मेरे एक दोस्त हैं, मेरी उम्र से लगभग सात-आठ साल बड़े। बात भी सात-आठ साल पहले की है। बातचीत के मामले में हम एक दूसरे के काफी करीब थे। दफ्तरी मुकाम के दौरान पंद्रह-बीस मिनट के वकफे में हम साथ-साथ चाय पीते थे, पान खाते थे। लौट कर आते थे तो फिर नये मिजाज के साथ काम शुरू करते थे। एक दिन चाय सेशन में ही उनसे सेक्स और ह्यूमन बीईंग पर कुछ डिस्कशन होने लगी। बात तो हम दुनियावी कर रहे थे, पर उनका रुख व्यक्तिगत हो गया और एकाएक वे मानो बैकग्राउंड में चले गये। कहने लगे, क्या कहूं शुक्लाजी, उम्र बढ़ रही है, ज्ञान भी कुछ कम नहीं है, पर महिलाओं को देखते ही मिजाज बहकने लगता है। मैं चाहता हूं कि मेरे में महिलाओं को देखकर मातृत्व भाव आये, पर यह नहीं आ पाता है। मेरी नजरें उनके नाजुक अंगों को ही निहारने में खो जाती हैं। कभी-कभी तो इन नजरों की वजह से तब शर्मसार होना पड़ता है, जब मेरी नजरों का मतलब सामने वाली ताड़ जाती हैं। मैं क्या कहता? मैंने कहा, सर, आप इस चीज को लेकर चिंतन कर रहे हैं, .यही सुधार का लक्षण है। अच्छा संकेत है, इस पर सोचते रहिए, शायद मुक्ति का मार्ग मिल जाये। अब तक उनको लेकर कोई सेक्स स्कैंडल खड़ा नहीं हुआ, इसका मतलब है कि वे चेत गये, संभल गये और महिलाओं को देखकर उनमें मातृत्व भाव आने लगा, ऐसा माना जा सकता है।
इस प्रकार का एक निजी अनुभव पढ़ाना चाहूंगा। चार-पांच साल पहले एक मकान में ऊपर नीचे हम और एक मित्र रहते थे। टायलेट कम बाथरूम कामन था और नीचे था। मुझे उसके इस्तेमाल के लिए नीचे उतरकर यह देखना पड़ता था कि वह खाली है भी या नहीं। मित्र अपनी पत्नी के साथ रहते थे। कपड़ा धोने व बर्तन मांजने के लिए उन्होंने एक बाई लगा रखी थी। बाई जवान थी। कपड़े वह बाथरूम में धोया करती थी, इससे टायलेट भी इंगेज होता था। एक दिन मैं एक दफे नीचे उतरकर बाई को कह चुका था कि बाथरूम थोड़ा जल्दी खाली कर दे और ऊपर आ गया था। तकरीबन आधा घंटे बाद जब मैं फिर नीचे गया तो वह कपड़े साफ कर ही रही थी। मैं उसे बाहर निकलने और फिर बाद में कपड़े धो लेने के लिए कह रहा था। तभी मित्र कमरा खोलकर बाहर निकल आये और उन्होंने जिन नजरों से मुझे देखा, उन नजरों की छाप आज भी मेरे हृदय में अंकित है। उनकी नजरें साफ-साफ मेरे ऊपर इल्जाम लगा रही थी। कह रही थी कि अच्छा तो अब आप इस पर उतर आये हैं यानी बाई से आंखमिचौली! उन स्थितियों से बचके मैं अपनी छवि कैसे मित्र के सामने साफ कर पाया, यह दूसरा मसला है, लेकिन इतना जरूर है कि मशक्कत मुझे करनी पड़ी।
