बारह साल हो गए। ...झाबुआ, धार, बड़वानी की यात्रा में वह हमारे साथ था। नमॆदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) के दल का वह एक सदस्य था। मैं भी उस दल के साथ था। दल में कई अन्य लोग थे। पर अब भी मुझे लोहारिया, उसकी बातें अक्सर याद आती हैं। बाकी लोगों की भी स्मृति खत्म नहीं हुई। लेकिन वे अलग से याद नहीं आते। लोहारिया के साथ ही याद आते हैं।
मुझे लगता है कि लोहारिया को देखकर यह तय किया जा सकता है कि कोई व्यक्ति अधिकतम कितना धैयॆ रख सकता है। एनबीए का दल नमॆदा बांध से विस्थापित लोगों को उनकी डूबी हुई या छीनी गई जमीनों के बदले सरकार की ओर से दी जा रही जमीनें देखने के लिए गया था। सरकार की ओर से ही यह व्यवस्था की गई थी। गांव-गांव जमीनें देखी जा रही थी। जमीनों की पड़ताल की इस कवायद में बारह दिन लगे। पूरे बारह दिन मैंने उसे लगभग एक ही मुखमुद्रा में देखा।
उसके चेहरे पर हमेशा पसरा रहने वाला आत्मसंतोष उसे औरों से अलग करता था। तमाम लोगों की तरह उसे भी पता था कि पथरीली जमीनों को बसने और खेती लायक बताकर ये अफसर झूठ बोल रहे हैं। एनबीए के बाकी लोग झुंझलाते थे। बहस करते थे। लड़ पड़ते थे नमॆदा विकास प्राधिकरण के अफसरों से। पर ऐसे में भी लोहारिया की भाव-भंगिमा नहीं बदलती। बस वह सिफॆ सुनता और देखता था। एक दिन मैंने उससे बातचीत की। उसने मुझे अपने बारे में बताया। नमॆदा बांध के पास ही उसकी लगभग आठ एकड़ जमीन थी। अच्छी फसल होती थी। पक्का मकान था। बांध बनने से जमीन-मकान सब डूबने का खतरा पैदा हो गया। सरकार ने उसके गांव को भी खाली करने का आदेश दिया। पर कोई इतनी आसानी से पुश्तैनी घर और जमीन कैसे छोड़ दे। लेकिन जीते जी कोई डूब भी तो नहीं सकता। ऐसे में घर के बदले घर, जमीन के बदले की मांग उसने भी की। सबकी तरह उसने भी कह दिया- जब तक ऐसा नहीं होता, डूब जाएंगे पर गांव नहीं छोड़ेंगे। लेकिन सरकारें आसानी से कुछ देती कहां है। सो वह भी हक की लड़ाई के लिए नमॆदा बचाओ आंदोलन के साथ हो गया।
उसकी जमीन, घर डूबने का खतरा था। जाहिर है वह बड़ी विपत्ति में फंसा था। लेकिन उसे देखकर कतई यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता था कि वह किसी मुसीबत में है। उसे स्थिति की गंभीरता का भी अंदाजा था। वह जानता था कि जल्द वह बेघर होने वाला है। सरकार ने वक्त पर जमीन और मुआवजा नहीं दिया तो उसे बूढ़े मां-बाप के साथ दर-दर भटकना पड़ सकता है। फिर भी वह और की तरह नहीं झुंझलाता। औरों की तरह माथे पर हाथ रखकर बैठा नहीं रहता।
इंसानी फितरत की एबीसी जानने वालों के लिए भी लोहारिया की ये बातें उसके प्रति उत्सुकता जगाती थी। उसका यह रूप देखकर मेरे मन में भी कई सवाल उठे थे। आज भी उठते हैं। क्या इसे ही धैयॆ कहते हैं? या इसे अगंभीरता कहेंगे? या फिर उसे कायर कहेंगे कि वह मुखर नहीं होता। बोलने से डरता है? लेकिन धैयॆ को छोड़कर कोई और जवाब लोहारिया पर फिट नहीं बैठता। वह अपनी समस्याओं के प्रति अगंभीर होता तो नमॆदा बचाओ आंदोलन के साथ नहीं जाता। वह डरता तो सबसे पहले किसी दिन अचानक डूब जाने के खतरे से डरता। नासमझ होता तो इतनी सुलझी हुई बातें नहीं करता।
तब तेईस साल के लोहारिया का कहना था कि चीखने-चिल्लाने या झल्लाने से मेरी समस्याएं नहीं सुलझेंगी। हमें पता है कि झूठ बोलते ये अफसर भी अपनी ड्यूटी पूरी कर रहे हैं। सरकार इन्हें यही कहने की तनख्वाह दे रही है। मैं भी तो अपना काम कर रहा हूं। एनबीए के साथ हूं। फिर मैं इनसे क्यों उलझूं।
पता नहीं अब लोहारिया कहां है? क्या कर रहा है? उसके धैयॆ का पुरस्कार, उसके हक के रूप में उसे मिला या नहीं, मुझे यह भी नहीं पता।
पर आज भी जब कोई धैयॆ की बात करता है तो सबसे पहले मुझे लोहारिया की याद आती है।
Tuesday, February 24, 2009
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इसे तो धैर्य ही कहा जायेगा भाई लोहारिया का. बहुत उम्दा लेखन-सोचने को मजबूर करता.
