Saturday, February 21, 2009

ये सोच लेना फिर प्यार करना

आपने देखा होगा कि बैलगाड़ी चलाने वालों के लिए उतनी सावधानियों का ख्याल नहीं रखना पड़ता, जितनी एक साइकिल सवार को। आगे बढ़िए तो जितनी लापरवाही बैलगाड़ी चलाने वाला कर सकता है, उतनी साइकिल वाला नहीं कर सकता। यदि आप मोटरसाइकिल चला रहे हों तो लापरवाही करने की गुंजाइश साइकिल चलाने वाले की अपेक्षा कम हो जाती है। मोटरसाइकिल चालक से ज्यादा सतर्कता चार चक्के का वाहन चलाने वाले को रखनी पड़ती है। चार चक्के में छोटी गाड़ी और बड़ी गाड़ी के ड्राइवर की सतर्कता का अनुपात अलग-अलग होता है। और यदि आप हवाई जहाज उड़ा रहे हों तो आपसे उम्मीद की जाती है कि आपसे बिल्कुल ही लापरवाही न हो। इसे थोड़ा अलग अंदाज में समझने की कोशिश कीजिए। बैलगाड़ी चलाने वाले या साइकिल चलाने वाले ने यदि लापरवाही की तो उसे उसके पास सुधारने का समय रहता है, क्योंकि उसकी गति धीमी रहती है, उससे अपेक्षाओं का स्तर भी कमजोर होता है। वह थोड़ा बहक भी गया तो खतरे कम हैं, सुधारने के मौके अधिक हैं। मगर, सावधानी का स्तर मोटरसाइकिल या मोटरकार चलाने वाले के लिए बढ़ जाता है। हवाई जहाज उड़ाने वाले ने यदि थोड़ी सी भी लापरवाही की तो फिर उसके पास सुधारने का समय नहीं रहता। जब तक वह सुधारने की कोई कवायद भी शुरू करेगा, तब तक तो बहुत देर हो चुकी होगी। इसलिए उससे बिल्कुल लापरवाही की उम्मीद नहीं की जाती। इस बात को ह्यूमन बीईंग और सेक्सुअल हैबिट्स के मामले में विचार के लिए पेश करना चाहूंगा।
एक जमाना था. जब महिला और पुरुषों में साफ-साफ भेद का विचार समाज पर ऊपर और नीचे दोनों तरफ से हावी था। महिलाएं गृहशोभा की विषय-वस्तु समझी जाती थीं। उनका घर से बाहर पांव निकालना एक मुश्किल भरा काम दिख पड़ता था। जो बाहर निकलती भी थीं, वे लिंग भेद के अंतर के दबाव से साफ-साफ दबी दिखती थीं। यहां तक कि उनसे बात करना, उनके साथ संबंधों के खुलासे को लेकर एक आम संकोच का मामला हुआ करता था। नतीजा, लिंग भेदी ये दो जीव साथ में रहकर, बैठकर, काम कर भी अलग-अलग, दूर-दूर ही दिखते थे। पूरा माहौल भाभी-दीदी-आंटी आदर, सम्मान और सामाजिक विचारों से ओतप्रोत हुआ करता था। दफ्तरों में एकाध दो महिलाओं के दर्शन हो जायें तो बड़ी बात थी। उस पर भी तुर्रा यह कि शाम के चार-पांच बजे तक तो वे घर भाग ही पड़ती थीं। खतरे कम थे। अब? माहौल बदला है। सड़कों पर, बाजारों में, दुकानों में, दफ्तरों में, पोस्टरों में, पत्रों में, विज्ञापनों में, जहां देखिए वहां, इनकी संख्या बढ़ी है। सहभागिता बढ़ी है। इतना ही नहीं, अभी और बढ़ेंगी क्योंकि इसके बढ़ने का सिलसिला जारी है, डिमांड बढ़ी है, जरूरत दिख रही है। कभी किसी महिला ने किसी से हंसकर बात कर ली, नजरें मिला लीं तो वह वर्षों प्यार के तराने, मुहब्बत के अफसाने गाता चलता था। किसी महिला के सरके पल्लू को किसी ने देख लिया तो महीनों उसके ख्वाबों में परियां झूमती रहती थीं। कभी कहीं स्पर्श हो गया तो समझो जीवन पार। बस और क्या चाहिए जिंदगी? आज नजरें मिलाना, घंटों बातें करना, सामने बैठकर मुस्काना और मुस्कुराते जाना कारोबारी-दफ्तरी मुकाम के हिस्से बन चुके हैं। अब पल्लू नहीं सरकते, क्योंकि फैशन की आड़ में कहिए या विज्ञापनों की धार में कहिए, वे गायब हो चुके हैं। यानी खतरे बढ़े? अब महिलाओं को सिर्फ इसलिए पीछे नहीं किया जा सकता कि वे महिलाएं हैं, घर की वस्तु हैं, गृहशोभा हैं। और खास बात यह कि लगभग हर क्षेत्र में वे आगे भी निकल रही हैं, आईकॉन्स बनती जा रही हैं। देहाती स्तर तक पर बच्चियां मिसालें कायम कर रही हैं, प्रेरणास्रोत बनती जा रही हैं।
मगर, मैथुनी सृष्टि में महिलाओं और पुरुषों के बीच एक-दूसरे के प्रति आकर्षण से कोई कैसे इनकार कर सकता है? यह सहज है, स्वाभाविक है। है न? और जब बड़ी तादाद एक लंबे समय तक एक-दूसरे के सापेक्ष हों तो उनके करीब और करीब आने के मौके बढ़ जाते हैं, इससे भी शायद ही किसी को इनकार हो। पर, यहीं लापरवाही के मौके भी बढ़ जाते हैं और समाज की उम्मीदें भी। दरअसल आधुनिकता की परिधि में समाज चाहे जितने गोते लगा ले, पर उसके मानक, निष्ठाओं की परिभाषाएं नहीं बदलतीं। जिंदगी जीने की कलाएं बदल जाएं, पर जीवन नहीं बदलता, जरूरतें नहीं बदलतीं। लाख फारवर्ड हो लें, मगर जान लीजिए, महिला से छेड़खानी या बलात्कार को दुनिया के किसी के हिस्से में जायज नहीं ठहराया जाता। तो व्यक्तित्व विकास के लिए सतर्क व्यक्ति के लिए लापरवाही की बढ़ती गुंजाइशों के बीच सावधानी के मौके भी इन्हीं क्षणों में बढ़ाने की जरूरत होती है। बढ़ते मौकों के बीच सेक्सुअल हैबिट्स के नियंत्रण से बाहर होने की गुंजाइश तो बढ़ी होती है और आपके पास हवाई जहाज के चालक वाला आप्शन होता है। यानी लापरवाही की बिल्कुल गुंजाइश नहीं। लापरवाही हुई कि व्यक्तित्व विकास का सत्यानाश। क्योंकि तेज रफ्तार जिंदगी उसे संभालने का आपको मौका नहीं देने वाली। एक बार पीछे छूट गये, एक बार गिर गये तो भीड़ में दब जाने का, क्रश हो जाने का सरासर खतरा। इस खतरों से बचने का सिर्फ एक ही रास्ता है, संभलिए। दूसरों को संभालिए भी। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। धन्यवाद।