तीसरी घटना, एक सहकर्मी को लेकर है। महिलाओं के प्रति वे सदा से नरम मिजाज थे। लड़की देखी कि उसे लगते दुलारने-पुचकारने और सहानुभूति दर्शाने। धीरे-धीरे वे उसके करीब पहुंच जाते और कभी-कभी तो स्पर्श सुख लेते हुए बालों तक पर हाथ भी फिरा देते। पूरे दफ्तर में उनका सम्मान था। विद्वान थे। एक कालेज में एडहाक लेक्चरर के रूप में काम भी कर रहे थे। एडहाकी से पैसे नहीं मिल रहे थे, इसीलिए पत्रकारिता कर रहे थे और ठीक-ठाक कर रहे थे। मालिकान का भी भरोसा उनके प्रति कायम था। दिनकर, निराला, पाश, दुष्यंत की रचनाएं उनकी जुबान पर होती थी। एक दिन मामला गड़बड़ाया। एक लड़की उनकी हरकतों, बात-बात में बाल सहलाने की आदतों से भड़क गयी। अब तो पूछिए मत कि आगे दफ्तर में उनका क्या सम्मान रह गया। पूरे व्यक्तित्व पर पानी फिर गया था। सेक्सुअल हैबिट्स की ये तीन घटनाएं महज बानगी के रूप में ली जायें। मान-अपमान को पारिभाषित करतीं ऐसी ढेरों कहानियां कही जा सकती हैं। समझने का मसला यह है कि व्यक्तित्व विकास में आपकी सेक्सुअल हैबिट्स काफी प्रभाव डालती हैं। इससे व्यक्ति तुरंत और मौके पर एक्सपोज होता है और एक बार एक्सपोज हो गया तो फिर संभलने या संवरने का बहुत मौका नहीं मिलता। व्यक्तित्व विकास में सेक्सुअल हैबिट्स पर अभी चर्चा जारी रहेगी। धन्यवाद।
इच्छाओं के पूरा होने से खुशी मिलती है, पर जो व्यक्ति इच्छाओं से ऊपर उठ जाये वह आनंद को प्राप्त हो जाता है।
और अगर सचमुच बचना है तो जूतापैथी का प्रयोग करें.
ReplyDeletehttp://iyatta.blogspot.com/2009/02/17.html
हरकतें जैसी होंगी अंजाम भी वैसा ही होगा
ReplyDeleteसिटीजन: दया और प्रेम की प्रतिमूर्ति स्वामी दयानंद सरस्वती जयंती अवसर : समाज सुधारक ही नही वरन आजादी के भी दीवाने थे ?
ReplyDeleteकौशल जी लगता है जो आप लिखना चाह रहे थे। वह लिख नहीं पाए। पता नहीं क्यों कुछ अधूरा सा लगता है।
ReplyDeleteIt is too good thinking. It is essential for all to implement in everyday life. Thanks.
ReplyDeleteAnoj
Ajmer
पुरुषोत्तमजी, आपने सही कहा। जमाने का खयाल रखना पड़ता है। आप जैसे मित्रों का भी। मगर, पता नहीं आपको यह अधूरा क्यों लगा? आखिर आप क्या चाहते थे? थोड़ा स्पष्ट करते तो बात आगे बढ़ती। हालांकि, इस मुद्दे पर अभी चर्चा जारी रहेगी। उम्मीद है, आगे की बातों से यह अधूरापन खत्म होता दिखे। आप मुझे पढ़ रहे हैं, इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। वर्ना कहां आप और कहां मैं!
ReplyDeleteकौशल जी दरअसल मुझे ऐसा लगा कि बात जब आपके निजी अनुभव की आई तो आप पूरी तरह उस खास दिन में चले गए। उस दिन का कड़वा अनुभव आपको सहजता से लिखने नहीं दे सका। व्यक्तित्व विकास के संदभॆ में दरअसल बात इसकी होनी चाहिए कि वैसी परिस्थिति आए तो क्या करें। क्या वैसे किसी अनुभव से खुद परेशान होने देना चाहिए, जिसमें आपकी नहीं बल्कि दूसरे की गलती हो। या फिर यह कि, वैसी परिस्थितियों में अपनी बात किस तरह रखी जाए। आपने यह भी नहीं बताया कि आपने क्या किया?
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