ReplyDeleteपुरुषोत्तम जी, मैं फिर कहना चाहूंगा कि इतना अछ्छा लेख आप ही लिख सकते हैं। यह व्यक्तित्व विकास के लिए कवायद करने वाले लोगों के लिए भी काफी प्रेरणादायक दृष्टांत है। धैर्य के बारे में बोलते-सुनते-लिखते तो सभी हैं, पर आपके इस लेख से इस शब्द पर विचार करने का एक मार्ग भी प्रशस्त होता है।
ReplyDeleteइस लेख से प्रभावित हूं।
ReplyDeleteदिल को छू लेने वाली रचना और मिजाज पत्रकारिता वाला। वाह, मजा आ गया।
ReplyDeleteआदरणीय पुरुषोत्तम जी, लोहारिया को खोजा जाना चाहिए। उसका होना एक बड़ी बात को सिद्ध करेगा। - अनोज (अजमेर, राजस्थान)
ReplyDeleteEise lohariye hamne bhi dekhe hain.
ReplyDeleteप्रिय अनोज, वाकई लोहारिया को खोजा जाना चाहिए। यह जिम्मा तुम उठा लोग। रास्ता मैं बता सकता हूं। भोपाल में नमॆदा बचाओ आंदोलन के कुछ लोगों से संपकॆ कर सको तो लोहारिया का पता चल सकता है।
ReplyDeleteलोहारिया जहां भी हो...खुश रहे...यही मेरी शुभकामना है...अगर उसका पता चल जाए तो हम लोग मिलना चाहेंगे...लेकिन उसकी बातों ने उसे हमारे करीब कर दिया है...
ReplyDelete"चीखने-चिल्लाने या झल्लाने से मेरी समस्याएं नहीं सुलझेंगी। हमें पता है कि झूठ बोलते ये अफसर भी अपनी ड्यूटी पूरी कर रहे हैं। सरकार इन्हें यही कहने की तनख्वाह दे रही है। मैं भी तो अपना काम कर रहा हूं। एनबीए के साथ हूं। फिर मैं इनसे क्यों उलझूं।"
बिल्कुल ठीक. लोहारिया की बातों के साथ ही पुरुषोत्तम जी आपने मौजूदा व्यवस्था की ऐसी तस्वीर पेश की है...जैसे लगता है...कोई डॉक्यूमेंट्री देख रहा हूं...ब्लॉग पर टेक्स्ट नहीं पढ़ रहा हूं...
आपने ने नर्मदा पर तो काफी काम किया है...आपकी वह रिपोर्ट तो ऐसा 'डॉक्यूमेंट' है...कि अगर किसी को भी हकीकत से रू-ब-रू होना है तो उसे एक बार जरूर पढ़ना चाहिए...
पुरुषोत्तम जी,इस देश मै पता नही कितने लोहारिया जेसे लोग होगे ?मुझे तो एक लोहारिया की कहानी ने ही हिला दिया, ओर जिन पर व्यातीत हुआ उस का क्या हाल होगा. काश भगवान सब को सदबुद्दि दे, ओर हम सब इंसानो का दुख समझ सके.
ReplyDeleteधन्यवाद