Monday, July 18, 2011

आइए लेते हैं खबरों की खबर

बहुत दिन हुए। ब्लाग पर कुछ लिखा नहीं। होता है। हर आदमी की जिंदगी में ऐसा होता है। मेरे साथ भी हुआ। चाहकर भी कुछ नहीं लिख पाया। अब जब कुछ लिखने का मन बनाया है तो लगता है कि खबरों की बाबत ही कुछ लिखा जाए। साथियों का भी जोर था। कह रहे थे कि पत्रकारिता में इतने दिन गुजार दिए, कुछ अगली पीढ़ी के लिए भी लिखो। कम से कम उतना तो लिख ही दो, जितना अब तक सीखे हो।

दोस्तों ने भले मजाक किया, पर बात मुझे जंची। सही तो कहा था उन्होंने। मुझे भी लगा कि लिखना चाहिए। आखिर रफ्ता-रफ्ता पत्रकारिता में बिना किसी चाहत, बिना किसी इबादत, बिना किसी शरारत के घुसा एक शख्स कैसे मुकाम तय करता है, उसे हासिल करता है और किस कदर अखबारों की जरूरत बन जाता है, यह है शेयर करने के लायक।

सवाल उठता है शुरू कहां से करूं? सच पूछिए तो पत्रकारिता के बारे में जब कभी लिखने का मन बनाया, दिमाग में आत्मकथा लिखने जैसा परिवेश ही बना और बना उस राजनीति को खींचने का खाका, जो अखबारों के दफ्तरों में जड़ जमा चुकी है। नीचे से ऊपर तक, कर्मचारी से मालिकानों तक। सच, इन सभी का मैं मूक गवाह ही तो हूं। पर, इस पर बात कभी और, किसी और श्रृंखला में। अभी तो सिर्फ होगी ज्ञान और ध्यान की बातें, जिससे न्यूकमर कुछ सीख सकें, साथी कुछ मचल सकें और गुरुजन महसूस कर सकें कि बच्चे ने ठीक सीखा।

खबरों की बात खबर से ही शुरू करते हैं। बड़ी-बड़ी परिभाषाएं, लच्छेदार डायलाग, क्या अमिताभ बोलेंगे, उनसे भी जुदा स्टायल में मैंने देखा है संपादकों, वरिष्ठ पत्रकारों को अपने कनिष्ठों को यह समझाते कि खबर क्या है, किसे कहते हैं खबर, ये कोई खबर है, फालतू, बकवास, कूड़ा। जब-जब सुना, सच कहता हूं, कन्फ्यूज ही हुआ। निश्चित रूप से खबर क्या है, परिभाषा के रूप में हम चाहें जो गढ़ लें, जो समझ लें, जो समझा लें, जो छाप लें, पर सच तो यह है कि अखबारों के बदलते, संपादकों के बदलते खबरों की परिभाषा भी बदल जाती है, पैमाना भी बदल जाता है।

शुरुआत में बताया गया कुत्ता काट ले तो खबर नहीं, पर अब कुत्तों के काटने की खबरें बड़े-बड़े अखबार में चार-चार कालम में छपा देख रहा हूं। उस पर से तुर्रा यह कि खबर होती है कुत्तों से बचने के उपायों के साथ, उसके काटने के बाद तीमारगी के वजूहातों के साथ। तो साहब, इस फेरे में न रहें कि कुत्ते काट लें तो खबर नहीं है। वह भी खबर है। देखने की बात यह है कि आप उसे प्रस्तुत कैसे करते हैं। कुत्ते के काटने से कितने पाठकों को जोड़ पाते हैं? इस बहाने नगर प्रशासन की किस लापरवाही का पर्दाफाश कर पाते हैं। यदि यह सब कर लिया तो कुत्ते का काटना भी खबर है और बड़ी खबर है।

मुझे लगता है, शुरुआत ठीक-ठाक हो गई है। सिलसिला शुरू हुआ है तो रफ्ता-रफ्ता यह आगे भी अब बढ़ेगा। बस, इंतजार कीजिए शृंखला की अगली पोस्ट का। झोली में प्रसादों का अंबार है। वादा है, वेराइटी मिलेगी। आप जितना ध्यान देंगे, ज्ञान उतना ही बटोरेंगे, इसकी गारंटी है।