Tuesday, October 20, 2009

लत, संगत, पंगत

चाहने वालों का आग्रह था, थोड़ा जल्दी-जल्दी लिखूं, कम समय अंतराल पर लिखूं। पर, देख लीजिए, इच्छा के बाद भी विलंब हुआ। क्यों हुआ, इस पर विचार करने बैठा तो जो तीन चीजें छनकर आईं, उससे भविष्य को संवारने का ही सूत्र मिलता है। ये तीन चीजें हैं लत, संगत और पंगत। जी हां, इन तीन चीजों से भविष्य और भविष्य की कार्ययोजना बुरी तरह प्रभावित होती हैं, कमोबेश इसे सभी जानते हैं, पर कितनी बुरी तरह प्रभावित होती हैं, आइए मैं भी बताने की कोशिश करता हूं।

सबसे पहले लत। बुरी लतें भविष्य खराब कर देती हैं, यह तो सभी मानते हैं, पर कभी-कभी अच्छी लतें भी भविष्य चौपट कर सकती हैं, यह मैं कहना चाहता हूं। मान लेते हैं, एक व्यक्ति पढ़ाकू है। खूब पढ़ता है। इस पढ़ने की वजह से उसके पास ज्ञान का भंडार है। अब देखिए, इस भंडार से वह किसी बेहतर औऱ कमाऊ जगह पर पहुंच गया, पर लत वहां भी उसका पीछा नहीं छोड़ रही। अब वह दफ्तर में किताबें लिए पहुंच रहा है। पूरा दफ्तर परेशान। वह मानने को तैयार नहीं। बास का आखिरी अल्टीमेटम और उसमें नाराजगी, आक्रोश का भंडार। इसके पहले कि बास कोई फैसला ले, उसने खुद फैसला ले लिया। तो मेरा मानना है कि अपनी आदतों पर नजर रखिए और उसके किसी हिस्से में किसी चीज की लत का पता चले तो तत्काल उसे निकालिए, भविष्य संवरेगा।

दूसरी बात संगत। यानी संगति। यह कौन नहीं जानता - संगत से गुन होत हैं संगत से गुन जात...। एक गांव के एक पंडित जी का किस्सा सुनाऊं। पंडित जी पूजा-पाठ, शादी-विवाह सब कराते हैं। बड़ा नाम था, बड़ी इज्जत थी। गांव में ही एक अपराधी भी था। वे उसके यहां भी पूजा-पाठ कराते थे। वहां से उन्हें चढ़ावा कुछ ज्यादा मिलने लगा, नतीजा उनका ज्यादातर समय उसी अपराधी के दरवाजे पर गुजरने लगा। अब अपराधी जेल गया तो वे यदा-कदा जेल गेट पर भी दिखने लगे। पांच-सात वर्षों के बाद का आलम यह है कि अगल-बगल के गांवों के लोग उन्हें पंडित कम अपराधी का माऊथपीस ज्यादा मानने लगे हैं। पंडित जी परेशान हैं। पुलिस वाले भी यदा-कदा उन्हें खोजते नजर आते हैं और वे पुलिस से बचते। परेशान पंडित जी एक दिन मुझसे मुक्ति का मार्ग पूछ रहे थे, मैं सिर्फ इतना ही कह पाया - सब संगत का असर है पंडित जी और पंडित जी लाजवाब।

तीसरी बात पंगत। पंगत का मतलब होता है भोजन, खाना, ब्रेकफास्ट, डिनर, लंच। फौज के कंटीनों में कहीं पढ़ा था- इट फार हेल्थ नाट फार टेस्ट। जब पढ़ा था, तब बहुत देर तक मजाक उड़ाता रहा था। मगर, कितना सही था वह वाक्य! मेरे यहां एक देहाती कहावत कहते हैं - जैसा अन्न खाओगे, वैसा ही बनोगे। इसे ऐसे बताऊं। पंगत दो कारणों से लगानी पड़ती है। पहला, जीवन जीने के लिए। भूख और उपवास के बाद बुद्ध ने भी स्वीकार किया कि यह प्रकृति के विरुद्ध है। आपको देह नष्ट करने का अधिकार नहीं है। सो, भोजन जरूरी है। दूसरा, हम कभी भी और कुछ भी नहीं खा सकते। स्वास्थ्य बिगड़ेगा तो निश्चित रूप से भविष्य के कार्यक्रम भी बिगड़ेंगे। फिलहाल इतना ही। व्यक्तित्व विकास को सतर्क व्यक्ति के लिए भविष्य संवारने वाले टिप्स खोजती चर्चाओं का सिलसिला अभी जारी रहेगा।

