मेरी समझ से छवि ऐसी होनी चाहिए कि यदि आपने हां कह दिया तो इसका मतलब हां ही हो। आपने हां कह दिया तो आगे यह लगना चाहिए कि आप इसे पूरा करने के लिए कोई प्रयास उठा नहीं रखेंगे। और यह छवि हर काम, हर चीज के लिए हां कहने से नहीं बनती। यह छवि तभी बनती है, जब आपको ना कहने की कला आती हो। जब तक आप ना कहने के लिए सेलेक्टिव नहीं होंगे, तब तक आपकी हां का कोई मतलब नहीं होगा। यह खयाल करने की बात है कि आपकी हां का पावर ना कहने से ही मजबूत होता है।
मेरे एक संकोची मित्र है। कभी किसी काम के लिए ना नहीं कहते और हां कहने के बाद बातों को याद भी नहीं रख पाते। लोगों को याद दिलाना पड़ता है कि उन्होंने फलां काम के लिए कभी हां कहा था। दोष उनका भी नहीं है। आखिर वे करें तो क्या करें? जब ढेर सारे काम के लिए उन्होंने हां कह रखी है, तो आखिर वे किस-किस काम को करने की जहमत उठायें। आखिर आदमी के काम करने की भी अपनी सीमा है। सीमा से बाहर जाकर काम किया तो जा सकता है, लेकिन उसकी भी एक सीमा होती है। वे हमेशा परेशान तो दिखते हैं, पर कभी किसी को संतुष्ट नहीं कर पाते। दूसरों को तो छोड़िए, खुद को भी नहीं कर पाते। एक दिन बड़ी शिद्दत से वे कह रहे थे-अब कोई काम के लिए हां कहने से पहले सोचूंगा, तय करूंगा, खुद को नापूंगा और लगा कि कर पाऊंगा तभी हां कहूंगा। उनकी बात मैं भी कहना चाहूंगा। यदि आप अपने व्यक्तित्व में डायनमिक डेवलपमेंट चाहते हैं तो जरा हां-ना में फर्क कीजिए और कभी-कभी ना भी जरूर कीजिए। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी।
औकात आनुपातिक सेंस है। किसी के सामने आपकी कुछ औकात नहीं तो जिसके सामने आपकी कुछ औकात नहीं, उसकी भी किसी के सामने कुछ औकात नहीं।
बिल्कुल सही। ना कहना सीखना बहुत आवश्यक है परन्तु काम कठिन है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
संकोची व्यक्तित्व वाले तो हां कहकर फंस जाते हैं....पर बहुत लोग हां हां कहते हुए लोगों को ही फंसाए रहते हैं.....दोनो पकार के लोग मिलते हैं इस दुनिया में।
ReplyDeleteहम ’ना’ नहीं कह पाते और हमेशा परिणाम भुगतते हैं..अच्छा आलेख.
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