tag:blogger.com,1999:blog-17812786909634755232024-03-05T19:42:12.004+05:30विचारपढ़ें, समझें, तब स्वीकारेंKaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.comBlogger117125tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-23947610078968707942022-07-20T13:25:00.000+05:302022-07-22T03:27:46.366+05:30हां, अजीब <p>देश में, प्रदेश में, शेष बचे विदेश में...</p><p>जहां देखिए वहीं...</p><p>अजीब समां बंधा है...</p><p>हां, अजीब.</p><p><br /></p><p>जानी दुश्मन मित्र बना बैठा है...</p><p>मित्र जानी दुश्मन...</p><p>लोकतंत्र का सरमायेदार भक्त...</p><p>भक्त लोकतंत्र का सरमायेदार...</p><p>अजीब समां बंधा है...</p><p>हां, अजीब.</p><p><br /></p><p>अब महंगाई चोट नहीं पहुंचाती... </p><p>आतंक दिल नहीं दहलाता... </p><p>नक्सली वारदात गुस्से में नहीं डालती...</p><p>अजीब समां बंधा है...</p><p>हां, अजीब.</p><p><br /></p><p>जो कभी नहीं हुआ... </p><p>इधर कुछ सालों में हो गया...</p><p>उपलब्धियां गिनाते जुबां थकती है...</p><p>रुकती नहीं...</p><p>अजीब समां बंधा है...</p><p>हां, अजीब.</p><p><br /></p><p>हिंदू पक्के हिंदू हो गए...</p><p>मुसलमान पूरे मुसलमां... </p><p>दलितों की पहचान पक गई... </p><p>महिलाओं की जां... </p><p>अजीब समां बंधा है...</p><p>हां, अजीब.</p><p>......</p><p>निहितार्थ...</p><p>साथ फूलों का हवा से छूटता है...</p><p>दिल का शीशा इस तरह भी टूटता है...</p><p>इस तरह सिस्टम में कुछ रद्दोबदल है...</p><p>हिंद को हिंदुस्तानी लूटता है...!</p><p>......</p>Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-57319758835796859882021-11-29T23:54:00.001+05:302021-12-01T18:13:35.956+05:30 जी हां, कुछ साफ होगा<p>वह देखता है... </p><p>तो...! </p><p>आंखें देखिए...!</p><p>सुनता है...! </p><p>तो...!</p><p>अदा परखिए...!</p><p>बोलता है...! </p><p>तो...! </p><p>चेहरा देखिए...! </p><p>जी हां...!</p><p>कुछ साफ होगा...!</p><p>सतही खिलावट की पैरोकारी...</p><p>सोची समझी अदाकारी...!</p><p>मनोहारी...!</p><p>निरंकारी...!</p><p>महसूस कीजिए...!</p><p>या...!</p><p>करना सीखिए...! </p><p>जी हां...!</p><p>कुछ साफ होगा...!</p><p>काल की कोठरी में बैठी बला...! </p><p>भला कब तक...! </p><p>काल के हवाले रह सकती है...!</p><p>आखिरकार...!</p><p>कभी तो होगी...! </p><p>उसके हवाले...!</p><p>माफ कीजिएगा...!</p><p>खुद की संभाल के हवाले...!</p><p>माफ कीजिएगा...!</p><p>आपके हवाले...! </p><p>माफी...! </p><p>अंदाज होगा...! </p><p>देखिएगा तो...! </p><p>जी हां...!</p><p>कुछ साफ होगा...!</p><p>तो सब साफ होगा...!</p><p>तब तक सब साफ होगा...!</p><p>आमीन...!</p>Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-77830071842025724502018-08-08T15:53:00.000+05:302020-10-21T11:28:24.078+05:30आज भगत जी का चेहरा देखा न गया<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
मुजफ्फरपुर में घर से दफ्तर के बीच है संयुक्त कृषि निदेशक का कार्यालय। इसी के सामने भगत जी की पान की दुकान है। खुशमिजाज भगत जी... बात-बात मे बच्चों सी किलकारियां मारने वाले भगत जी। दफ्तर आते-जाते उनके हाथों का एक पान खाने का रुटीन रहा है, सो, भगत जी से न जाने कब एक आत्मीय रिश्ता सा बन गया, पता भी नहीं चला।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<b>पता चला आज...!</b></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कुछ दिनों से बंद थी उनकी दुकान, सो पान खाने का सिलसिला भी थम गया था। अभी दो दिनों पहले दफ्तर से लौट रहा था तो दुकान खुली थी और भगत जी काउंटर के पीछे खड़े होकर पान बेच रहे थे।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
फिर क्या था, मेरी मोटरसाइकिल उनकी दुकान की ओर मुड़ी और रुक गई।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
मोटरसाइकिल से ही हलकारा लगाया, पान खिलाइए भगत जी।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
उन्होंने मेरी ओर देखा, मगर यह क्या, सदा हंसकर स्वागत करने वाला भाव उनके चेहरे से गायब था। निगाहों से उनके चेहरे का मुआयना किया। सिर, दाढ़ी मूंड़े हुए थे।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
पूछा - क्या हुुआ?</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
बोले - परिवार में एक खटका हुआ था। (खटका मतलब परिवार में किसी की मौत)</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
वे पान बनाने में मशगूल हो गए। लेकिन, पान खाने के बाद चूना लेने और उसे जीभ पर लगाने से पहले मैंने पूछ ही लिया। कौन थे?</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<b>उनका सपाट एक शब्द जो जुबान से निकला, वह था - पत्नी।</b></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
क्या...! आपकी पत्नी गुजर गईं?</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
बोले - हां।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
और भगत जी के चेहरे पर जो तकलीफ उभरी, उसका बयां नहीं कर सकता।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
फिर बोले - कई बीमारियां थीं, इलाज करा रहा था, नहीं बची।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कहां इलाज करा रहे थे?</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
यहीं, मुजफ्फरपुर में ही...।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
मेरे मुंह से स्वतः निकला - बड़ा कष्ट हो गया भगत जी...!</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
और वे बोलते चले गए - हां, बड़ा कष्ट हो गया..., बड़ा कष्ट हो गया...।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<b>भगत जी बोल रहे थे और उनका चेहरा गम के गहरे समंदर में डूबता चला जा रहा था। उस समंदर में गोते लगा रहे थे उनके बच्चे की लावारिस परवरिश और खुद उनका अधूरा पड़ा आगे का पूरा जीवन...।</b></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
एक तस्वीर दिमाग में उभरी।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
पत्नियों पर हम न जाने क्या क्या जोक बनाते हैं, मुहावरों-जुबानों में हम उन पर कितना तंज कसते हैं, उन्हें नीचा दिखाने का कोई मौका कभी नहीं छोड़ते हैं...</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
भगत जी का चेहरा कह रहा था, लोग गलत करते हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
और दो दिनों बाद आज फिर उनकी दुकान से गुजरा तो पान खाने रुक गया।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
भगत जी ने अपना जीवन सामान्य कर लिया है। पेट की मजबूरी, गम गलत कर देती है, मगर उसके निशान नहीं मिटा सकती।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
भगत जी के चेहरे से बच्चों सी किलकारी वाला स्वागत भाव नहीं मिल रहा था, वहां गम का समंदर आज भी ठाठें मार रहा था।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आज भगत जी का चेहरा मुझसे देखा न गया।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कब उन्होंने पान बनाया, कब मैंने उसे मुंह में रखा और कब मैं मोटरसाइकिल चालू कर वहां से आगे बढ़ चला, मुझे भी पता नहीं चला। भगत जी से कोई बात करना सूझ ही नहीं रहा था...!</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<b>घर पहुंच चुका हूं और दिमाग में दो बातें खलबली मचा रही हैं।</b></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<b>एक कि आज मैंने भगत जी से आत्मीय होकर कोई बात क्यों नहीं की? यह आत्मीयता का परिचायक है या किसी को जीवन की अंधी दौड़ में अकेला छोड़ देने की आम मानवीय प्रवृति?</b></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<b>दूसरी बात यह कि क्या पत्नियों के बगैर जीवन इतना एकाकी हो जाता है, इतना वीरान हो जाता है?</b></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<b>क्या इतना...?</b></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
मुझे याद आता है वह दिन, जब मेरी मां की मौत हुई थी। उन्हें कैंसर था। आपरेशन के बाद लंबा इलाज चला, मगर वे नहीं बचीं। मेरी गोद में ही उनका सिर था, जब मैं उन्हें गंगाजल पिला रहा था और जब उन्होंने अंतिम सांसें लीं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
पिताजी दरवाजे पर थे। भीतर से जब रुलाई की आवाज सुनी तो वे समझ गए। सन्निपात की अवस्था में वे उस कमरे में आए, मां को निहारा, उनके चेहरे पर हाथ फिराए और फिर बाहर दरवाजे पर आकर बैठ गए। चुपचाप।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
उनकी आंखों से अविरल अश्रुधाराएं बह रही थीं। ऐसी कि मानो समंदर फूट पड़ा था, बिना गर्जन, बिना तर्जन....। मानो वे धाराएं अब रुकने वाली ही नहीं थीं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
अब हमारे लिए पिताजी की अश्रुधाराएं मां की मौत पर भारी थीें। इतनी कि मैं गांव के उनके मित्र शृंखला के लोगों को उन्हें सांत्वना देकर किसी तरह उन्हें सामान्य करने की मनुहार करने लगा।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
मुझे याद आते हैं वे दिन...</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
जिस तरह आज भगत जी का चेहरा मुझसे देखा न गया, ठीक उसी तरह मुझे तब अपने पिताजी का चेहरा नहीं देखा जा पा रहा था...!</div>
</div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-84484784790355148312016-05-02T12:50:00.000+05:302020-10-21T11:30:34.997+05:30एक वह दिन था और एक यह<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div>
<b>गंगा वही थीं, लेकिन घाट बदला हुआ था। तब
दशाश्वमेध घाट पर लगा था मंच और आज नजारा था अस्सी घाट पर। तब काशीवासियों
के सामने थे सांसद नरेंद्र मोदी और आज थे प्रधानमंत्री मोदी। तब कुछ करने
का भाव जो भीतर था, वह शब्दों में झलका था। आज वही अभिव्यक्ति ठोस आकार
लेकर सामने थी। अनुग्र्रह भाव तब भी था, अब भी था। </b><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhb_6lNrURw6_s4MyySAL7edaaEDCkn7GBAQ97R50e_snmU77vvFPPJBXrl8xRGlzWxE54BjHfGvLqK2MLHlXW9WglLp3ldv12mOzrYsJUUNBzkmgYAoXpoELo0uk1a13Yk_HYwq9VWa_Gs/s1600/modi.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="256" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhb_6lNrURw6_s4MyySAL7edaaEDCkn7GBAQ97R50e_snmU77vvFPPJBXrl8xRGlzWxE54BjHfGvLqK2MLHlXW9WglLp3ldv12mOzrYsJUUNBzkmgYAoXpoELo0uk1a13Yk_HYwq9VWa_Gs/s320/modi.jpg" width="320" /></a></b></div>
<b>
</b><br />
अतीत के पन्ने उलटिए
