एक जमाना था. जब महिला और पुरुषों में साफ-साफ भेद का विचार समाज पर ऊपर और नीचे दोनों तरफ से हावी था। महिलाएं गृहशोभा की विषय-वस्तु समझी जाती थीं। उनका घर से बाहर पांव निकालना एक मुश्किल भरा काम दिख पड़ता था। जो बाहर निकलती भी थीं, वे लिंग भेद के अंतर के दबाव से साफ-साफ दबी दिखती थीं। यहां तक कि उनसे बात करना, उनके साथ संबंधों के खुलासे को लेकर एक आम संकोच का मामला हुआ करता था। नतीजा, लिंग भेदी ये दो जीव साथ में रहकर, बैठकर, काम कर भी अलग-अलग, दूर-दूर ही दिखते थे। पूरा माहौल भाभी-दीदी-आंटी आदर, सम्मान और सामाजिक विचारों से ओतप्रोत हुआ करता था। दफ्तरों में एकाध दो महिलाओं के दर्शन हो जायें तो बड़ी बात थी। उस पर भी तुर्रा यह कि शाम के चार-पांच बजे तक तो वे घर भाग ही पड़ती थीं। खतरे कम थे। अब? माहौल बदला है। सड़कों पर, बाजारों में, दुकानों में, दफ्तरों में, पोस्टरों में, पत्रों में, विज्ञापनों में, जहां देखिए वहां, इनकी संख्या बढ़ी है। सहभागिता बढ़ी है। इतना ही नहीं, अभी और बढ़ेंगी क्योंकि इसके बढ़ने का सिलसिला जारी है, डिमांड बढ़ी है, जरूरत दिख रही है। कभी किसी महिला ने किसी से हंसकर बात कर ली, नजरें मिला लीं तो वह वर्षों प्यार के तराने, मुहब्बत के अफसाने गाता चलता था। किसी महिला के सरके पल्लू को किसी ने देख लिया तो महीनों उसके ख्वाबों में परियां झूमती रहती थीं। कभी कहीं स्पर्श हो गया तो समझो जीवन पार। बस और क्या चाहिए जिंदगी? आज नजरें मिलाना, घंटों बातें करना, सामने बैठकर मुस्काना और मुस्कुराते जाना कारोबारी-दफ्तरी मुकाम के हिस्से बन चुके हैं। अब पल्लू नहीं सरकते, क्योंकि फैशन की आड़ में कहिए या विज्ञापनों की धार में कहिए, वे गायब हो चुके हैं। यानी खतरे बढ़े? अब महिलाओं को सिर्फ इसलिए पीछे नहीं किया जा सकता कि वे महिलाएं हैं, घर की वस्तु हैं, गृहशोभा हैं। और खास बात यह कि लगभग हर क्षेत्र में वे आगे भी निकल रही हैं, आईकॉन्स बनती जा रही हैं। देहाती स्तर तक पर बच्चियां मिसालें कायम कर रही हैं, प्रेरणास्रोत बनती जा रही हैं।
मगर, मैथुनी सृष्टि में महिलाओं और पुरुषों के बीच एक-दूसरे के प्रति आकर्षण से कोई कैसे इनकार कर सकता है? यह सहज है, स्वाभाविक है। है न? और जब बड़ी तादाद एक लंबे समय तक एक-दूसरे के सापेक्ष हों तो उनके करीब और करीब आने के मौके बढ़ जाते हैं, इससे भी शायद ही किसी को इनकार हो। पर, यहीं लापरवाही के मौके भी बढ़ जाते हैं और समाज की उम्मीदें भी। दरअसल आधुनिकता की परिधि में समाज चाहे जितने गोते लगा ले, पर उसके मानक, निष्ठाओं की परिभाषाएं नहीं बदलतीं। जिंदगी जीने की कलाएं बदल जाएं, पर जीवन नहीं बदलता, जरूरतें नहीं बदलतीं। लाख फारवर्ड हो लें, मगर जान लीजिए, महिला से छेड़खानी या बलात्कार को दुनिया के किसी के हिस्से में जायज नहीं ठहराया जाता। तो व्यक्तित्व विकास के लिए सतर्क व्यक्ति के लिए लापरवाही की बढ़ती गुंजाइशों के बीच सावधानी के मौके भी इन्हीं क्षणों में बढ़ाने की जरूरत होती है। बढ़ते मौकों के बीच सेक्सुअल हैबिट्स के नियंत्रण से बाहर होने की गुंजाइश तो बढ़ी होती है और आपके पास हवाई जहाज के चालक वाला आप्शन होता है। यानी लापरवाही की बिल्कुल गुंजाइश नहीं। लापरवाही हुई कि व्यक्तित्व विकास का सत्यानाश। क्योंकि तेज रफ्तार जिंदगी उसे संभालने का आपको मौका नहीं देने वाली। एक बार पीछे छूट गये, एक बार गिर गये तो भीड़ में दब जाने का, क्रश हो जाने का सरासर खतरा। इस खतरों से बचने का सिर्फ एक ही रास्ता है, संभलिए। दूसरों को संभालिए भी। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। धन्यवाद।
सपने वह नहीं होते जो रातों में सोकर देखे जाते हैं। सपने वो होते हैं, जो रातों की नींद उड़ा दे।
बहुत सुन्दर पोस्ट लिखी है।अच्छा विश्लेषण किया है।धन्यवाद।
ReplyDeleteसपने वह नहीं होते जो रातों में सोकर देखे जाते हैं। सपने वो होते हैं, जो रातों की नींद उड़ा दे।
ReplyDeletebahut khoob ....lajwaab
बहुत अच्छी बात कही आपने. लेकिन एक ऐसे समय में जब पूरी व्यवस्था संयम को किनारे लगाकर कंडोम संस्कृति को बढावा देने पर लगी हो, तब लोगों से संभलने की उम्मीद की कैसे जाए, इस पर भी प्रकाश डालें.
ReplyDeleteभाई इष्टदेव जी, कंडोम को जनसंख्या और एड्स नियंत्रण के लिए ही लोग जरूरी मानें। और यह जरूरी है भी। इसका बेजा इस्तेमाल मेरी समझ से व्यक्तित्व विकास का चैप्टर नहीं, यौन कुंठा और सेक्सुअल क्राइम का मसला है। वैसे आपका आदेश सिर आंखों पर, इस पर भी कुछ लिखूंगा। और जरूर लिखूंगा। फिलहाल आप मुझे पढ़ रहे हैं और अपनी बहुमूल्य टिप्पणी दे रहे हैं, इसके लिए मैं आपका आभारी हूं। धन्यवाद।
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