कुछ वादे ऐसे होते हैं, जो कभी तोड़े नहीं जाते। कुछ यादें ऐसी होती हैं, जो कभी लिखी नहीं जातीं। यदि आप सच्चे रिश्ते के जादू को महसूस कर सकें तो जान जाएंगे कि कुछ शब्द ऐसे भी होते हैं, जो कभी बोले नहीं जाते।

Thursday, October 1, 2009

फैलता-सिकुड़ता भविष्य

वक्त के दायरे में चाहे भविष्य ही क्यों न हो, जब फंसता है तो फैलता भी है और सिकुड़ता भी है। कैसे? दिल्ली जाने के लिए किसी ने बस पकड़ी, किसी ने ट्रेन तो कोई हवाई जहाज पर ही उड़ चला। तीन व्यक्ति का एक भविष्य दिल्ली पहुंचना वक्त के दायरे में कैसे फैला और कैसे सिकुड़ा, अब क्या यह समझाने की बात है? नहीं न?

मगर, यह समझने की बात है कि यदि दिल्ली जाना ही तीनों व्यक्तियों का लक्ष्य था तो कोई जरूरी नहीं कि पहले पहुंचने वाला व्यक्ति ही सब कुछ हासिल कर ले और पीछे पहुंचने वाला व्यक्ति कुछ भी हासिल न कर पाए। इसके बिल्कुल उलट भी हो सकता है।

कैसे? हवाई जहाज से उड़ने वाले के लिए अपना सब कुछ तलाशने का मौका सिर्फ दिल्ली में मिलने वाला है। जहां से उड़ा, वहां के बाद संभावनाओं का विकल्प उसके लिए सिर्फ दिल्ली में खुलता है। बीच के सारे स्टापेज से वह चूक जाता है। बस-ट्रेन से सफर करने वालों के साथ ऐसा नहीं है। रास्ते के सारे एवेन्यू के मजे लेने के उसके पास जो मौके हैं, वह उड़ान भरने वालों के पास कहां?

इन बातों का अर्थ क्या हुआ? अर्थ वही कछुआ और खरगोश वाला है। स्लो व स्टीडी विन्स द रेस वाला है। हवाई जहाज से उड़कर जल्दी पहुंच गए, मगर लगे सुस्ताने, लगे आराम फरमाने तो चूक जाएंगे।जल्दी पहुंचकर भी पीछे छूट जाएंगे। छूट जाएंगे कि नहीं?

आइए अब उन बातों पर चर्चा करें, जो बातों-बातों में सामने आयी है। क्या? कि सवाल माध्यम का नहीं, लक्ष्य का है। कि सवाल जल्दबाजी का नहीं, टाइम मैनेजमेंट का है। कि सवाल गति का नहीं, उसकी निरंतरता का है। कि सवाल बौखलाहट व बेचैनी का नहीं, धैर्य व गंभीरता का है।

यानी, माध्यम कोई भी हो आपका लक्ष्य हमेशा आपके सामने रहना चाहिए और आपका काम उसी दिशा में होना चाहिए। किसी काम को पूरा करने की न तो जल्दबाजी दिखाएं, न छोटे-छोटे कारणों से गति में शिथिलता लाएं। आपको इसके लिए बस समय प्रबंधन की कला सीखनी होगी। टाइम का नहीं, टाइम मैनेजमेंट का ख्याल करना होगा। बौखलाहट और बेचैनी की तो कोई बात नहीं, जो जल्दबाजी नहीं दिखाएगा, जो टाइम मैनेजमेंट के फैक्टर पर अमल करेगा, उसमें अपने आप धीरता और गंभीरता आ ही जाती है।

और इतना सब कुछ आपने किया तो निश्चित मानिए, आपका भविष्य संवरा। फिलहाल इतना ही। व्यक्तित्व विकास को सतर्क व्यक्ति के लिए भविष्य संवारने वाले टिप्स खोजती चर्चाओं का सिलसिला अभी जारी रहेगा।


इलाहाबाद से सतीश चंद्र श्रीवास्तव का एसएमएस - जब बाढ़ आती है तो चीटियों को मछलियां खा जाती हैं। पानी उतरने पर मछलियों को चींटियां खाने लगती है। सबक - अवसर सभी के सामने आते हैं।