तो याद आ जाएगा 17 मई, 2014 की वह शाम, जब मोदी चुनाव जीतने और पार्टी को
भारी बहुमत से जिताने के बाद प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने से पहले यहां आए
थे। उन्होंने बाबा विश्वनाथ के दरबार में माथा टेका था और दशाश्वमेध घाट पर
गंगा आरती में शामिल हुए थे। उस दिन उन्होंने अपने जो उद्गार व्यक्त किए
थे, उनमें संकल्पों का पुट था, कुछ करने का इरादा था। हम देश के लिए
जिएंगे, हम स्थिति बदल सकते हैं, दुनिया बदल सकते हैं, उम्मीदवारी का फार्म
भरते यहां का बेटा हो गया, इस धरती को नमन करता हूं, मां गंगा को नमन करता
हूं, यहां के मतदाताओं को नमन करता हूं...। 12 दिसंबर 2015 को जापान के
प्रधानमंत्री शिंजो आबे के साथ भी आए थे मोदी। तब कार्यक्रम सीमित था और
दशाश्वमेध घाट से केवल आरती में शामिल हो मुग्ध भाव से गंगा को निहार कर
चले गए थे।<br />
रविवार को घाट बदला हुआ था, नजारा भी। चेहरे पर कुछ करने के
बाद का विजेता भाव साफ-साफ झलक रहा था। बोल अनुग्र्रह भाव से भरे थे और
तेवर गरीबों के लिए कुछ भी कर गुजरने का संदेश दे रहा था। हर-हर महादेव का
नारा, काशी की पवित्र धरती, भोले बाबा और मां गंगा के आभार के साथ राजनीति
पर जो प्रहार शुरू हुआ, वह रुकने का नाम नहीं ले रहा था। बोले - हमेशा
योजनाएं वहीं बनीं, जिनसे वोट बैक मजबूत किया गया। एक साल में रसोई गैस के
25 कूपन बांटकर सांसद यह कहते बधाई लूटते थे कि हमने यह किया वह किया। हमने
जो भी योजनाएं बनाईं, वे गरीब को ताकत देती है कि वे खुद अपनी गरीबी को
परास्त करके निकलें। प्रधानमंत्री जनधन योजना व मुद्रा योजना के फायदे
गिनाए। <br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhw7dgiZlemSjcIpLXUAYsyZj5ZhEalEWm_Bj94YiOWV9_V3s2TG4FktkgNcC0B1dVG3KE_-JT9GDcDcpLTio0VEi1Xp9-np_BMYt9tiP0Egoi2jj7rvoE7SclGDP5zYs0dxs5__V1zjnjf/s1600/modi+1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhw7dgiZlemSjcIpLXUAYsyZj5ZhEalEWm_Bj94YiOWV9_V3s2TG4FktkgNcC0B1dVG3KE_-JT9GDcDcpLTio0VEi1Xp9-np_BMYt9tiP0Egoi2jj7rvoE7SclGDP5zYs0dxs5__V1zjnjf/s320/modi+1.jpg" width="257" /></a></div>
<br />
भीड़ भले शांत थी। गर्मी से हाथ में लिए कागज आदि को झलते मोदी
को बड़े गौर से सुन रही थी, गुन रही थी। बलिया का जिक्र कि गरीबों को रसोई
गैस दिया पर लोगों ने जोरदार तालियां बजाईं। आपने हमें जिताया तो हमसे
ज्यादा से ज्यादा फायदा लें पर भीड़ ने फिर चहेते नेता का जोरदार स्वागत
किया। <br />
छोटी-छोटी बातों के जरिए मोदी ने रविवार को गरीबों के मनोबल को
उठाने का ही सिर्फ प्रयास किया। गंगा पुत्रों के बीच केवल ई-बोट नहीं
बांटी, ई-रिक्शे नहीं दिए, बल्कि एक अभिभावक की तरह उसके फायदे भी गिना गए।
इशारों-इशारों में बता गए कि पांच सौ रुपये बचेंगे तो क्या करना है। बता
गए कि बच्चों पर खर्च करना है। योजनाओं के नाम को लेकर पिछली सरकार पर
प्रहार के साथ यह संदेश भी दे गए कि मोदी अलग मिट्टी का बना हुआ है। </div>
<div>
(2 मई 2016 को वाराणसी जागरण में प्रकाशित)</div>
</div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-8746354811394965422016-05-01T01:09:00.000+05:302020-10-21T11:31:07.045+05:30सुने बजरंग बली, सुनाए गुलाम अली <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
पहली पेशकश ही थी - मैंने लाखों के बोल सहे, सितमगर तेरे लिए...<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEicWeHuBtL2aRPHf5EV9wx7-1l3drXBTPPNTnILoInYzqjJsgFu5BmCiHoa0irfAuwpNQqivFucsvzDglMLDhFIEKfTRpqDYhEVl3vLAiOVfrV7Nrix6mjPYcGpgIbK80Xu5QEjqqbbnQE8/s1600/IMG-20160427-WA0000.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEicWeHuBtL2aRPHf5EV9wx7-1l3drXBTPPNTnILoInYzqjJsgFu5BmCiHoa0irfAuwpNQqivFucsvzDglMLDhFIEKfTRpqDYhEVl3vLAiOVfrV7Nrix6mjPYcGpgIbK80Xu5QEjqqbbnQE8/s320/IMG-20160427-WA0000.jpeg" width="320" /></a></div>
<br />
संकट मोचन का दरबार और संगीत का महाकुंभ। मंगलवार को छह दिवसीय संकट मोचन संगीत समारोह की पहली निशा के सिरमौर थे गजल सम्राट पाकिस्तानी फनकार गुलाम अली। उनकी पहली पेशकश ही यह बता रही थी कि इस दरबार में हाजिरी लगाने के लिए उन्होंने कितनी बाधाएं पार कीं। राग विहाग में दादरा पेश करते जब उनके लब से 'मैंने लाखों के बोल सहे, सितमगर तेरे लिए...' का स्वर फूटा, मंच के सामने बैठा हर श्रोता करतल ध्वनि कर उठा। इसी के साथ संकट मोचन मंदिर का पूरा परिसर जय सियाराम व हर हर महादेव के जयकारे से गूंज उठा। जयकारे पर गजल सम्राट की मुस्कान गहरी हो गई और उनका सुर लय के गहरे सागर में डूब गया।<br />
मंच पर आते ही श्रोताओं में शुरू कुछ गहमागहमी को गुलाम अली ने अपनी गुजारिश से शांत करा दिया। गुजारिश - मैं खुद को सबसे छोटा समझता हूं, मेरी बातें गौर से सुनें। अभी लोग संभलते कि फनकार ने एक शेर पेश कर दिया - वो उन्हें याद करें, जिसने भुलाया हो कभी, हमने न भुलाया, न कभी याद किया। अभी तालियों की गूंज थमी भी नहीं कि उनका दूसरा नजराना पेश हो चुका था - रोज कहता हूं भूल जाऊं उसे, रोज ये बात भूल जाता हूं। लोग वाह-वाह कर उठे और राग विहाग में शुरू हो गया उनका दादरा।<br />
रागिनी पहाड़ी में दूसरी प्रस्तुति से पहले उनके शेर, अंदाज अपने देखते हैं आईने में वो, और ये भी देखते हैं कोई देखता नहीं... को भी श्रोताओं की ओर से खूब समर्थन मिला। तालियों की गूंज के बीच पेशकश के बोल सामने थे - दिल में इक लहर सी उठी है कि... कुछ तो नाजुक मिजाज हैं हम भी, और ये शौक नया है भी... सो गए लोग इस हवेली के, एक खिड़की मगर खुली है भी...।<br />
क्रीम कलर की शेरवानी और चेहरे पर गंभीर मुस्कान के साथ उन्होंने घोषणा की कि मेरी तीसरी पेशकश वह गजल है, जो खुद मुझे पसंद है और जिसे मैंने आशा भोंसले के साथ भी गाया है। बोल थे - गए दिनों का सुराग लेकर, किधर से आया, किधर गया वो...। और इसी के साथ संपन्न हो गया उनका कार्यक्रम, मगर लोग मानने को तैयार ही नहीं थे। आवाज आ रही थी, तेरे शहर में... वाला सुनाकर जाइए, तेरे शहर में वाला सुनाकर जाइए...।<br />
(२७ अप्रैल २०१६ को वाराणसी जागरण के पहले पेज पर प्रकाशित)</div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-81027169649191361002015-12-12T12:44:00.000+05:302015-12-13T13:17:57.436+05:30काशी में आपका स्वागत है मोदी-शिंजो<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div>
धर्म-अध्यात्म,
कला-संस्कृति की परंपराप्रिय पौराणिक नगरी काशी में आपका हार्दिक स्वागत है
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे। निश्चित
रूप से आप दोनों का आ<br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjieJlb1PCkp9Bj3OidQqKBnzvFwUGlzcLgQCxsavyCH72r3KBgwtvVyviUMy9QIefLon-n4ui-ZBswOjYuCDnEfPWoKJoqICRHczZl2HUlpqTkouxWIJvcuojg6lPHf4W_6KyxZI-_cMd-/s1600/modi-shinzo.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="213" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjieJlb1PCkp9Bj3OidQqKBnzvFwUGlzcLgQCxsavyCH72r3KBgwtvVyviUMy9QIefLon-n4ui-ZBswOjYuCDnEfPWoKJoqICRHczZl2HUlpqTkouxWIJvcuojg6lPHf4W_6KyxZI-_cMd-/s320/modi-shinzo.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मोदी-शिंजो के स्वागत में लगाए गए होर्डिंग्स। </td></tr>
</tbody></table>
गमन संबंधों के स्वर्णिम इतिहास को सुनहरा भविष्य
देगा। जहां मानक शिक्षा का आसमान होगा, आधारभूत संरचनाओं के विकास की पहचान
होगी और होगा बेरोजगारी से जूझ रहे युवाओं के लिए रोजगार का नया रास्ता।<br />
आपके
आगमन की सूचना से ही कितनी बदल गई काशी। चमचमाती गलियां, रोशन रास्ते,
चमकते-दमकते घाट-चौराहे, यहां का कण-कण सब आपके स्वागत को पूरी तरह तैयार
हो चुके हैं। अभी 16 नवंबर की बात है। काशी और क्योटो के बीच कूड़ा प्रबंधन
को लेकर होने वाला एमओयू इसलिए टल गया था कि तैयारी पूरी नहीं थी। इसके
टलने के साथ ही पिछले डेढ़ वर्ष से काशी को क्योटो के समान बनाने की कवायद
पर भी पानी फिरता दिखने लगा। रोज-रोज की घोषणाओं से काशीवासी भी उकता गए कि
पता नहीं कुछ होगा भी या नहीं। यह भी एक राजनीतिक घोषणा ही समझ में आने
लगी। उधर, लालू भी लालटेन लेकर निकलने का दावा कर रहे थे। लेकिन, आप दोनों
के आगमन ने यह साबित किया कि मोदी का काशी से किया वादा केवल वादा नहीं है।
बीच-बीच में होने वाले दौरों में उनके द्वारा की गई भावनात्मक टिप्पणियां
महत्व रखती हैं। उनके लिए काशी के मायने हैं, यह साबित हो गया। जापानी टीम
लौटी तो मोदी शिंजो को लेकर ही चले आए और शिंजो के कदम पडऩे की जानकारी
होते ही पल-पल रूप बदलने लगी काशी।<br />
मेहमान शिंजो, आप काशी की धरती पर
पहली बार आ रहे हैं। जब आप यहां बाबतपुर एयरपोर्ट पर होंगे तो आपके स्वागत
को तैयार होंगे प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव। स्वर लहरियां आपको यहां
की संस्कृति से रूबरू कराएंगी। आपके काफिले को नदेसर कोठी के रास्ते
कदम-कदम पर स्वागत करेगी बच्चों की मुस्कान। दशाश्वमेध घाट पर जब आप देख
रहे होंगे विश्वप्रसिद्ध गंगा आरती तो ठीक उसी वक्त वहां गुंजायमान भक्ति
के सरस स्वर करेंगे दो महान संस्कृतियों का संगम। <br />
प्रधानमंत्री शिंजो,
हमें मालूम है कि बौद्ध धर्म की हमारी संस्कृति के पूरे सम्मान का नाम है
जापान तो स्वतंत्रता संग्र्राम में आजाद ङ्क्षहद फौज को शाही सेना की
सहायता की पहचान भी है जापान। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय
उपमहाद्वीप से बाहर किसी द्विपक्षीय विदेश यात्रा के लिए सर्वप्रथम जापान
को चुनकर रिश्ते की स्वर्णिम गाथा पर मुहर लगाई है। मंदिरों की यह नगरी
जापान के महत्वपूर्ण शहर क्योटो से धर्म का सीधा नाता जोड़ती है।
संस्कृतियों के इस संगम का अद्भुत दृश्य देखने को काशी बेकरार है, सुरक्षा
की मुकम्मल तैयारियों के साथ तैयार है। आइए, काशी में आप दोनों
प्रधानमंत्री का स्वागत है...।</div>
</div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-51445797961221002482015-09-14T17:05:00.002+05:302015-09-14T17:07:07.592+05:30हिंदी बोलें, हिंदी लिखें<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px;">
<span style="line-height: 19.32px;"><b>अभी से कर सकते शुरुआत</b></span></div>
