Wednesday, August 18, 2010

साहित्याकाश का प्रचंड धूमकेतु आज अकेला




15 अगस्त 2010 की शाम करीब साढ़े पांच बजे का समय। स्थान मुजफ्फरपुर स्थित निराला निकेतन। साहित्याकाश के प्रचंड धूमकेतु जानकी वल्लभ शास्त्री का आवास। बरामदे पर पलंग पर पालथी मारे विराजमान हैं नब्बे से भी ऊपर के हो चुके सरस्वती के परम उपासक। खुशमिजाज, चेहरे पर मुस्कुराहट। करीब डेढ़ घंटे का सानिध्य और सारी आशंकाएं निर्मूल कि बीमार हैं, कि कमजोर हैं, कि आगंतुकों पर आवारा कुत्तों को दौड़ा देते हैं। बरामदे के सामने पिता का मंदिर और मंदिर के आगे सीमेंट से बनी नादों में चारा-सानी खातीं गायें।

शुरुआत होती है कैसे हैं, तबीयत कैसी है? और शुरू हो जाते हैं। देख ही रहे हैं, ठीक हूं। ऊपर टंगे एक चित्र को दिखाते हुए कहते हैं कि यह लड़का आया था मुजफ्फरपुर। उसके सामने दूसरी दीवार पर टंगे दूसरे चित्र को दिखाते कहते हैं कि यह लड़का पटना से सेवानिवृत हुआ था। जब लोग नौकरी खोजने जाते हैं और जैसा दिखते हैं, तब यह सेवानिवृत होने के वक्त दिखता था। इन दोनों के बीच आपके सामने बैठा है युवक जानकी वल्लभ शास्त्री। अकेला। एक एकड़ जमीन के प्लाट में बने आवास में अकेला। उम्र का कहीं कोई प्रभाव न वाणी पर था न नजरों पर। ध्यान भटकते इधर देखिए के साथ बातें कर रहे थे।

अकेला? एक छोटा सा सवाल और जैसे चिनगारी फूटी - हां अकेला। फिर लंबी चुप्पी.. मानो इस 'अकेला' में बड़ा रहस्य छिपा था। चेहरे पर सौम्यता बरकरार थी। बोलने लगे, मुजफ्फरपुर में बड़े-बड़े बुद्धिमान हैं। ऐसे बुद्धिमान, जिनके आगे मूर्खता शर्म से सिर छिपा लेती है। थोड़ा विराम और 'एक किरण सौ झाइयां', 'तीर तरंग', 'अवंतिका', 'मेघगीत', 'अष्टपदी' जैसी दर्जनों पुस्तकों के रचयिता मानो फ्लैशबैक में चले जाते हैं। बोलते हैं, मैंने की है ईश्वर से बातचीत। ईश्वर के सामने कोई बुद्धिमानी काम नहीं आती। ईश्वर समर्पण खोजता है। सहजता खोजता है। सहजता और समर्पण के साथ जो अपने उद्देश्यों को पूरा करने में लगा है, ईश्वर हमेशा उसके साथ होते हैं। मुझे देखिए। पांच वर्ष का था। मैगरा (यहीं के हैं मूल निवासी) में घर के आंगन में मंदिर के सामने पूजा कर रहा था। मां बोली, क्या कर रहे हो? मैंने कहा, भगवान शंकर मुझे बनारस बुला रहे हैं। अगले दिन ही मां चल बसी। उन्हें बर्दाश्त नहीं हुआ कि बेटा बनारस चला जाएगा। बनारस गया। पढ़ाई की। रायगढ़ के राजा प्रभावित थे। उन्होंने राजकवि का सम्मान दिया। एक दिन गंगा पार कर पटना से मुजफ्फरपुर आ गया। यहीं वैकेंसी आई और बन गए प्रोफेसर। पटना से सेवानिवृत होकर फिर मुजफ्फरपुर आ गया। कहते हैं, मैंने कुछ नहीं किया, ईश्वर की मर्जी थी और मैं उसके आदेशों को मानता जा रहा था।

इसी बीच नाश्ता-चाय के लिए पूछते हैं। मना करने पर बोलते हैं कि क्या नाराजगी में? नहीं बाबा के जवाब पर चेहरे पर संतुष्टि खिल जाती है। फिर बोलते हैं, पिताजी आए थे। रात में दूध दिया गया खाने को। पूछा कैसा दूध है? खरीदकर मंगाया गया है बताने पर उन्होंने कहा कि मैं तो खरीदकर दूध खाने का पक्षधर नहीं हूं। बस क्या था, अगले रोज मैंने दरवाजे पर गाय बांध दी। आज उसी एक गाय की नस्लें चल रही हैं। निराला निकेतन में जो गायें मरतीं हैं, उन्हें यहीं समाधिस्थ कर दिया जाता है। सब अकेले कर रहा हूं। ईश्वर की मर्जी। कहते हैं, मैंने जीवन भर सरस्वती की साधना की है। इसके अलावा दूसरा कोई काम ही नहीं किया। पैर नाकाम हो गए हैं, पर लेखन बंद नहीं हुआ। आज भी बेला पत्रिका निकालता हूं। अभी एक पुस्तक आई है - राधा। सात खंडों के इस एकाकार महाकाव्य का मूल्य एक हजार रुपये है। लिखने से कुछ आमद होती है, समय भी गुजरता है। मोहल्ले भर के आवारा कुत्ते यहां आते हैं। उन्हें दूध रोटी देता हूं। कहां से चलता है सब? ईश्वर की सत्ता है और मेरा समर्पण।

डेढ़ घंटे के वार्ताक्रम में साहित्य के जीवित वयोवृद्ध हस्ताक्षर की जो चिंता सामने आई, वह यह थी कि धर्मपत्नी छाया देवी पिछले कई दिनों से बीमार चल रही हैं। इलाज होता है, पर बीमार रह रही हैं। चेहरे पर एक पल के लिए साफ झलका वह अनुकूलन कि अकेला शख्स.., पर थोड़ी देर बाद ही छाया था संतोष कि ईश्वर की सत्ता.., फिर समर्पण भी कि जो वह चाहता है अच्छा ही चाहता है.., सांसारिक अनुभव भी कि भला या बुरा कुछ भी आपके साथ हो रहा है, उस पर आपकी क्या मर्जी.. और आखिर में एक सवाल भी कि कुछ है मर्जी..? 15 अगस्त की शाम इस मुलाकात में कवि की आखिरी वाणी थी- जब इच्छा हो नि:संकोच आइएगा।

अरुण शर्मा एडवोकेट का एक एसएमएस - दुनिया में देखने के चार नजरिए। पीछे झांकने से अनुभव दिखता है। आगे झांकने से आशा। अगल-बगल झांकने से आप वास्तविकता देख सकते हैं, जबकि अपने अंदर झांकने से देख सकते हैं आत्मविश्वास।