाल है कि इसकी शुरुआत कब करें। इसे तो आप भी मानते होंगे कि अच्छे काम को शुरू करने के लिए कोई समय नहीं होता। तो क्यों नहीं, इसकी शुरूआत आज से कर दी जाय। व्यक्तित्व विकास पर और भी बातें अगले दिन। धन्यवाद।

Thursday, December 18, 2008

शुरुआत मुक्तक से

झांक मत खिड़की से आना है तो दरवाजे से आ,
आ दिखा जलवा तू अपनी और दरवाजे से जा,
इस नजर के खेल में कब तक टिकेगा कौन जाने,
ढूंढ़ ले तू रास्ता और फिर कहीं करतब दिखा।