<div style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="line-height: 19.32px;">हिंदी को लेकर न जाने कितनी बातें हुईं, हो रही हैं। अधिनियम पर अधिनियम बने। पर, हिंदी आज भी पूर्ण राष्ट्रभाषा का दर्जा पाने को तरस रही है। जिन लोगों ने इसकी पैरोकारी की, वे ही इसे अमल में नहीं ला रहे। मौका मिला नहीं कि अंग्रेजी को ही आगे सरका रहे हैं। यह सभी सरकारी विभागों में देखा जा सकता है। शासकीय प्रयोजन की अधिकतर कागजी कार्यवाही से हिंदी गायब है। यह आज की बड़ी चिंता है। खैर, सरकार ते</span><span class="text_exposed_show" style="display: inline; line-height: 19.32px;"> जब चेतेगी तब चेतेगी, हम-आप तो अभी से शुरुआत कर सकते हैं। हिंदी के कुछ आग्र्रह है, उन्हें सुनिए, गुनिए....।</span></div>
<div class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #141823; display: inline; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px;">
<div style="margin-bottom: 6px;">
<br /></div>
<div style="margin-bottom: 6px;">
<b>हिंदी हैं हम, वतन है... </b><br />
हिंदी भाषा है, अब तक हम यही जानते हैं। संभवत: इसीलिए इसकी लड़ाई भी भाषा की पहचान दिलाने तक ही आवाज बुलंद कर सीमित हो जाती है। देखने की बात यह है कि हिंदी हमारी भाषा इसलिए है कि हम खुद हिंदी है। जरा याद कीजिए वह गीत... हिंदी है हम वतन है हिंदोस्तां हमारा...। यह समझ विकसित करनी होगी।</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<br /></div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<b>आदत सुधारने की बात है</b><br />
आपको हस्ताक्षर करने हैं। तपाक से अंग्रेजी में कलम घिसट दी। क्यों भई, क्या हिंदी में हस्ताक्षर मान्य नहीं होते? किसी ने पता पूछा, आपने पर्ची पर अंग्रेजी में अपना पता लिखकर थमा दिया। सोचिए, क्या इसे हिंदी में नहीं लिखा जा सकता? यदि हां, तो लिखते क्यों नहीं, आदत सुधारते क्यों नहीं?</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<br /></div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<b>बच्चों को बताना होगा </b><br />
आजकल छोटे-छोटे बच्चे गुड मार्निंग, टाटा-टाटा, बाई-बाई करते दिख जाते हैं। जिन्हें सलीके से कदम उठाना नहीं आता, पानी मांगना नहीं आता, उन्हें भी इस तरह बोलना सिखाया जाता है। सिखाने वाले भी बस इतना ही जानते हैं। हैरत है। वे चाहें तो इसके बदले हिंदी में प्रणाम, सुप्रभात, शुभ विदा जैसे शब्दों-वाक्य विन्यासों का इस्तेमाल कर सकते हैं। बच्चों को बता सकते हैं। ध्यान रहे संस्कार बचपन से ही डाले जाते हैं।</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<br /></div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<b>फार्म भी भरिए हिंदी में </b><br />
रेलवे स्टेशन गए। आरक्षण का फार्म भरते हैं। विकल्प है। इसे हिंदी में भी भरा जा सकता है। आप वहां अंग्रेजीदां क्यों बन जाते हैं? क्या हिंदी नहीं आती? आती है तो इसे हिंदी में ही क्यों नहीं भरते? हिंदी का आग्र्रह है, उसे हिंदी में ही भरिए। बैंकों, डाकघरों, सरकारी कार्यालयों की किसी कागजी कार्यवाही में भी इसी अनुशासन का पालन किया जा सकता है, कीजिए। अबकी हिंदी दिवस पर यह संकल्प लीजिए, शुरुआत तो कीजिए ही...।</div>
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<b><i><br /></i></b></div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<b><i>(हिंदी दिवस पर हिंदी को समर्पित दैनिक जागरण के १४ सितंबर २०१५ के अंक में प्रकाशित मेरा आलेख) </i></b></div>
</div>
</div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-39348010303268847722015-07-31T18:42:00.000+05:302015-07-31T19:19:30.266+05:30चलिए प्रेमचंद के गांव लमही<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhCZ9MJJyINOLfihrDRZTjMtf86_vEWhkaLJA5Tq6eFoLLDwKF439oAp4fYZ6DnrK3VNbeIBP0bdq4OoY_O5M5PY8t8_6c-Cz5cSLY7oDBNvqjbgJvw5B08o7NBxnQt0k4niRcxzmP9z0Ou/s1600/lamhi-1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhCZ9MJJyINOLfihrDRZTjMtf86_vEWhkaLJA5Tq6eFoLLDwKF439oAp4fYZ6DnrK3VNbeIBP0bdq4OoY_O5M5PY8t8_6c-Cz5cSLY7oDBNvqjbgJvw5B08o7NBxnQt0k4niRcxzmP9z0Ou/s320/lamhi-1.jpg" width="240" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">लमही में कथा सम्राट प्रेमचंद के घर के सामने।</td></tr>
</tbody></table>
जिन्होंने साहित्य को दिशा दी, दलितों को आकाश। जिन्होंने लेखन को शैली दी, विचार को धाराएं। जिन्होंने हर वर्ग के लिए कलम चलाई और जो 'मानसरोवरÓ के सात भागों में छपीं। जिन्होंने 'हंसÓ को उड़ान दी, भाषा को नवजीवन। जिन्होंने दरिया ए गंगा के किनारे हिलाल की शक्ल में आबाद काशी को दिलफरेब वाला मंजर बताया। उन्हीं प्रेमचंद का गांव है लमही। आपके मन में भाषा की सहजता, साहित्य के उदात्म चरित्र के प्रति सामान्य जज्बा भी जीवित होगा तो इस गांव की मिट्टी को चंदन समझकर माथे से लगा लेंगे। रोज नहीं तो 31 जुलाई (जयंती) और 8 अक्टूबर (पुण्यतिथि) को तो अवश्य ही। अफसोस! यहां इन अवसरों पर जाने के लिए आपको बड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी। आइए, आपको साहित्य के इस महान तीर्थ लमही तक लें चलें।<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhKpiD4l6V7zFjP-QElSfLtOKfjidKZaFWryiVTsg3ZiE-dybLVE4NFj43LHvGtDtztbtXmYIRk8wZqCYm7ZwyVaIvsrC23vL_ZaIS2owkkNfgCphhwPFWPvQ1YDWoWgK_uRLuHKSHev4WL/s1600/lamhi-2.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhKpiD4l6V7zFjP-QElSfLtOKfjidKZaFWryiVTsg3ZiE-dybLVE4NFj43LHvGtDtztbtXmYIRk8wZqCYm7ZwyVaIvsrC23vL_ZaIS2owkkNfgCphhwPFWPvQ1YDWoWgK_uRLuHKSHev4WL/s320/lamhi-2.jpg" width="240" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">लमही में कथा सम्राट प्रेमचंद के स्मारक के पीछे।</td></tr>
</tbody></table>
अगर आप उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से या बिहार की राजधानी पटना से आना चाहते हैं तो आपको ट्रेन या बस से आना होगा वाराणसी स्टेशन या कैंट रोडवेज। यहां से महज आठ किलोमीटर पर है लमही। यात्रा टुकड़ों में होगी। नहीं मिलेगी कोई सीधी सवारी, चमचमाती सड़क। एक आटो से पहले जाना होगा पांडेयपुर चौराहा, फिर दूसरे से पहुंचिएगा लमही। सीधे जाना चाहते हैं तो पूरा आटो करना होगा। फिर शुरू होगा सफर। सफर कि ईश्वर याद आ जाएं।<br />
पांडेयपुर चौराहे तक तो जाम के झाम में उफ-आह कर पहुंच जाएंगे। इसके बाद लगेगा ही नहीं कि किसी शहर की सड़क पर स्वच्छ वातावरण में किसी साहित्यकार की धरती तक जाने के रास्तेे पर हैं। सड़कों के बड़े-बड़े गड्ढे और उन पर छाए धूल के गुबार से बच गए तो कुछ दूर सड़क के दोनों किनारे आपको जीर्ण-शीर्ण और उजड़े चमन का नजारा 'विकासÓ की पटकथा लिखता नजर आएगा। इस दौरान भूल से भी किसी ऐसे शिलापट्ट की कल्पना मत कीजिएगा, जिस पर यह लिखा मिले कि रास्ता महान कलमकार के गांव तक जाता है। पांडेयपुर चौराहे पर लगी है प्रेमचंद की मूर्ति। ताज्जुब हुआ कि मूर्ति भी आने वालों को नहीं दिखती। एक तो यह पता ही नहीं चलता कि ओवरब्रिज के नीचे जाम के झाम में गोल घेरा है क्या। दूसरे मूर्ति उस पार लगी है और लमही से लौटने वालों को ही दिखती है।<br />
इतिहास को खंगालने वाले जानते हैं कि साहित्य सृजन के प्रति प्रेमचंद का लगाव कितना गहरा था। समय- काल और परिस्थितियों से उनकी कलम सीधी टक्कर लेती थी। जिस चरित्र को उन्होंने बरसों पहले कथाओं में सहेजा, वे आज भी घूमते नजर आते हैं। 'सोजे वतनÓ देश प्रेम के प्रति जज्बा जगाने वाली उनकी वह कृति थी, जिसे ठीक उसी तरह प्रतिबंधित किया गया, जैसे आजादी के दीवानों को फांसी पर चढ़ा दिया जाता था। प्रेमचंद की धर्मपत्नी शिवरानी देवी ने 'प्रेमचंद घर मेंÓ में कथा सम्राट से संबंधित जिन घरेलू बातों की चर्चा की है, उनमें हंस का प्रकाशन होता रहे, इसके प्रति उनकी समर्पण भावना का अनूठा चरित्र सामने आता है।<br />
घटनाएं बानगी हैं। प्रेमचंद का पोर-पोर देश प्रेम, समाज के उत्थान और साहित्य सृजन से जुड़ा है। किसी बच्चे से किसी साहित्यकार का नाम पूछ लीजिए, उसकी जुबान पर सबसे पहले आता है प्रेमचंद। उनके साहित्य और सृजनशीलता का आनंद लेने वालों का भी पोर-पोर इनका ऋणी होना चाहिए। और कुछ नहीं तो इतना तो होना ही चाहिए कि वाराणसी और यहां तक आने सभी स्टेशनों-बस अड्डों पर लिखा मिले कि यहां से उतरकर आप प्रेमचंद की मिट्टी को प्रणाम करने जा सकते हैं। मान लेते हैं कि किन्हीं कारणों से इन स्थानों पर सूचना पट्ट नजर नहीं आते, लेकिन वाराणसी में तो यह नजर आना ही चाहिए था। आप स्टेशन या रोडवेज से लमही की ओर जाते रास्तेे में इस सूचना को तलाशेंगे तो आंखें तरसती रहेंगी।<br />
और हां, इस रास्ते पर बढ़ते सीधा मत देखते चलिए। लमही छूट जाएगी, आप आगे निकल जाएंगे। मुख्य सड़क से जो रास्ता फूटा है, उस ओर ही लमही का संकेत मिलेगा। बहरहाल, इन सब बातों से हमारे-आपके ऊपर तो फर्क पड़ता है, लमही पर नहीं। यह मिट्टी तो साहित्य का चंदन है। इसे माथे पर लगाइए।<br />
<b>(दैनिक जागरण के वाराणसी संस्करण में ३१ जुलाई को पेज वन पर प्रकाशित)</b><br />
<br />
...तो प्रेमचंद से ऐसे जुड़ गया 'मुंशी'<br />
प्रेमचंद अध्यापक रहे, कायस्थ भी थे। तब अध्यापकों को मुंशी जी कहा जाता था, कायस्थों के नाम के पहले भी सम्मान स्वरूप मुंशी लगाने की परंपरा रही है। लोगों को लगता है, इसीलिए प्रेमचंद हो गए मुंशी प्रेमचंद। लेकिन, यह पूरा सच नहीं है।<br />
प्रेमचंद के सुपुत्र एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार अमृत राय ने एक पत्र में उल्लेख किया है, प्रेमचंद जी ने अपने नाम के आगे मुंशी शब्द का प्रयोग स्वयं कभी नहीं किया। हालांकि, उनका यह भी मानना है कि मुंशी शब्द सम्मान सूचक है, जिसे प्रेमचंद के प्रशंसकों ने कभी लगा दिया होगा।<br />
इस संबंध में प्रेमचंद की धर्मपत्नी शिवरानी देवी ने अपनी पुस्तक 'प्रेमचंद घर मेंÓ में प्रेमचंद से संबंधित सभी घरेलू बातों की चर्चा की है, पर कहीं भी उनके लिए मुंशी का प्रयोग नहीं हुआ है। हालांकि, शिवरानी देवी ने इसी पुस्तक में दया नारायण जी के लिए मुंशी जी शब्द का प्रयोग कई बार किया है।<br />
प्रेमचंद के नाम, जो प्रकाशकों ने उनकी कृतियों पर छापे हैं, उनमें क्रमश: श्री प्रेमचंद जी (मानसरोवर प्रथम भाग), श्रीयुत प्रेमचंद (सप्त सरोज), उपन्यास सम्राट प्रेमचंद धनपतराय (शिलालेख), प्रेमचंद (रंगभूमि), श्रीमान प्रेमचंद जी (निर्मला) आदि कृतियों पर भी कहीं भी मुंशी का प्रयोग नहीं हुआ है।<br />
तो कैसे जुड़ा प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी विशेषण? एकमात्र कारण जो दिखता है, वह यही है कि हंस नामक पत्र प्रेमचंद एवं कन्हैयालाल मुंशी के सह संपादन मे निकलता था। इसकी कुछ प्रतियों पर कन्हैयालाल मुंशी का पूरा नाम न छपकर मात्र मुंशी छपा रहता था, साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था - <br />
<b>संपादक</b><br />
<b>मुंशी, प्रेमचंद।</b><br />