सपने वह नहीं होते जो रातों में सोकर देखे जाते हैं। सपने वो होते हैं, जो रातों की नींद उड़ा दे।

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर पोस्ट लिखी है।अच्छा विश्लेषण किया है।धन्यवाद।

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  2. सपने वह नहीं होते जो रातों में सोकर देखे जाते हैं। सपने वो होते हैं, जो रातों की नींद उड़ा दे।
    bahut khoob ....lajwaab

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  3. बहुत अच्छी बात कही आपने. लेकिन एक ऐसे समय में जब पूरी व्यवस्था संयम को किनारे लगाकर कंडोम संस्कृति को बढावा देने पर लगी हो, तब लोगों से संभलने की उम्मीद की कैसे जाए, इस पर भी प्रकाश डालें.

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  4. भाई इष्टदेव जी, कंडोम को जनसंख्या और एड्स नियंत्रण के लिए ही लोग जरूरी मानें। और यह जरूरी है भी। इसका बेजा इस्तेमाल मेरी समझ से व्यक्तित्व विकास का चैप्टर नहीं, यौन कुंठा और सेक्सुअल क्राइम का मसला है। वैसे आपका आदेश सिर आंखों पर, इस पर भी कुछ लिखूंगा। और जरूर लिखूंगा। फिलहाल आप मुझे पढ़ रहे हैं और अपनी बहुमूल्य टिप्पणी दे रहे हैं, इसके लिए मैं आपका आभारी हूं। धन्यवाद।

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