होता यह है कि आदमी पैदा लेने के वक्त से ही सिर्फ और सिर्फ दूसरे की बातों पर अमल करने और उसी की चिंता में रात-दिन बिताने की जिन आदतों में पड़ता है सो पड़ा ही रहता है। आदमी को कभी खुद की ओर ध्यान देने का न तो वक्त मिल पाता है, न वह इसके लिए कोई प्रयास करता है। खुद की पुकार वह नहीं सुन पाता। उसका मन आइसक्रीम खाने को हो रहा है, पाकेट में पैसे भी हैं, पर खा नहीं रहा। क्यों? क्योंकि दफ्तर का डिकोरम इजाजत नहीं देता, बीवी रोक रही है। बड़ा अजीब लगता है, पर सच है। तो ऐसी ही छोटी -छोटी खुद की बातों को जब व्यक्ति सुनने का प्रयास शुरू कर दे तो हो सकता है कि उसका मिजाज बदले। हो सकता है कि वह खुश रहने लगे।
कुरुक्षेत्र में दिनकर लिखते हैं कि “ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में मनुज नहीं लाया है, अपना सुख उसने अपने भुजबल से ही पाया है” । दरअसल, हीन भावना का सही व्यावहारिक अर्थ खुद पर से विश्वास का कम हो जाना ही तो है। तो इससे पार पाने के लिए सबसे पहला जो उपाय है, वह यह है कि व्यक्ति खुद पर विश्वास करना शुरू करे। यानी आत्मविश्वास। फैसला लेने से पहले चार बार सोचें, पर यदि एक बार फैसला ले लें तो फिर किसी की टीका-टिप्पणी या थोड़े लाभ-हानि के चलते उसे न बदलें। ऐसी आदत डल गयी तो आप सही निर्णय लेने की कला तो सीख ही जायेंगे, लोगों में भी आपकी स्वीकार्यता बढ़ने लगेगी, बढ़ जायेगी। हीन भावना कहां गायब हो जायेगी, आपको पता भी नहीं चलेगा।
हीन भावना के पनपने के लिए प्राथमिक स्तर पर कारण के रूप में परिवेश का जिक्र किया गया था। परिवेश का मतलब वैसा माहौल जहां एक दूसरे को नीचा दिखाने वाले लोगों की जमात हो और आप उसमें फंसकर हीन भावना के शिकार हो रहे हों। दरअसल, बेवकूफों की जमात में बुद्धिमान भी बेवकूफ बन जाता है। ऐसे में जमात बदलने की जरूरत होती है, न कि उस जमात में रहकर घुट-घुट कर सांसें लेने व हलकान होते रहने की। एक व्यक्ति चाह ले, ठान ले तो पूरा माहौल, पूरा परिवेश बदल सकता है। ऐसे लोगों के उदाहरणों से इतिहास भरा-पड़ा है, पर यह लंबे समय के लिए जुझारू रणनीति पर काम करने से ही संभव है या फिर धैर्य की लंबी परीक्षा से गुजरने वाली बात है। जो लोग माहौल नहीं बदल पाते और खुद को हीन भावना से ग्रसित मानकर उपाय खोजते रहते हैं, वे दरअसल सिकनेस के शिकार होते हैं। होम सिकनेस, सिटी सिकनेस, इनवायरनमेंट सिकनेस। विकास के लिए व्यक्ति को इन सिकनेस से दूर रहना चाहिए। अच्छा भला आदमी होम सिकनेस के फेरे में खुद को बर्बाद कर लेता है। बर्बादी इंफीरियरिटी कांप्लेक्स की ही ओर तो ले जाती है।
दरअसल, पूरा मामला व्यक्तियों की क्षमताओं पर डिपेंड करता है। क्षमतावान व्यक्ति पहाड़ों से चट्टानों को तोड़कर रास्ता बना लेता है। ऐसा कर वह दूसरों के लिए भी मार्ग आसान बनाता है। आपको जब कभी ऐसा लगता हो कि आप हीन भावना के शिकार हो रहे हों या हो गये हों तो अपनी क्षमताओं को बढ़ाने की दिशा में सचेष्ट हो जाइए। आप जिस फील्ड में हैं, वहीं अपने ज्ञान को बढ़ाने में, क्षमताओं को विकसित करने में तल्लीन हो जाइए। आप वैसे लोगों के संपर्क से धीरे-धीरे किनाराकशी कर लीजिए, जो आपकी बातें नहीं सुनते, आपका उपहास उड़ाते हैं, आपका सम्मान नहीं करते। आप प्रतिभावान नये दोस्तों की श्रृंखला तैयार कीजिए। उनसे अपनी समस्याएं डिस्कस कीजिए, अनुभव बांटिए और भविष्य की कार्ययोजना पर बहस कीजिए। आप देखेंगे, ज्यों-ज्यों आपकी क्षमताओं का विकास होता जायेगा, हीन भावना गायब होती जायेगी। फिलहाल इतना ही। दरभंगा के सुधी पाठक श्री पंकज जी (निक नेम) द्वारा पूछे गये सवाल “हीन भावना से कैसे उबरें” के तहत जवाबों की तलाश में व्यक्तित्व विकास पर चर्चा अभी जारी रहेगी। धन्यवाद।
आप किसी को गद्दार कैसे कह सकते हैं, जबकि आप खुद ही किसी के विश्वासपात्र नहीं बन पाये?
हीन भावना के बारे में पूरा जन कर ही इस पर विजय पाई जा सकती है..!बहुत ही अच्छा आलेख....
ReplyDeleteजारी रखिये...रोचक और दिलचस्प है.
ReplyDeleteआप किसी को गद्दार कैसे कह सकते हैं, जबकि आप खुद ही किसी के विश्वासपात्र नहीं बन पाये?
-बिल्कुल सही!!
badhiya, waqai badhiya. - brajesh, jamshedpur
ReplyDeleteआपने जैसा दावा किया था, वैसा लिखा। बधाई हो। ठीक तो लिखते ही रहे हैं। इस बार दिशा भी ठीक पकड़ी है। हीन भावना पर आपके आलेख से बहुतों को फायदा होगा। एक बार फिर से बधाई। - देवेन्द्र, जमशेदपुर।
ReplyDeleteआदरणीय देवेन्द्र जी, आशीर्वाद बनाये रखिए।
ReplyDeletedil se dhanbad me but phayada hua
ReplyDeletedil se dhanbad me but phayada hua
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