समझा जाता है कालांतर में पाठकों ने मुंशी तथा प्रेमचंद को एक समझ लिया और प्रेमचंद, मुंशी प्रेमचंद बन गए। अब तो प्रेमचंद के साथ मुंशी शब्द इतना गहरा जुड़ गया है कि सिर्फ मुंशी से ही प्रेमचंद का बोध हो जाता है। यह सहज भी लगता है। प्रेमचंद का शिक्षक व कायस्थ होना बाद में उनके नाम के आगे के मुंशी को मजबूत करता चला गया...।<br />
<br /></div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-38291695986091907572015-03-01T19:33:00.001+05:302015-12-13T13:18:43.225+05:30Dr.Mamta Sharan: साल भर के महत्वपूर्ण दिवस<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="http://sinharagini12.blogspot.com/2014/03/blog-post_3420.html?spref=bl">Dr.Mamta Sharan: साल भर के महत्वपूर्ण दिवस</a>: जनवरी महीनेँ के महत्वपूर्ण दिवस 1 जनवरी = सेना चिकित्सा कोर स्थापना दिवस, नया साल दिवस, विश्व शांति दिवस, विश्व परिवार दिवस...</div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-71531372801636478962014-11-16T01:31:00.000+05:302020-10-21T11:31:54.325+05:30खबर साफ्ट तो हेडिंग हार्ड - 2<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h3 style="text-align: left;">
खबरों की जान है शीर्षक - 6</h3>
<h4 style="text-align: left;">
आइए लेते हैं खबरों की खबर - 10</h4>
<div>
<br /></div>
<div>
<b>उदाहरण
दो - </b>शहर गोरखपुर। एक अभियान प्लान किया गया। नाम दिया गया - क्यों न काटे
मच्छर। इस कालम के तहत नगर निगम की कारगुजारियों, कमियों और शहर भर में
व्याप्त गंदगियों पर स्टोरी बन रही थी, छप रही थी। एक खबर बनी शहर के
नालों पर। आलम यह था कि शहर के सभी नाले जाम थे और खबर भी इसी गंदगी को
परोस रही थी। मदद कर रहे थे फोटो, जो बता रहे थे कि यहां के नाले-वहां के
नाले बजबजा रहे हैं, उबल रहे हैं। अब मौका था ब्रेन ड्रेन का। क्यों? इसलिए
कि नालों पर निश्चित रूप से इसके पहले भी खबरें छप चुकी होंगी, फोटो छप
चुके होंगे। </div>
<div>
<br /></div>
<div>
तो शुरू हुई चर्चा। दो ही बातें
थीं। एक नालों की गंदगी, दूसरी इसकी सफाई में लापरवाही। सवाल था लापरवाह
कौन? जवाब भी तय था नगर निगम, उसके मुलाजिम। अगला सवाल था आखिर नगर निगम
सफाई क्यों नहीं करता? क्या लापरवाही है? जवाब जो आया, वह चौंकाने वाला था।
यानी लापरवाही तो बहुत बाद की बात है, बड़ी बात है लूट। लूट? हां, लूट
पैसों की लूट। पैसों की लूट? हां, नाला सफाई के नाम पर नगर निगम को जो पैसे
खर्च करने होते हैं, उसे मिल-बांट कर हजम कर लिया जाता है। यह बड़ी राशि
है साहब। तो अगला जो वाक्य था, वही शीर्षक बन गया और लगातार चलने वाली एक
बोझिल स्टोरी सिर्फ उसी हार्ड हेडिंग के बल कल की सनसनी थी, खलबली थी। नगर
निगम से लेकर जिला प्रशासन तक को झकझोर रही थी, अलार्म कर रही थी, बड़े
घपले का पर्दाफाश कर रही थी, सरकार को कदम उठाने पर मजबूर कर रही थी। यह
हेडिंग थी - नाला नहीं, खजाना साफ। </div>
<div>
<br /></div>
<div>
<b>उदाहरण
तीन -</b> पश्चिम चंपारण जिले के भितिहरवा (गांधी आश्रम) में कांग्रेस का
कार्यकर्ता सम्मेलन था। राहुल गांधी आ रहे थे। सुरक्षा कड़ी थी। सिर्फ
कार्यकर्ताओं को ही जाने की इजाजत थी, जबकि भितिहरवा के भोले-भाले
ग्रामीणों को हुजूम राहुल को एक नजर देखने भर को बेताब था, बैरिकेडिंग
तोड़ देने पर उतारू था। राहुल वायुसेना के हेलिकाप्टर से आए। कार्यकर्ता
सम्मेलन, सुरक्षा व्यवस्था और भीड़ पर अलग-अलग कई हार्ड खबरें बनीं।
निश्चित रूप से खबरें-फोटो पहले पन्ने से अंदर तक कवर हो रहे थे। सभी खबरें
प्रेषित कर लौटने के दौरान रास्ते में स्टेट एडीटर का सुझाव आया कि एक ऐसी
साफ्ट खबर बने जिसकी हेडिंग हार्ड हो, जो पूरे माहौल को फोकस करती हो और
जो दिलों में घुस जाए, लोगों को याद रह जाए। यदि इसमें राहुल की थोड़ी
प्रशंसा भी होती है तो हो जाए। </div>
<div>
<br /></div>
<div>
सभी खबरें
लिखी जा चुकी थीं। मगर, सुझाव स्टेट एडीटर का था। सो, शुरू हो गया ब्रेन
ड्रेन। दिमाग में बिजली की तरह एक ही बात कौंधी कि राहुल के आने,
कार्यकर्ताओं को संबोधित करने और भितिहरवा से दरभंगा के लिए उड़ जाने के
दौरान कॉमन क्या था। क्या था?? क्या था जो समय के बदलते नहीं बदला? क्या था
जो तब भी था जब राहुल आए और तब भी था जब राहुल गए? निश्चित रूप से स्टोरी
साफ्ट थी, मगर इसकी हेडिंग हार्ड का दर्जा पाने वाली थी। और लौटकर बेतिया
पहुंचते वह कामन वस्तु मिल गई थी, हेडिंग भी बन गई थी। शीर्षक था - तेरा
मुस्कुराना गजब ढा गया। यह मुस्कुराहट ही थी जो तब भी राहुल के चेहरे पर
चस्पा थी जब वे हेलिकाप्टर से उतरे, तब भी थी जब कार्यकर्ता सम्मेलन में
थे, तब भी थी जब बैरिकेडिंग की ओर उतारू भीड़ से हाथें मिला रहे थे, तब भी
थी जब कस्तूरबा बालिका विद्यालय में शिक्षक से बातें कर रहे थे और तब भी थी
जब हेलिकाप्टर से आगे की उड़ान भर रहे थे। यह हेडिंग उस रोज दैनिक जागरण
की राष्ट्रीय प्रतियोगिता में भी बाजी मार ले गई। </div>
<div>
<br /></div>
<div>
तो
क्या अब भी यह बताने की जरूरत है कि साफ्ट खबर की डिमांड हार्ड हेडिंग ही
होती है? क्या यह भी बताने की जरूरत है कि आखिर यह लगाई कैसे जाती है? यदि
नहीं तो अगला वाक्य याद रखिए। यदि आप अखबार की दुनिया से जुड़े हैं, खबरों
का सरोकार जीते हैं तो मान लीजिए आपके लिए यह बहुत ही आसान है, बहुत ही
आसान। हेडिंग को लेकर कुछ और महत्वपूर्ण बातें अगली पोस्ट में। इंतजार
कीजिए। </div>
</div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-88333351193266109672014-11-13T20:33:00.000+05:302014-11-13T21:22:29.135+05:30खबर साफ्ट तो हेडिंग हार्ड - 1<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h3 style="text-align: left;">
खबरों की जान है शीर्षक - 5</h3>
<h3 style="text-align: left;">
आइए लेते हैं खबरों की खबर - 9</h3>
<div>
आसान
है साफ्ट खबरों के लिए हार्ड हेडिंग लगाना, बहुत ही आसान है। शर्त सिर्फ
एक ही है कि आपको उस खबर में डूबना होगा, डूबना होगा, खबर की भावनाओं को
आत्मसात करना होगा। ऐसा कौन कर सकता है, सवाल यह भी है। ऐसा नहीं है कि
आपको कहा कि आप खबर में डूब जाएं, आप डूब गए और हेडिंग निकल आई। कभी-कभार
तो ऐसा हो सकता है और परिणाम काफी सुखदकारी हो सकता है, पर आपकी लेखनी
लगातार ऐसे शीर्षक उगलती रहें, इसके लिए यह भी जरूरी है कि आप लगातार
अध्ययनशील हों, भ्रमणशील हों, बहुत सारा प्यार का जज्बा हो तो अंदर से
गुस्सा भी फूटे। और यह सब कुछ हुआ तो हार्ड खबर की साफ्ट या साफ्ट खबर की
हार्ड हेडिंग निकलने में देरी नहीं होने वाली। खबरों की जान हैं शीर्षक के
पहले आलेख में मैं जिन तीन कहानियों और उनके शीर्षकों क्रमशः मुखियों की
फौज मार रही मौज, पछुआ ने लीची को लूटा व सपने चूमेंगे आसमान का जिक्र कर
चुका हूं, वे यही हैं, साफ्ट खबर की हार्ड हेडिंग। आइए, कुछ और उदाहरणों से समझते हैं, निश्चित रूप से तस्वीर साफ होगी।</div>
<div>
<br /></div>
<div>
उदाहरण
एक - विश्व कैंसर दिवस पर खबर बननी थी। संवाददाता ने जो खबर दी, वह आंकड़े
पेश कर रही थी। साल दर साल बढ़ते कैंसर मरीजों के। खबर यह भी बता रही है
कि किस-किस प्रकार के कैंसर होते हैं और इलाका विशेष में किस प्रकार का
कैंसर पनप रहा है। फोकस क्यों पर भी था। सबसे बाद में थी उस जिले में कैंसर
की जांच और इलाज की व्यवस्था का हाल। पूछने पर बताया गया कि कैंसर तो
लाइलाज ही होता है। अब इसके लिए क्या और कैसे खबर बनाई जाए। आंकड़ों की बात
है और बात यह है कि इस इलाके में भी यह रोग बढ़ रहा है। खबर में डूबने की
बात थी और डूबा मन कह रहा था कि सारी बातें किस्तों में छप चुकी हैं। इसकी
तो कोई हार्ड हेडिंग होनी चाहिए, व्यवस्था पर चोट करने वाली हेडिंग होनी
चाहिए, हेडिंग ऐसी होनी चाहिए कि कल अखबार में दिखे तो सिर्फ यही। कल शहर
की जुबां पर चर्चा हो तो सिर्फ इसी एकमात्र हेडिंग की। </div>
<div>
<br /></div>
<div>
शुरू
हुई मशक्कत। संवाददाता के साथ ब्रेन स्टार्मिंग। पूछा, कैंसर के इतने रूप
आपके इलाके में पसर गए हैं, क्या यह बात सिर्फ आपको मालूम है? जवाब - नहीं,
महकमे के सभी अधिकारी इस बात को जानते हैं, आंकड़े तो विभाग से ही लिए गए
हैं। सवाल - अच्छा, तो उन्होंने क्या किया? जवाब - क्या करते, बस बातें
करते हैं, करना तो सरकार को है। सवाल - सरकार को यानी? जवाब - सर, राजधानी
में कैंसर अस्पताल है, यहां तो बस एक यूनिट बनाकर उसे कैंसर यूनिट का नाम
दे दिया है। यहां जांच की तो सुविधा ही नहीं है, इलाज कहां से करेंगे? सवाल
- तो क्या करते हैं अस्पताल में? जवाब - सही मायने में देखा जाए सर तो
मरीजों को इलाज के नाम पर बरगलाते हैं, उनका समय खराब करते हैं और बात जब
बूते से बाहर हो जाती है तो मरीज को राजधानी रेफर कर देते हैं। </div>
<div>
<br /></div>
<div>
रिपोर्टर
की बात भयानक थी। खबर निश्चित रूप से साफ्ट थी। कैंसर दिवस विशेष पर छपने
वाली थी, मगर नेचर हार्ड हो रहा था, सो हेडिंग भी हार्ड बनी। क्या? थोड़ी
देर सोचिए, सूझे तो ठीक, न सूझे तो अगली लाइन पढ़िए। डाक्टरों का मरीजों को
बरगलाकर टाइम खराब करने वाली बात हैमर कर रही थी, यही पाठकों को बताने को
विवश भी कर रही थी। जो डाक्टर मरीज के अंतिम क्षणों में कह रहे थे, अखबार
उसे पहली लाइन में ही कह देना चाहता था। हेडिंग बनी - कैंसर है, भागिए
पटना। इसकी दूसरी हेडिंग थी- इलाज तो छोड़िए यहां जांच की भी नहीं है
व्यवस्था। खबर छपी। वह दिन था, अखबार था, व्यवस्था थी, इलाके का पाठक वर्ग
था। सब एक दूसरे में समाहित। एक ही आकर्षण - कैंसर है तो भागिए पटना। </div>
<div>
<br /></div>
<div>
बहुत दिनों के बाद लिखा, लेकिन जहां तक मैं समझता हूं, खबर साफ्ट तो हेडिंग हार्ड, के तहत प्रेरक शुरुआत हो गई है। इस पर अभी और बातें होंगी। उदाहरण दो के साथ आएगी अगली पोस्ट, इंतजार कीजिए। </div>
</div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-35584914882172853352014-04-04T00:26:00.000+05:302014-04-04T00:39:43.570+05:30खबर हार्ड तो हेडिंग साफ्ट - 3<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h3 class="post-title entry-title" itemprop="name">
<span style="font-weight: normal;">खबरों की जान हैं शीर्षक -4</span></h3>
<b>
आइए लेते हैं खबरों की खबर - 8<br />
</b>इसके पहले कि बात आगे बढाऊं, आपको एक शीर्षक सुझाता हूं। इसे जरा
उस खबर पर फिट करके देखिए, जिससे बात शुरू हुई और इतनी दूर तक निकल आई।
शीर्षक है - पूछ रहीं मासूम आंखें, मेरा गुनाह क्या? बात हार्ड खबर
दिनदहाड़े युवक की हत्या के साफ्ट शीर्षक लगाने की थी। अब इस शीर्षक को
हत्या की खबर पर फिट कर देखिए। मासूम आंखें उस युवक
की पत्नी की हो सकती हैं, उसके बूढ़े माता-पिता की हो सकती हैं, उसके
बच्चों की हो सकती हैं। बस, दिनदहाड़े हुई हत्या की खबर लिखने
से पहले आपको सिर्फ इतना करना होगा कि उसके उन परिजनों के बारे में पता
करना होगा, उनसे मिलना होगा और उनसे बात करनी होगी। इस खबर की सब
हेडिंग बनाइए - बदमाशों ने दिनदहाड़े छीना मासूम के सिर का साया,
हत्यारों ने छीना बुढ़ापे का सहारा, उजाड़ दिया सुहाग, सुहागिन के सपने
चकनाचूर आदि आदि..। <b> <br />
</b><br />
<br />
गोरखपुर की बात है। अगवा कर एक लड़की से सामूहिक बलात्कार किया गया। बाद
में लहूलुहान हालत में उसे फेंक दिया गया। लड़की जब अस्पताल में भर्ती हुई
तो खबरनबीशों को इसकी जानकारी मिली। अब शुरू हुई खबर लिखने और खबर के पीछे
की खबर ढूंढ़ने की मशक्कत। फोटोग्राफर ने एक अच्छा काम किया। उन्होंने बेड
पर पड़ी लड़की के चेहरे का एक ऐसा क्लोजअप फोटो लिया, जिसमें लड़की की
आंखें पूरी व्यथा को न केवल खोल रही थीं, बल्कि देखने वाले को सहानुभूति और
गुस्सा दोनों से भर रही थीं। सवाल था, इस हार्ड खबर का साफ्ट शीर्षक क्या
हो? समीकरण वही फिर सामने था, हेडिंग साफ्ट होनी चाहिए। ...और शीर्षक लगा -
आंखों में सवाल, मेरा लड़की होना गुनाह? यकीन कीजिए, कल जिसने भी शीर्षक
पढ़ा, रोमांचित हो गया, फीडबैक यही था। <br />
<br />
शहर में लूट की वारदात हुई। लुटेरों ने दंपती को बांधकर इत्मीनान से डेढ़
घंटे तक घर को खंगाला और नकदी-जेवर के साथ जरूरी टीवी-फ्रिज, वाशिंग मशीन,
गैस स्टोव जैसे घरेलू सामान भी ले गए। मध्यम वर्ग के इस परिवार ने कई
वर्षों में जरूरी खर्चे काट-काट कर और एक-एक कर इन्हें जुटाए थे। निश्चित
रूप से यह चोरी उन पर भारी पड़ गई, वे कंगाल हो गए। इस हार्ड खबर की भी
साफ्ट हेडिंग ही निकली और सच में लाजवाब रही, प्रतिद्वंद्वियों को लाजवाब
कर गई। शुरू में संवाददाता ने इसकी हार्ड हेडिंग ही लगाई थी, जो जम तो रही
थी मगर दूसरे अखबारों से आगे निकलने का माद्दा नहीं दिखा रही थी। बातें
शुरू हुईं तो बात पकड़ में आई। बात उस घर की महिला की थी, जो चोरी की घटना
के बाद हर किसी से कह रही थी। क्या? जो कह रही थी वही शीर्षक बन गया। आप भी
सुनिए - अब कहां से खरीदूंगी टीवी, कैसे पकेगा खाना। महिला का अगला वाक्य
सब हेडिंग बन गई - डेढ़ घंटे में लुटेरों ने कंगाल बना दिया। <br />
<br />
मुझे लगता है, उदाहरण कई हो गए, बात भी समझ में आ गई होगी। यानी हार्ड खबर
की साफ्ट हेडिंग हार्ड खबर को और हार्ड बना देती है, आपको प्रतिद्वंद्वियों
से काफी आगे ले जाती है और पढ़ने वालों को पूरी खबर पढ़ने के लिए पन्ने पर
रोक देती है। रोक देती है नहीं? यदि मानते हैं कि रोक देती है तो आप भी
शुरू कीजिए हार्ड खबर की साफ्ट हेडिंग लगाना। इस कला में आप रातोरात सिद्ध
नहीं हो पाएंगे। कोई रातोंरात होता भी नहीं। लेकिन, यदि मानसिकता बन आई तो
मेरा दावा है कि इस कला में पारंगत हो जाने में आप भी खुद को नहीं रोक
पाएंगे। <b>अब अगली चर्चा होगी - कैसे बनाते हैं साफ्ट खबर की हार्ड हेडिग। </b></div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-26654454985656881842014-02-26T01:15:00.001+05:302014-11-13T21:22:56.789+05:30खबर हार्ड तो हेडिंग साफ्ट - 2<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>खबरों की जान हैं शीर्षक -3<br />
आइए लेते हैं खबरों की खबर - 7 <br />
<br />
</b>
सवाल है कि हत्या, लूट और बलात्कार जैसी घटनाओं की हेडिंग
साफ्ट कैसे की जाए? उदाहरण से समझिए। एक युवक की दिनदहाड़े बदमाशों ने
बीच बाजार गोली मार कर हत्या कर दी। एक ने हेडिंग बनाई -दिनदहाड़े बीच
बाजार युवक की हत्या, दूसरे ने लिखा - सरेआम गोलियों से भूना, तीसरे ने
शीर्षक बनाया - पुलिस का इकबाल ध्वस्त, सरेआम खून, चौथे ने लिखा -
हत्यारों का राज!, पांचवें ने हेडिंग बनाई - बाइक से उतरे, पिस्तौल
सटाई और दागने लगे गोलियां। ये सब हार्ड खबर की हार्ड हेडिंग है। आपको
नहीं जंचती। आपके सामने सवाल है साफ्ट हेडिंग लगाने का? क्या लगाएं? <br />
<br />
इसी परिप्रेक्ष्य में एक और उदाहरण पर गौर फरमाइए। शाम में चार बजे एक
सूचना आती है कि शहर से बीस किलोमीटर की दूरी पर ड्राइवर की लापरवाही से
ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो गई। अब सारा फोकस ड्राइवर पर। थोड़ी देर बाद सूचना
अपडेट हुई कि ड्राइवर नशे में था। फिर अपडेट हुई कि ड्राइवर ४८ घंटों से
लगातार ड्यूटी पर था। फिर अपडेट हुई कि सिग्नल था नहीं औऱ ड्राइवर ने ट्रेन
रोकी नहीं। सारा फोकस ड्राइवर की लापरवाही पर हो गया और हेडिंग उसी के
इर्द गिर्द बन गई। रिपोर्टर खुश, काम हो गया। डेस्क का साथी खुश, मिल गई एक
हार्ड खबर। कल संपादक भी खुश कि खबर छूटी नहीं।<br />
<br />
लेकिन, एक संवाददाता ऐसा
निकला जो अपडेट होती सूचनाओं पर टिका बैठा नहीं रहा। वह पहुंच गया स्पाट
पर, मिल लिया ड्राइवर से, बातें कर लीं उन लोगों से जो स्पाट पर मौजूद थे।
अब उसकी हेडिंग थी - बचा ली ग्यारह मासूमों की जान। दरअसल उसे पता यह चला
कि ड्राइवर ने क्रासिंग पर फंसे उस टेम्पो को देख लिया था, जिसमें ग्यारह
स्कूली बच्चे सवार थे। उसे पता चल गया था कि ड्राइवर न तो नशे में था, न ही
उसने किसी नियम को तोड़ा था। <br />
<br />
<b>अपना सवाल फिर वही है। </b>खून खराबे वाली हार्ड खबर की हेडिंग साफ्ट कैसे
बने? ट्रेन दुर्घटना का विश्लेषण गवाह है, रिपोर्टर को मेहनत करनी होगी।
टेक्स्ट बटोरना होगा। गहन अन्वेषण करना होगा और खबर के साथ दिल से जुड़ना
होगा। हेडिंग तो बनेगी ही, कैसे नहीं बनेगी? आखिर बात तो पूरी हो, सूचना तो
पूरी हो, मालूमात तो पूरे हों। ये सब होंगे तभी तो बनेगी कुछ संभावना। <br />
<br />
इसके पहले कि दिनदहाड़े हत्या की कुछ साफ्ट हेडिंग सुझाऊं, एक और दृष्टांत
पर गौर फरमाइए। फिर बात ट्रेन की। वक्त भी वही रखिए, यानी शाम के चार बजे।
पता चलता है कि राजधानी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गई और करीबन डेढ़ सौ
लोग मारे गए। अब लड़ाई शुरू हो गई मारे जाने वालों की संख्या ज्यादा से
ज्यादा दिखाने की। कोई अखबार लिखता है १५० मरे, कोई लिखता है १५८ तो कोई
१७५। जाहिर है, राजधानी दुर्घटनाग्रस्त तो वे लिखेंगे ही। अब जरा सोचिए,
घटना शाम चार बजे की है। यदि आप अखबार के लिए खबर लिख रहे हैं तो वह बहुत
जल्दी भी वह पाठक के पास पहुंची तो कम से कम पंद्रह-सोलह घंटे तो गुजर ही
चुके होंगे। मान लेते हैं, किसी रिपोर्टर को यह भी ख्याल आया। अब चूंकि
उसका फोकस मृतकों की संख्या है, इसलिए वह देर रात तक अस्पताल खंगालेगा और
उसमें दो चार की और बढोतरी कर लेगा। काम खत्म, खबर कवर?<br />
<br />
लेकिन, एक भाई ऐसा
निकला जो यह पता करने लगा कि राजधानी एक्सप्रेस आखिर दुर्घटनाग्रस्त हुई
तो कैसे हुई? राजधानी का मतलब अतिरिक्त विभागीय सतर्कता, अतिरिक्त सुरक्षा
व्यवस्था। अब उसे पता चला कि यह विभागीय कोई बड़ी लापरवाही थी, उसे पता चला
कि यह बड़ी नक्सली साजिश थी और उसकी हेडिंग बन गई बड़ी लापरवाही या बड़ी
नक्सली साजिश। आप स्वयं कल्पना कर सकते हैं कल अखबार कौन सा भीड़ में अलग
दिखेगा, उस भीड़ से कौन सा अखबार उठेगा। <br />
<b><br />
अपना सवाल तो फिर वही है। उस दिनदहाड़े खून की साफ्ट हेडिंग क्या हो? उम्मीद है कुछ हेडिंग आपको सूझने लगी होगी। नहीं, तो बातें अगली पोस्ट में। </b></div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-27782653886798884012014-02-20T01:11:00.000+05:302014-11-13T21:23:14.078+05:30खबर हार्ड तो हेडिंग साफ्ट<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>
खबरों की जान हैं शीर्षक - 2 <br />
आइए लेते हैं खबरों की खबर -6</b><br />
<br />
जमशेदपुर की बात है। पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में राजनीति की दिशा
और दशा पर हफ्तेवार पूरा पेज लिखने वाले बुजुर्ग पत्रकार केदार महतो
(अब इस दुनिया में नहीं हैं) कहा करते थे कि यदि खबर हार्ड हो तो
शीर्षक साफ्ट बनाइएगा और खबर साफ्ट हो तो शीर्षक को हार्ड कर दीजिएगा।
हमलोग उन्हें चाचा कहा करते थे। जब पूछता कि चाचा, जरा विस्तार से
बताइए तो कहते खुद सोचिए। बड़ी मुश्किल थी, कोफ्त भी होती थी। पहले तो
बात समझ में ही नहीं आई। पर, इतना जरूर हुआ कि दिमाग चलने लगा। जब कभी
हार्ड खबर लेकर बैठता तो साफ्ट हेडिंग सोचने लगता। जब कभी साफ्ट खबर
लेकर बैठता तो हार्ड हेडिंग सोचने लगता। अजीब मुसीबत थी। आप विश्वास
करिए, यह मशक्कत हर खबर की हेडिंग के लिए होने लगी। और नतीजा बड़ा
चमत्कारिक था। अखबार चमकने लगा था। <br />
<br />
तो मुद्दे पर आएं। क्या हो हार्ड खबर की साफ्ट हेडिंग और साफ्ट खबर की
हार्ड हेडिंग? अमूमन होता यह है कि जब किसी अधिकारी या विभाग की कलई
खोलती हार्ड खबर लिखी जाती है तो संवाददाता या डेस्क के साथी हेडिंग को
भी हार्ड ही रखते हैं। लेकिन, जरा रुकिए, सोचिए..। क्या इसकी कोई साफ्ट
हेडिंग हो सकती थी जो तीर की तरह सीधे दिलोदिमाग में घुस जाती? सोचिए कि
क्या यह खबर किसी विभाग या किसी अधिकारी के भ्रष्टाचार की कलई खोलती
पहली खबर बन रही है? क्या वह पहला विभाग है या पहला अफसर है जो
भ्रष्टाचार में लिप्त है? तो सोचिए कि आप इस खबर का शीर्षक हार्ड बनाने
पर क्यों तुले हैं? <br />
<br />
खबर में मुख्य रूप से तीन प्राथमिकताएं ही होती हैं। पहली सूचित करना।
दूसरी सावधान करना। तीसरी संवाद करना। इन तीन प्राथमिकताओं पर गौर
कीजिए। यह हार्ड और साफ्ट की परिभाषा भी समझा रही हैं। मेरा आग्रह
तीसरी प्राथमिकता पर है। संवाद की श्रृंखला ही आपको इस
फर्क को समझाने लगेगी। सवाल आएगा कि इस खबर को लेकर संवाद किससे?
किससे?? फिर सोचिए, इस खबर की बाबत आप संवाद किससे कर रहे हैं। क्या उस आम
पाठक से जो अखबार खरीदकर पढ़ रहा है? क्या उस विभाग के आला अधिकारी या सीधे
सरकार से? सोचिए, क्या यह संवाद सीधे उस विभाग से या उस अधिकारी से नहीं
हो सकता? मुझे लगता है कि अब आपकी हेडिंग बन गई होगी। और एक नहीं, कई
हेडिंग्स बन गई होंगी। बनी कि नहीं? चलिए, हम ही कुछ सुझाते हैं।
भ्रष्टाचार की कलई खोलती इस तस्वीर के कई साफ्ट शीर्षक हो सकते हैं -
मनरेगा में यह क्या हो रहा है सर..., मत बेचिए भूखों का अनाज, आ गया भादो
अब क्या करेंगे जॉब कार्ड आदि आदि...। <br />
<br />
ग्लैमर की चकाचौंध भरे आज के परिवेश में कहीं कोई भूख से मर जाता है। आपको
इसकी खबर बनानी है। बहुत आक्रोश होगा मन में। व्यवस्था के प्रति, समाज के
प्रति। क्या लिख दें। मन कर रहा होगा कि गुस्से का कोई आखिरी शब्द हो तो
उसे ही उकेर दें। पर सावधान, यह हार्ड खबर बिल्कुल साफ्ट हेडिंग की मांग कर
रही है। सोचिए, यदि इसकी हेडिंग आप यह लगा दें 'उफ वो ठंडा चूल्हा, वो
चमकते बर्तन' तो क्या कम मारक दिखेगी, क्या कम व्यवस्था को झकझोरेगी, क्या
इससे निकलने वाला दर्द कुछ ही लोगों को टीसेगा? सोचिए, सोचिए। <br />
<br />
और मतलब समझे? कैसे बनती है हार्ड खबर की साफ्ट हेडिंग? पहली बात, आपको खबर
से पूरी तरह जुड़ जाना होगा, उस पूरी घटना को अपने ऊपर हुआ मानना होगा।
दूसरी बात, अपनी जुबान को किसी भी कुव्यवस्था या भ्रष्टाचार की वजह से
पीड़ित की फरियाद लगाने वाले की जुबान बनानी होगी। और सावधानी भी जरूरी है।
यह कि मामला प्रखंड की गड़बड़ी का हो तो दोषी पूरे जिला प्रशासन को मत
ठहरा दीजिएगा, दोष जिलाधिकारी के मत्थे मत मढ़ दीजिएगा। फिर खबर जिस असर,
जिस परिणाम के लिए लिखी जाएगी, उसमें देरी हो जाएगी। <br />
<br />
<b>अब एक सवाल उठ सकता है कि हत्या, लूट और बलात्कार जैसी हार्ड खबर की
हेडिंग साफ्ट कैसे की जाए? है न रोचक सवाल? तो जवाब अगली पोस्ट में। </b></div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-27210668677311965082014-02-17T23:57:00.000+05:302014-11-13T21:36:17.055+05:30 खबरों की जान हैं शीर्षक -1<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>आइए लेते हैं खबरों की खबर - 5</b><br />
<br />
बिहार की बात है, मुखियों की गतिविधियों पर कंपाइल स्टोरी बन रही थी।
खबर पूरी तरह से नकारात्मक भाव रखने वाली थी। खबर बनकर आई कि लूट-खसोट
और भ्रष्टाचार में लिप्त हैं अधिकतर मुखिया। जिक्र उन योजनाओं का था,
जिनकी राशि मुखियों की जेब में पहुंच चुकी थी और असली हकदार लाभ से
पूरी तरह वंचित थे। मौका था खबर को पहले पन्ने पर डिस्प्ले का। बात जम
नहीं रही थी क्योंकि उसका शीर्षक जम नहीं रहा था। होने लगी ब्रेन
स्टार्मिंग। आखिर इस खबर का शीर्षक क्या हो कि पढ़ने वाले के दिलो
दिमाग में सीधा घुस जाए। तो बात आई कि आम पब्लिक की मुखियों के बारे
में क्या राय है। क्या बोल रही है जनता? जो दो चार वाक्य सामने आए,
उनमें एक था - मुखियों की फौज, मार रही मौज। और यह शीर्षक बन गया उस
खबर का। यकीन मानिए, अखबार और खबरों की भीड़ में सिर्फ वही शीर्षक चमक
रहा था, लोगों को आकर्षित कर रहा था और लोग कह रहे थे, सही लिखा है
अखबार ने, हमलोगों की बात रख दी है खोलकर...। <br />
<br />
एक दूसरी खबर का जिक्र करूं। लीची का सीजन चल रहा था और पछुआ भी अपनी
रफ्तार छोड़ने को तैयार नहीं थी। नतीजा, पेड़ पर टंगी लाल-लाल लीचियां
फट गई थीं और इसी के साथ फट गया था लीची किसानों का कलेजा। खबर बन कर
तैयार थी। मगर, फिर हालात वही थे। पहले पन्ने पर ली जाने वाली इस खबर
का शीर्षक जम नहीं रहा था। तो फिर शुरू हुई ब्रेन स्टार्मिंग। क्या हो
शीर्षक? मंथन शुरू हुआ और शीर्षक निकलकर आया- पछुआ ने लीची को लूटा। जी
हां, कल के अखबार में इस शीर्षक की सर्वत्र सराहना हो रही थी, किसानों,
व्यापारियों और आम पाठकों को भा रही थी। टिप्पणी थी - अखबार बिल्कुल
मौलिक लिखता है। <br />
<br />
राजस्थान में एक हवाई अड्डे का शिलान्यास करने प्रधानमंत्री आने वाले
थे। यह हवाई अड्डा उस खास क्षेत्र में बन रहा था, जहां के लोगों के लिए
हवाई जहाज पर चढ़ना तो दूर, उसे नजदीक से देखना भी एक सपने की तरह ही
था। जिस दिन हवाई अड्डे का शिलान्यास होना था, उस दिन के अखबार के लिए
सिर्फ इसी मुद्दे पर पूरा पेज प्लान था। खबरें तो कई थीं, पर कामन
इंट्रो के साथ जो कामन हेडिंग बन रही थी, वह जम नहीं रही थी। जाहिर है
विचारों का अंधड़ चल रहा था। प्रतिद्वंद्विता में आगे रहने की होड़ अलग
से। आखिर में इसका जो शीर्षक बना, उसकी सराहना दूसरे अखबार वालों ने भी
की। शीर्षक था - सपने चूमेंगे आसमान। <br />
<br />
शीर्षकों के ऐसे ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे, जिन पर देर तक, बहुत देर तक
बहस की जा सकती है, उदाहरण दिए जा सकते हैं। समझने वाली बात यह है कि
खबरों की जान होते हैं शीर्षक और शीर्षक लगाना एक मशक्कत का काम है,
दिमाग का काम है, दिल से खबरों से जुड़ने का काम है। अच्छे शीर्षक के
लिए कंटेंट का भी अच्छा होना जरूरी है। जैसे, किसी ने खबर बना दी- महेश
प्रजापति की अध्यक्षता में प्रज्ञा मंडल की बैठक हुई, इसमें शिक्षा के
विकास पर विचार किया गया, इसमें फलां-फलां लोग उपस्थित थे, फलां ने धन्यवाद
ज्ञापन की औपचारिकता निभाई। अब इस खबर का क्या लगाएंगे शीर्षक? इस खबर में
एक बात मार्के की थी। संवाददाता ने ध्यान दिया होता तो यह छोटी सी खबर भी
दिलचस्प हो सकती थी। इसका शीर्षक भी मार्गदर्शन कर सकता था। सोचिए....।<br />
<br />
बैठक में क्या हुआ था? जवाब है - शिक्षा के विकास पर विचार। इस छोटी बैठक
में लोग भले छोटे रहे हों, उनके विचार महत्वपूर्ण हो सकते थे। आखिर क्या थे
शिक्षा के विकास की बाबत उनके विचार। रिपोर्टर को उन पर गौर करना चाहिए
था। तब खबर लिखने का एंगल ही बदल जाता, शीर्षक तो अपने आप बदल जाता। बदल
जाता कि नहीं? लोगों का आकर्षित करता। करता कि नहीं? <b>जारी.... </b></div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-36565822396790013392013-06-22T00:51:00.000+05:302013-06-22T00:51:02.893+05:30...और यूं बदल जाती है खबर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>आइए लेते हैं खबरों की खबर - ४</b><br />
<br />
अजीब लग सकता है, पर है दुरुस्त। एक सूचना आई और आपने उसे बिना सोचे समझे
खबर में ढाल दिया। खबर गई, छपी, पर कोई असर नहीं छोड़ पाई। आप ही का कोई
प्रतिद्वंद्वी उस सूचना की मीन मेख निकालने लगा। कुछ सोचा, कुछ विचारा,
कुछ बहस चलाई, क्यों-कैसे का सवाल उठाया और सूचना ने रुख बदल लिया, खबर
बदल गई। वह और उसका हाउस छा गया। कैसे? आइए, इसे एक उदाहरण के साथ समझते
हैं। <br />
<br />
अभी कुछ दिनों पहले की बात है। शाम की बैठक में खबरों की प्रायरिटी तय हो
रही थी। इनपुट हेड ने बताया कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से एक
महत्वपूर्ण खबर है। पूछा गया - क्या? उन्होंने बताया - बीएचयू प्रशासन ने
रैगिंग रोकने के लिए नई नीति बनाई है। पूछा गया - क्या? बताया गया -
रैगिंग साबित होने पर इसमें लिप्त लड़के पर कड़ी कार्रवाई तो की ही जाएगी,
यदि आरोप गलत निकला तो शिकायत करने वाले पर भी बीएचयू कार्रवाई करेगा।
पूछा गया - क्या करेगा? उन्होंने बताया - उसे विश्वविद्यालय से निकाला भी
जा सकता है। <br />
<br />
सूचना जिस रूप में आई, उसके मुताबिक खबर का स्वरूप था - रैगिंग रोकने के
लिए बीएचयू ने बनाई नई नीति। अब नीतियों में क्या-क्या है, इसे दूसरे
शीर्षक, प्वाइंटर और बाडी में दीजिए। यह सीधी बात थी, सीधी सूचना थी, सीधा
प्रयास था, सीधी खबर बनती, छपती और छपकर खत्म हो जाती। जी हां, खबर खत्म
हो जाती। मगर नहीं। सोचने वाले ने सोचा, विचारा, बहस की और खबर बदल गई,
उसकी आत्मा बदल गई और खबर कनेक्ट हो गई पूरे छात्र समूह और बीएचयू प्रशासन
से। कैसे? आइए, आगे समझते हैं।<br />
<br />
प्राथमिक सूचना के साथ जो बहस चली, उसका पहला सवाल था - ये क्या नीति है
भई? रैगिंग होने वाला छात्र आखिर कैसे अपने आरोप को साबित करेगा? रैगिंग
करने वालों का हुजूम होता है, इसीलिए तो वे भारी पड़ जाते हैं और मनमानी
कर पाते हैं। अब एक लड़के की कुछ लड़के अकेले में घेर कर रैगिंग करते हैं
तो वह इसे साबित कैसे करेगा, मुश्किल होगी। उसके पक्ष में बोलेगा कौन? यदि
बोलने वाला बोलने की स्थिति में होता तो फिर रैगिंग की नौबत ही क्यों आती?
<br />
<br />
बहस का दूसरा जो बिंदु था, वह यह कि इससे रैगिंग पर रोक लगे न लगे,
शिकायतें बंद जरूर हो जाएंगी। लड़के निष्कासन या कार्रवाई के भय से शिकायत
ही नहीं करेंगे। तीसरी बात यह उभर कर सामने आई कि बीएचयू प्रशासन ने
रैंगिंग रोकने की कवायद नहीं की है, रैगिंग की शिकायतों को खुद तक पहुंचने
से रोकने की बुद्धि भिड़ाई है। खूब बहस चली और आखिर में संपादकीय क्रीमी
लेयर ने माना कि यह सही है। अब सवाल था, इस खबर को लिखा कैसे जाए, छापा
किस अंदाज में जाए। <br />
<br />
बहस का रुख सवालिया था तो खबर भी सवालिया निशान छोड़ती बनाने का फैसला
हुआ। फिर तय हुआ कि सूचना के आगे की बात रखती हो खबर। खबर के माध्यम से
बीएचयू प्रशासन को कुछ सलाह दी जाए। खबर ऐसी बने कि बीएचयू प्रशासन को लगे
कि कुछ गलत फैसला हो रहा है। छात्रों को लगे कि अखबार उनके साथ है। आम
पाठक को भी लगे कि यह उनकी आवाज है, जो अखबार ने उठाई। <br />
<br />
और बस। बन गई हेडिंग। यह थी - नई रैगिंग नीति से मुश्किल में होंगे पीड़ित
छात्र। अब क्या यह बताने की जरूरत है कि खबर कैसी होगी, उसका वाक्य
विन्यास क्या होगा? हेडिंग बन गई यानी खबर का खाका तैयार। खबर का खाका
ठीक-ठाक खिंच जाए, इसके लिए बेहद जरूरी होता है कि मारक हेडिंग बन जाए।
खैर, इस पर बात किसी और पोस्ट में। पर साहब, यकीन मानिए, इस खबर का जोरदार
इंपैक्ट हुआ। इस खबर को लेकर पूरे विश्वविद्यालय परिसर में सनसनी रही और
रही अखबार की चर्चा। फीडबैक पाकर संपादकीय टीम अगले रोज गदगद थी। <br />
<b><br />
</b>तो खबर थोड़ी बहस मांगती है, थोड़ा विचार और थोड़ा चिंतन-मंथन भी।
प्रतिद्वंद्विता का दौर है, आगे निकलने की होड़। सोचना तो पड़ेगा न! आगे
बताऊंगा शीर्षकों का तिलस्म। आखिर एक शीर्षक कैसे खबर को खींच ले जाता है,
कैसे खबरों के बीच से यूं निकल आता है जैसे पानी के भीतर से हवा भरा
गुब्बारा। इंतजार कीजिए।</div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-66267437835193745912013-06-02T21:31:00.001+05:302013-06-02T23:06:15.355+05:30सावधान, काफी हुनरमंद होती हैं खबरें<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>आइए लेते हैं खबरों की खबर - 3<br />
</b><br />
खबरों से जुड़े किसी भी शख्स से यह पूछा जाए कि खबरों के कितने
वर्ग होते हैं तो वह सीधे-सीधे कई खबरें गिना डालेगा। अपराध-अपराधी की
खबरें, घटना-दुर्घटना की खबरें, साहित्य-संस्कृति-सामाजिक सरोकारों की
खबरें, शासन-प्रशासन-विधि व्यवस्था की खबरें, शिक्षा-शिक्षक की खबरें,
कारोबार-कारोबारी की खबरें, ट्रैफिक-यातायात-परिवहन की खबरें, यात्रा-पर्यटन की खबरें, संचार-दूरसंचार की
खबरें, नेता-राजनीति की खबरें, संस्था-संस्थान की खबरें आदि-आदि....। <br />
<br />
सही भी है। मोटे तौर पर खबरें इन्हीं जगहों से निकलती हैं, इन्हीं की होती
हैं। मगर क्या कभी आपने सोचा कि इन्हीं खबरों के भीतर कुछ और वर्ग तैयार
खड़े होते हैं, जिन पर गौर करना बेहद जरूरी हो जाता है। इन वर्गों पर गौर
किए बगैर खबरों में घुसे, खबर लिखनी शुरू कर दी, लिख दी तो गड़बड़ी शुरू
हो जाती है। गड़बड़ी यानी डेस्क को, आपके संपादक को और अंततः अखबार को या
उस मीडिया माध्यम को जिससे आप जुड़े हुए हैं और जिसे आप खबर दे रहे हैं। <br />
<br />
जरा सोचिए। वह कोई एक खबर ही तो होती है जो लीड बन जाती है, वह कोई एक खबर
ही तो होती है जो बाटम बन जाती है। कोई खबर पहले पन्ने पर जगह ले लेती है
कोई अंदर के पन्ने पर चली जाती है। वह भी खबर ही होती है जिसे टाप में
बाक्स ट्रीटमेंट दिया जाता है या कह दिया जाता है कि अंदर के किसी भी
पन्ने पर बाक्स लगा लें। ध्यान दें, खबर तो वह भी होती है, जिसे
छापने से मना कर दिया जाता है। <br />
<br />
खबरों का वर्गीकरण और भी हैं। यह है साइज, लेंथ। अकसर अखबारों में बेहद
गंभीर चर्चाएं सिर्फ इस बात पर होती हैं कि इस खबर को लीड लगाओ पर दो कालम
ट्रीटमेंट दो, तीन कालम ट्रीटमेंट दो या चार कालम से ज्यादा मत छापो। यह
तो बैनर है यार, इस खबर को पूरे आठ (आजकल सात) कालम में तानकर- लहराकर छापो। इस खबर को चार कालम में क्यों लिख दिया, यह तो सिंगल कालम में
भी छपने के लायक नहीं है, इस खबर को तो ब्रीफ में निपटा दो, इसमें
है क्या। इस खबर को सिंगल में क्यों निपटा दिया, इसे कम से कम तीन कालम में
छापने के लायक लिखो। इस खबर को किसने लिखा, क्यों लिखा, कितना पैसा खाकर
लिखा आदि-आदि...। <br />
<br />
अब यह सोचिए, खबरों की साइज, लेंथ और उसके प्लेसमेंट पर विचार किए बगैर
आपने खबर लिख दी तो कितनी गड़बड़ होती है! एक खबर पर कितनी देर तक उलझन
होगी, बहस होगी, समय बर्बाद होगा, आप डांट खाएंगे और पूरा काम करने के बाद
भी निराश घर जाएंगे।<br />
<br />
तो खबरों की दुनिया में चैन की सांस लेनी है तो उस
हुनर का मास्टर बनकर रहिए जहां अगला आपको सिर्फ खबरों की लेंथ-साइज और
प्लेसमेंट को लेकर क्लास लगा देता है। और इसका हुनरमंद बनना बेहद आसान है।
कुछ बातें सोचने के लिए तो आपको यही आलेख मजबूर कर रहा होगा, कुछ आगे का
कर देगा। इंतजार कीजिए।
<b>
</b></div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-48229930605069187842013-03-23T13:01:00.004+05:302013-03-23T13:02:59.215+05:30ना ना ना ना <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: #cc6600;"><b>
डगर कहता है <br />
जरा संभल ना <br />
मगर कहता हूं <br />
ना ना ना ना <br />
<br />
हिसाबों में हम <br />
किताबों में हम <br />
सवालों में हम <br />
जवाबों में हम <br />
<br />
जिगर कहता है <br />
जरा मचल ना <br />
मगर कहता हूं <br />
ना ना ना ना <br />
<br />
ओ काली जुल्फें <br />
नशीली आंखें <br />
ये मस्त जवानी <br />
बड़ी मस्तानी <br />
<br />
शहर कहता है <br />
जरा बदल ना <br />
मगर कहता हूं <br />
ना ना ना ना <br />
<br />
लंबी गलियां <br />
ऊंची कलियां <br />
टेढ़ी सड़कें <br />
चलने ना दें <br />
<br />
सफर कहता है <br />
जरा सा रुक ना <br />
मगर कहता हूं <br />
ना ना ना ना <br />
<br />
सूना दफ्तर <br />
पसीने से तर <br />
नगीना घर है <br />
कमीना बिस्तर <br />
<br />
असर कहता है <br />
जरा फिसल ना <br />
मगर कहता हूं <br />
ना ना ना ना <br />
<br />
सरेंडर दिन है <br />
कैलेंडर रातें <br />
मगर कहता हूं <br />
ना ना ना ना <br />
<br />
होश में हैं लोग <br />
जोश में हैं हम <br />
मगर कहता हूं <br />
ना ना ना ना <br />
<br />
लंबी राहें <br />
पुकारें आ जा <br />
मगर कहता हूं <br />
ना ना ना ना <br />
<br />
बताए रस्ता <br />
इधर से ही जा <br />
मगर कहता हूं <br />
ना ना ना ना <br />
<br />
कोई जो बोले <br />
कि बोलो हां हां <br />
मगर कहता हूं <br />
ना ना ना ना <br />
<br />
ना ना ना ना <br />
ना ना ना ना </b></span><br />
<span style="color: #cc6600;"><i><b><span style="color: black;">(नोट - २३ मार्च २०१३ की भोर में टार्च की लाइट में लिखी कविता) </span></b></i><b><br />
</b></span>
</div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-60423039889156123412013-02-27T13:18:00.000+05:302013-03-03T22:24:26.538+05:30इस रास्ते पर बड़े-बड़े पुण्य - एक रिपोर्ट <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitQtZARiiWi2nZp5Qm9IRljrV7w9_FOSw0QzKHpalyF_-Wrr50IMETwPQG2oCB2F-3AjMqxhZKdDw46BvhUU2EgtF1Hc1VXJOswy_zvIB8o2WbunDf0VKyHsUF7A-3LrmYF4j8LXj1vhub/s1600/24pry116.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><br /></a></div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj0FIzz6vEhx-U1gNYu_PzKP_0Ysj-hzYwTAJoMH5EDeoR_OMCDf3d5Wuhfhhcwg1POsdrIhhx0bQUyVAvkGDTuvuEuKjXfIhSc_Zo50RYdGGuhahyphenhyphen1o-UOr6G8p25utN3ayrUSy4oPXq23/s1600/24pry108.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="160" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj0FIzz6vEhx-U1gNYu_PzKP_0Ysj-hzYwTAJoMH5EDeoR_OMCDf3d5Wuhfhhcwg1POsdrIhhx0bQUyVAvkGDTuvuEuKjXfIhSc_Zo50RYdGGuhahyphenhyphen1o-UOr6G8p25utN3ayrUSy4oPXq23/s1600/24pry108.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">संगम में डुबकी लगाने वालों का कुछ ऐसा था रेला। </td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: center;">
<b>डेटलाइन - कुंभनगर-इलाहाबाद (२४ फरवरी २०१३) </b></div>
<br />
पुण्य का मेला, आस्था का सैलाब। हर डगर, हर राह पर श्रद्धालुओं का रेला।
जिधर देखिए, उधर लंबी-बहती कतार, बहुत-बहुत दूर तक। रुकने का कोई नाम नहीं
ले रहा। मजबूत संकल्प कि माघी पूर्णिमा पर लगा लें गंगा-संगम की डुबकी।
कैसे भी। भाग कर, दौड़ कर, मिन्नतें कर या हो जाए कोई जुगाड़। आशंका कि इतनी
भीड़, न जाने कितनी और ऐसे में हो पाएगा स्नान.. निर्विघ्न! मगर, आस्था के
इस रास्ते पर यह सब खत्म। घाट से पहले रेले के साथ दौड़ रहे कई-कई पुण्य
प्रयास, जो कर रहे विभोर, जो डुबा ले जा रहे श्रद्धा के असीम सागर में।<br />
<br />
शास्त्री पुल का झूंसी की तरफ का हिस्सा या अलोपी बाग का। वाराणसी-पटना से
आने वाले यहीं से शामिल हो जाते हैं आस्था के सैलाब में। मिलेंगे
वर्दीधारी, रोकने वाले। इधर से नहीं, उधर से जाएं। सोचते लोग किधर से
जाएं। भीड़ की रेलमपेल। मगर, घबराने की बात नहीं, पुण्य दौड़ रहा है। रास्ता
बताने वाले एक नहीं हजार मिल जाएंगे। उसी पुलिस वाले से दोबारा पूछ लीजिए।
कैसे किधर से जाना है, कितनी दूर है, वह पूरा नक्शा बता देगा, बता रहा है।
मैंने बधाई दी, पुलिस वाले का जवाब था, ड्यूटी है साहब, अपना तो यही पुण्य
है।<br />
<br />
शनिवार अपराह्न करीब तीन बजे। स्थान वहीं शास्त्री पुल। इलाहाबाद की बगल
के ही किसी गांव की महिला। होश फाख्ता, उड़ा चेहरा। स्नान कर लौटने के
दौरान पति से छूट गया था साथ। बेचैन थी। कभी पुल से नीचे झांकती, कभी सड़क
को नापती। एक सज्जन बढ़ गए उसकी ओर। पूछा, क्या बात है। फिर पूछा, पति के
पास मोबाइल है, नंबर याद है? महिला ने बताया, उन्होंने अपने मोबाइल से कॉल
लगाई, बात कराई और आगे बढ़ गए। मैंने उन्हें लपका। कुछ पूछता इसके पहले ही
बोलने लगे, कोई बड़ा काम नहीं किया साहब. आजकल कॉल रेट सस्ता है। महज डेढ़
रुपये में मिल गया न उसका पति, ईश्वर सबको खुश रखे।<br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitQtZARiiWi2nZp5Qm9IRljrV7w9_FOSw0QzKHpalyF_-Wrr50IMETwPQG2oCB2F-3AjMqxhZKdDw46BvhUU2EgtF1Hc1VXJOswy_zvIB8o2WbunDf0VKyHsUF7A-3LrmYF4j8LXj1vhub/s1600/24pry116.jpg" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitQtZARiiWi2nZp5Qm9IRljrV7w9_FOSw0QzKHpalyF_-Wrr50IMETwPQG2oCB2F-3AjMqxhZKdDw46BvhUU2EgtF1Hc1VXJOswy_zvIB8o2WbunDf0VKyHsUF7A-3LrmYF4j8LXj1vhub/s1600/24pry116.jpg" width="197" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">विकलांग को संगम में डुबकी दिलाने ले जाते उसके परिवारीजन</td></tr>
</tbody></table>
<br />
मेला क्षेत्र में लगातार लाउडस्पीकर चालू है। कभी महिला तो कभी पुरुष की
आवाज आती है। गाजीपुर के गुड्डू तिवारी, आपका बच्चा भूले-भटके शिविर में
है, आ जाइए। मुजफ्फरपुर के मुरियारी के वासुदेव सिंह, आपके परिवारी जन दो
घंटे से आपका इंतजार कर रहे हैं, कानपुर के कमलेश, अलीगढ़ के विश्वकर्मा
..। किसी कमरे में बंद होकर इस आवाज को सुनिए और सड़क पर इसका असर देखिए,
आस्था की राह में पुण्य का यह सफलतम प्रयास ही तो है!<br />
<br />
शनिवार रात भर की रिमझिम के बाद रविवार सुबह करीब साढ़े नौ बजे का समय।
बादलों की आंखमिचौली के बीच सूरज झांकने लगा था। इसी के साथ मेला क्षेत्र
में होने लगी थी श्रद्धा की बारिश। रेले की रफ्तार आस्था की राह पर कदमताल
कर रही थी। दोनों पैरों से लाचार एक किशोर घसीटता संगम घाट की ओर बढ़ा जा
रहा था। अजीब दृश्य। इसके पीछे एक ही बैग को थामे चल रहे थे एक बुजुर्ग और
एक शर्ट-पैंट धारी सज्जन। गांव-नाम से फर्क नहीं पड़ता, पर जिज्ञासा उनकी
ओर खींच ले गई। दोनों सज्जन इस विकलांग को पुण्य की डुबकी लगाने लाए थे।
भई वाह! दोनों उसे कंधे से लेकर जाना चाह रहे थे और वह घसीट कर घाट जाने
में ही खुश था।<br />
<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtANwc9uvcxHhqpEbFehGVE1tSFs0SaGdMxRsblEBroXpn465cRspj4rI9_rQs-IwBXDhOwuH_zK69uGMwA9YBA4rTLzkNao25pfcErmL3tgfg0pnFKy2LQriERfWFsLpzOkqnlvXRKMav/s1600/24ald-pg251-0.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtANwc9uvcxHhqpEbFehGVE1tSFs0SaGdMxRsblEBroXpn465cRspj4rI9_rQs-IwBXDhOwuH_zK69uGMwA9YBA4rTLzkNao25pfcErmL3tgfg0pnFKy2LQriERfWFsLpzOkqnlvXRKMav/s320/24ald-pg251-0.jpg" width="199" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">दैनिक जागरण के २५ फरवरी का कुंभनगर संस्करण।</td></tr>
</tbody></table>
और संगम घाट। हर किसी को स्नान की हड़बड़ी। जल्दी नहा लें, कहीं फिसल न
जाएं, कितना होगा पानी। पर यह क्या.. बगल वाला संभाल रहा है, बता रहा है,
थाम रहा है, उतार रहा है पानी में और बाजू थाम कर निकाल भी रहा। एक महिला
घाट पहुंचने की जल्दबाजी में फूल नहीं ला पाई। वह इसका जिक्र कर थी पति
से। पति अभी मुड़कर जाने ही वाला था फूल लाने कि बगल की महिला ने अपने
फूलों से कर लिया हिस्सा। आगे खुद ही समझाने लगी, भीड़ में ज्यादा इधर-उधर
न करो, गुम हो जाओगे..। काश, पुण्य प्रयास का यह रास्ता कुंभ नगर से देश
भर की डगर करता..!</div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-57652214935371441642012-12-31T20:21:00.001+05:302012-12-31T20:58:13.894+05:30आओ हे अधुनातन, रो रहा है कण-कण <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मुबारक हो ... फिर आया नया साल ...<br />
<br />
<br />
नया आकाश हो ... नया विहान ...<br />
<br />
नई आकांक्षा ... नया वितान ... <br />
<br />
जो बीत गया...<br />
जो छूट गया .....
<br />
<br />
एक अर्पण, एक तर्पण
<br />
ना गुंजन, ना सृजन
<br />
रो रहा है कण-कण...
<br />
<br />
अंधेरा घना, लहू से सना
<br />
प्रत्यंचा तना, हंसना मना<br />
रो रहा है कण-कण ...
<br />
<br />
बच्ची ने सच्ची कर दी
<br />
जान की कच्ची कर दी
<br />
<br />
इज्जत कुर्बान कर के
<br />
आन को सान दिया
<br />
<br />
जाओ हे पुरातन
<br />
तुम जल्दी जाओ
<br />
<br />
आओ हे अधुनातन<br />
तुम जल्दी आओ<br />
<br />
रो रहा है कण-कण...<br />
<br /></div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0India20.593684 78.962880000000041-8.5680234999999989 37.654286000000042 49.7553915 120.27147400000004tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-66489567495223895202012-11-23T20:17:00.002+05:302012-11-23T21:09:22.171+05:30एक राज लौटते हुए<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="color: black;">
<b>राज है कि पथिक घर आया, ठहरा और एक सर्द अफसाने के साथ भोर के धुएं में जर्द हो गया।<br /><br />राज है कि रात जो काली थी, डूबी थी अंधेरे की गर्त में, उसकी सुबह हो गई, दमक गई, चमक गई। <br /><br />राज है कि न उसने कुछ बोला, न पथिक ने, मगर रात भर बातें होती रहीं, सुबह तो दोनों थक गए। <br /><br />राज है कि जब सांकल बजा था तो कौन चौंका था, कौन उठा था और किसने दरवाजा खोला था। <br /><br />राज है कि सांकल बजा भी था या नहीं, दरवाजा खुला भी था या नहीं, बाहर कोई था भी या नहीं।<br /><br />राज है कि एक गर्मी आई थी, टकराई थी और उफ-आह के साथ चिपक गई थी दरवाजे से।<br /><br />राज है कि होंठ बढ़े, सांसें टकराईं, सूनी दास्तां, खूनी दास्तां, अंधेरे से शुरू, अंधेरे में खत्म।<br /><br />राज है कि सुबह आई, और भी आएंगी, पर रात लंबी हो गई, न बीती, न बीतेगी, नहीं, नहीं बीतेगी।<br /><br />राज है कि जाते हुए पथिक को दो जोड़ी आंखें रोक रही थीं, लब खामोशी की चादर ओढ़े थे।<br /><br />राज है कि एक चेहरा बोल रहा था, पथिक सुन रहा था, कान जर्द थे और हृदय सर्द था। <br /><br />राज है कि ठिठुरती जिंदगी कैसे कांपती टांगों के साथ भोर के धुएं में रफ्ता-रफ्ता खो गई थी। <br /><br />राज है कि फिर पथिक कभी क्यों रास्ता नहीं भटका, कैसे बन बैठा वह इतना सावधान। <br /><br />कैसे, राज है, है न राज?</b></div>
</div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-24304222895318008632012-11-12T23:40:00.004+05:302012-11-24T14:08:38.602+05:30जरा दीये जलाना... <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b><span style="font-size: small;"><span style="color: #3333ff;">एक बाती </span></span></b><br />
<b><span style="font-size: small;"><span style="color: #3333ff;"></span></span></b><br />
<b><span style="font-size: small;"><span style="color: #3333ff;">ओ साथी
</span><span style="color: black;"> </span></span></b><br />
<b><span style="font-size: small;"><span style="color: black;"></span></span></b><br />
<b><span style="font-size: small;"><span style="color: black;">अंधेरा घना है</span><br />
<span style="color: red;">जरा दीये जलाना </span><br />
<span style="color: #999999;">जरा हाथ बढ़ाना </span><br />
<span style="color: #cc6600;">अंगुलियों के रास्ते </span><br />
<span style="color: #336666;">संभलकर </span><br />
<span style="color: #000099;">घिसना <br />
</span>
<span style="color: #cc9933;">तीलियां </span><br />
<span style="color: #cc33cc;">माचिस की </span><br />
<span style="color: #663333;">जिन्हें जल जाना है
<br />
</span>
<span style="color: #009900;">जिन्हें जल कर भी </span><br />
<span style="color: #993399;">दीया जलाना है </span><br />
<span style="color: #990000;">एक बाती </span><br />
<span style="color: #3333ff;">ओ साथी </span><br />
<span style="color: red;">जरा दीये जलाना </span><br />
<span style="color: #999999;">जरा हाथ बढ़ाना ....... </span></span></b><b><big><big><span style="color: #999999;"><br />
</span></big></big><span style="color: #3333ff;">दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाओं
के साथ। </span></b></div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-90563257716576611882012-11-11T20:22:00.000+05:302012-11-24T14:08:54.697+05:30धन बरसे गगन बरसे <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjxlNz7KkmjfrZGy8eTtN50J4-ZHza22pArM3gaNqJqozLiIvIwymIiW3e-EY_OMRzKm1pNKU6IBRIr2HuuMcN-NfIqa7LW0VkdMWJ8_VUqKSVinGTEESfDUH59BtgEqmLchtCxOCiXRx92/s1600/dhan-1.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="212" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjxlNz7KkmjfrZGy8eTtN50J4-ZHza22pArM3gaNqJqozLiIvIwymIiW3e-EY_OMRzKm1pNKU6IBRIr2HuuMcN-NfIqa7LW0VkdMWJ8_VUqKSVinGTEESfDUH59BtgEqmLchtCxOCiXRx92/s1600/dhan-1.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b style="color: red;">बनारस के सुड़िया में स्थापित यह हैं भगवान धन्वंतरि। </b> </td></tr>
</tbody></table>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;"></span></b><br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiV0S1CbW1p-Vyef8NZVKpUKxqkRMvgv40LrdWKxO6yTfNyWmTnPGe7MFM9frdjco1XDKqu1M6LoUkLzypz-sEV0p8X_3eFajgG6yvRABDlw4zSCbGqY5dPBT_AuGnIQAfKxWvOTaWayw9Z/s1600/dhan-2.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="213" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiV0S1CbW1p-Vyef8NZVKpUKxqkRMvgv40LrdWKxO6yTfNyWmTnPGe7MFM9frdjco1XDKqu1M6LoUkLzypz-sEV0p8X_3eFajgG6yvRABDlw4zSCbGqY5dPBT_AuGnIQAfKxWvOTaWayw9Z/s1600/dhan-2.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b style="color: red;">अहा, बनारस में माता अन्नपूर्णेश्वरी की यह स्वर्ण प्रतिमा, कितना मनोरम!</b> </td></tr>
</tbody></table>
<b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;"></span></b><br />
<b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;">धन
बरसे</span></b><b><span style="color: #990000;">, </span></b><br />
<b><span style="color: #990000;"></span></b><b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;">तन बरसे</span></b><b><span style="color: #990000;"> <br />
</span></b><b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;"> </span></b><br />
<b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;">थोड़ा-थोड़ा
बरसे </span></b><br />
<b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;"></span></b><br />
<b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;">मन बरसे</span></b><b><span style="color: #990000;"> </span></b><br />
<b><span style="color: #990000;"><br />
</span></b><b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;"></span></b><br />
<b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;">बरसे बरसे</span></b><b><span style="color: #990000;"> <br />
</span></b><b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;">गगन बरसे</span></b><b><span style="color: #990000;"> <br />
</span></b><b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;"> </span></b><br />
<b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;">मगन बरसे</span></b><b><span style="color: #990000;"> <br />
</span></b><b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;">लगन बरसे</span></b><b><span style="color: #990000;"> <br />
</span></b><b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;"> </span></b><br />
<b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;">आग लगे
पानी </span></b><br />
<b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;">में</span></b><b><span style="color: #990000;">
</span></b><b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;">अगन बरसे</span></b><b><span style="color: #990000;"> <br />
</span></b><b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;"> </span></b><br />
<b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;">धनतेरस का दिन </span></b><b><span style="color: #990000;">है <br /> </span></b><b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;">भुवन
बरसे</span></b><b><span style="color: #990000;">, </span></b><br />
<b><span style="color: #990000;"> </span></b><b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;">भुवन बरसे</span></b><b><span style="color: #990000;">, </span></b><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<b><span style="color: #990000;"> </span></b><b><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;">भुवन बरसे</span></b><b><span style="color: #990000;"> ...... </span></b><br />
<b><span style="color: #990000;"> </span></b><br />
<b><span style="color: #990000;"><span style="color: blue;">धनतेरस पर ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ..... </span></span></b></div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-71304196874335063022012-10-28T00:52:00.000+05:302012-10-28T01:08:57.914+05:30खबर वह जो खबरदार करे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>आइए लेते हैं खबरों की खबर - २ </b><br />
<br />
एक लंबा समय बीता। ब्लॉग पर नजर गई। लगा कि जो शुरुआत की थी, वह ठीक थी,
प्रेरक थी और जिस पेशे में हूं, उसके सम्मान के लिए थी। गैप आया, गड़बड़
हुई। सो, इसी सिलसिले की रफ्तार के साथ फिर सामने हूं। <br />
<br />
तो साहब, बात हो रही थी खबरों की। जब भी आप खबरों की बात करेंगे तो सबसे
बड़ा सवाल यही आकर आपके सामने खड़ा हो जाएगा कि आखिर खबर क्या है? कोई
कहता है हर सूचना खबर है। कोई कहता है हर सूचना खबर नहीं होती।
अंग्रेजीदां समझाते हैं, जो न्यू है वह न्यूज है। लो, फंस गया मामला। उस
पर भी तुर्रा यह कि अखबारों की नीतियों के मुताबिक, संपादकों के विचारों
के मुताबिक खबर की परिभाषा भी रोज-रोज बदलती रहती हैं। <br />
<br />
क्रिमिनल माइंडेड संपादक से पाला पड़ गया तो क्राइम की खबरें, सूचनाएं
लहराने लगती हैं। बाकी सब बेकार। साहित्यकार या रसिक मिजाज संपादक मिल गया
तो क्राइम की खबरें सबसाइड। ये भी कोई खबर है। साहित्य पर पन्ने निकलने
लगेंगे, साहित्यकारों के आलेख बाइलाइन छपने लगेंगे, नृत्य कला की माधुरी
किसी भी पन्ने पर रस बिखेरने लगेगी। किसी न्यूट्रल संपादक (किसी गुरु का
चेला) के सिरे में हुए तो औऱ भी मुश्किलें हैं। वो करेगा कुछ नहीं, बस हर
खबर की परिभाषा बताएगा और आप खबर छाप कर भी बेचैन रहेंगे कि कोई ऐसी चीज
तो नहीं छाप दी जो खबर नहीं है। अपना ज्ञान तो भूल ही जाएंगे।<br />
<br />
तो सवाल है कि खबर क्या है? आइए, विचार करते हैं। जेनरिक फार्मूला - हर
सूचना खबर नहीं होती, जबकि हर खबर में सूचना जरूर होती है। एक खबर में कई
सूचनाएं हो सकती हैं। यानी सूचनाओं के संग्रह से उपजा हुआ आइटम ही खबर है।
इसे अच्छी तरह समझ लें। हर सूचना खबर होती तो सोशल साइट्स पर नजर फेरिए,
गूगल को वाच कीजिए, वहां तो सूचनाओं का अंबार लगा है। क्या वे सभी खबरें
हैं? नहीं, खबरें होतीं तो गूगल अखबार होता। तो जहां सूचनाओं के संग्रह का
काम समाप्त होता है, वहां से खबरों के निर्माण का काम शुरू होता है। यानी
जहां से गूगल का काम खत्म वहां से पत्रकारिता शुरू। कोई कंफ्यूजन, कोई शक?
<br />
<br />
अब एक औऱ बात। जेनरिक से थोड़ा ऊपर, थोड़ा मैच्योर्ड। खबर वह जो खबरदार
करे। जो बीती बातों की जानकारी तो दे ही, आगे पर भी प्रकाश डाले। अब
एजुकेशन की एक खबर बना रहे हैं। किसी परीक्षा की कोई तारीख छाप रहे हैं।
इस खबर में परीक्षा से जुड़ी सारी संभावनाओं पर विचार किया जा सकता है।
फार्म भरने से लेकर परीक्षा की तैयारियों तक। आजकल के परिप्रेक्ष्य में एक
पहलू यह भी देखा जा सकता है कि जो तिथि घोषित की जा रही है, उस तिथि पर
परीक्षा का हो पाना संभव है या नहीं? क्या उस दौरान किसी बड़े आंदोलन की
कोई पूर्व घोषणा तो नहीं है? कहीं किसी चुनाव की कोई शेड्यूलिंग तो नहीं
है? हां, तब यह छोटी सी सूचना बड़ी खबर बन सकती है और बनाने वाले होंगे
आप। यह खबर पढ़ने वाले को खबरदार करेगी। <br />
<br />
खबरों का एक और मिजाज है। हर खबर किसी न किसी समूह को कनेक्ट करती है।
आपकी खबर किस समूह को कनेक्ट करती है, यह देखना आपका काम होगा। कनेक्ट
करती है तो खबर है, नहीं करती है तो खबर नहीं है। इस कनेक्शन में आपका
मिजाज नब्बे फीसदी रिजेक्शन का होना चाहिए। जब ९० को रिजेक्ट कर १० को
सेलेक्ट करने की प्रवृत्ति डालेंगे तो खबर सामने आएगी। क्यों, क्योंकि खबर
कई प्रकार में आपके सामने आ सकती हैं, आती हैं। एक अपने मूल रूप में,
दूसरे फालोअप के रूप में, तीसरे इंपैक्ट के रूप में, चौथे आपकी प्लानिंग
के रूप में (न्यूज बिदिन न्यूज)। एक रूप एक्सक्लूसिव का भी है, एक खोजी
भी। एक कार्यक्रम है तो एक डेट वैल्यू आयोजन। <br />
<br />
ध्यान रहे, खबरों के गठन में, उसके निर्माण में खबरों को पहचानने का
नजरिया बड़ा काम आता है। यानी रिपोर्टर का नजरिया। अखबार की नीतियां और
संपादक का नजरिया एक तरफ और रिपोर्टर का नजरिया एक तरफ। क्या मजाल जो
स्पॉट पर गया व्यक्ति जिस खबर को पहचान ले और लिख मारे, उसे कोई संपादक
पकड़ ले, उसे किसी अखबार का नजरिया पकड़ ले। एक शराबी रात में नशे में घर
में गिर गया औऱ बेहोश हो गया। उसकी पत्नी ने मदद के लिए मोहल्ले के कई
दरवाजे खटखटाए। मदद नहीं मिलने पर उसने पति को साइकिल पर लादा और अपनी
बच्ची की मदद से नर्सिंग होम ले गई। वहां भी किसी ने केयर नहीं किया तो वह
दूसरे अस्पताल की ओर दौड़ी। आखिर में उसका पति मर गया औऱ इतनी सी सूचना
रिपोर्टर के हाथ लगी। <br />
<br />
अब देखिए, रिपोर्टर का नजरिया। उसकी खबर का शार्षक था, शहर की संवादनाएं
समाप्त। खबर की बॉडी नारी सशक्तीकरण पर नहीं थी, बल्कि भावनाओं से ओतप्रोत
संवेदनाओं को झकझोर रही थी। एक महिला अपने पति को साइकिल पर लादकर रात भर
दौड़ती रही और पूरे शहर में एक हाथ मदद को सामने नहीं आया। मोहल्लावासियों
से लेकर नर्सिंग होम तक को खंगाल देने वाली खबर थी यह। और विश्वास मानिए,
अगले दिन उस महिला की मदद को पूरा शहर दौड़ पड़ा। पति के मरने के बाद
बेसहारा हुई इस महिला के लिए खबर कितना बड़ा सहारा बन कर आई, यह कल्पना की
जा सकती है। <br />
<br />
खबर क्या है और खबर किसे कहते हैं, इस पर अभी और बातें होंगी। फिलहाल इतना
ही। हां, इस पोस्ट की आखिरी बात यह कहना चाहूंगा कि अब खबर सिर्फ खबर
नहीं होती। इस भूल में पड़े तो बड़ी भूल हो जाएगी। खबर में लिखावट होती
है, बुनावट होती है, संभावना होती है, प्रेरणा होती है। और यह सब कुछ है
तो वह खबर है। <br />
<br />
<br /></div>
Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1781278690963475523.post-67471731386143584742011-12-31T22:51:00.002+05:302011-12-31T22:54:30.886+05:30कहिए मुबारक हो नया साल<span style="color:#cc33cc;"><strong><em>कीजिए स्वागत, </em></strong></span><br /><strong><em><span style="color:#3333ff;">फिर आया नया साल,<br /></span><span style="color:#ff6600;">कहिए मुबारक हो,</span> </em></strong><br /><strong><em><span style="color:#cc0000;">मुबारक हो नया साल।</span><br /></em></strong>Kaushal Kishore Shuklahttp://www.blogger.com/profile/12277773294643772968noreply@blogger.com0