Tuesday, May 26, 2009

द ट्रायल आफ बैकुंठ शुक्ल

फणीन्द्र नाथ घोष की हत्या के आरोप में फांसी पर झूल जाने वाले शहीद बैकुंठ शुक्ल के केस का पूरा दृष्टांत आजादी की पचासवीं वर्षगांठ पर प्रकाशित पुस्तक 'द ट्रायल आफ बैकुंठ शुक्ल : ए रिवोल्यूशनरी पैट्रियट’ में विस्तार से मिलता है। इसके संपादक नंद किशोर शुक्ल ने कोर्ट की पूरी कार्यवाही को काफी मेहनत से सामने लाया है। द किंग-इम्परर बनाम बैकुंठ शुक्ल अभियुक्त यह मुकदमा चंपारण के बेतिया थाने में एफआईआर नंबर आठ, दिनांक ९ नबंबर १९३२ को सिपाही नंबर २७१ सहदेव सिंह के बयान पर दर्ज किया गया था। पुलिस चालान संख्या ८८, ५ अक्टूबर १९३३ को दाखिल किया गया, जिसके तहत सीआरपीसी की धारा २२१, २२२, २२३ के अंतर्गत अभियुक्त बैकुंठ शुक्ल तथा चंद्रमा सिंह के विरुद्ध आरोप लगाये गये थे। बेतिया के सब डिविजनल मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी आरएसपी ठाकुर की अदालत में मुकदमे की कार्यवाही १२ अक्टूबर १९३३ को शुरू हुई। बाद में मुकदमा सत्र न्यायाधीश टी ल्यूबी की अदालत को सुपुर्द किया गया। सत्र न्यायाधीश ने २३ फरवरी १९३४ को बैकुंठ शुक्ल को फांसी की सजा सुनायी। पटना हाईकोर्ट में अपील की गयी और सजा बहाल रखी गयी। इस मुकदमे में सरकार की ओर से ९१ गवाह पेश किये थे। सत्र न्यायाधीश उन तीन निर्णायकों से असहमत रहा था, जिन्होंने शुक्लजी को दोषी नहीं पाया था। बहुमत छोड़कर सिर्फ एक निर्णायक से सहमत रहकर फैसला सुनाया गया और पटना उच्च न्यायालय द्वारा सजा की पुष्टि के बाद १४ मई १९३४ को बैकुंठ शुक्ल को फांसी दे दी गयी। यह उनके जन्म दिन (१५ मई १९०७) से एक दिन पहले की तारीख थी। वारदात से लेकर बैकुंठ शुक्ल को फांसी देने तक के समय को जोड़ें तो पूरे ५५२ दिनों की अवधि में सब कुछ निपट गया यानी करीब डेढ़ वर्षों में। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक 'स्वतंत्रता सेनानी क्रांतिकारी बैकुंठ सुकुल का मुकदमा’ के तीसरे परिशिष्ट में प्रसिद्ध समाजवादी नेता स्व. बसावन सिंह लिखते हैं कि १९३४ के भूकंप में मुजफ्फरपुर के साथ-साथ फांसी की तख्ती भी ध्वस्त हो गयी थी, नहीं तो जहां चौबीस साल पहले खुदीराम बोस को फांसी हुई थी, बैकुंठ शुक्ल को भी वहीं लटकाया जाता। सेशन कोर्ट में इस मुकदमे की कार्यवाही सिर्फ ४२ दिन चली। आरंभ २२ नवंबर १९३३ को हुआ। २३ फरवरी १९३४ को फैसला लिखा और सुना दिया गया। १५ फरवरी १९३४ को मुकदमे की कार्यवाही के संबंध में सत्र न्यायाधीश टी ल्यूबी की टिप्पणी थी, 'आज बैकुंठ की पत्नी ने एक अर्जी दी है कि मुकदमा मुल्तवी किया जाय, क्योंकि वकील श्री लाल बिहारी लाल ने, जिन्होंने उनके पति की पैरवी करने का वादा किया था, मोतिहारी में महामारी के डर से यहां आने से इनकार कर दिया है। मैं कल ही आदेश दे चुका हूं और अब स्थगन नहीं दे सकता। अर्जी नामंजूर की जाती है। सरकारी वकील ने अपनी दलील जारी रखी, लेकिन जब १६.३० बजे अदालत उठी, तब तक वे उसे पूरा नहीं कर पाये थे। बाकी कल। अभियुक्त हवाले हाजत।’

देसी भाषा में पायी थी मिडिल तक की शिक्षा : बैकुंठ शुक्ल का जन्म १५ मई, १९०७ को वैशाली जिले के लालगंज थानांतर्गत जलालपुर गांव में हुआ था। उनके पिता राम बिहारी शुक्ल किसान थे। देसी भाषा में मिडिल तक की शिक्षा हासिल करने वाले बैकुंठ शुक्ल ने शिक्षक का प्रशिक्षण भी लिया था। अंग्रेजी बिल्कुल नहीं जानने वाले श्री शुक्ल मथुरापुर लोअर प्राइमरी स्कूल में शिक्षक के रूप में भी काम किया। तब उन्हें आठ रुपये मासिक पगार मिलती थी। उनके पास लगभग छह बीघा पैतृक जमीन थी। इस जमीन को उन्होंने अपने भाई हरिद्वार शुक्ल के नाम कर दिया और आजादी के आंदोलन में कूद पड़े। उन्हें और उनकी पत्नी श्रीमती राधिका देवी को कांग्र्रेस के आंदोलन में किशोरी प्रसन्न सिंह, उनकी पत्नी सुनीति देवी, योगेन्द्र शुक्ल तथा बसावन सिंह ने उतारा। १९३० के सविनय अवज्ञा आंदोलन में बैकुंठ शुक्ल ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। नतीजा, पटना कैंप जेल में उन्हें सजा भुगतनी पड़ी। गांधी-इर्विन पैक्ट के बाद अन्य सत्याग्रहियों के साथ वे भी रिहा कर दिये गये। इसके शीघ्र बाद बिहार में योगेन्द्र शुक्ल के नेतृत्व में सक्रिय हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से उनका संपर्क हुआ और वे क्रांतिकारी बन गये। स्वयंसेवक के रूप में उन्होंने मुजफ्फरपुर के तिलक मैदान में लाठी चलाने का प्रशिक्षण लिया। बाद में हिंदुस्तानी सेवा दल के सदस्य बन गये। स्व. बैकुंठ शुक्ल की पत्नी श्रीमती राधिका देवी का देहांत २००५ में जलालपुर गांव में हुआ। आजादी के बाद उनके जीवनयापन के लिए बिहार सरकार ने बहुत थोड़ी सहूलियत दी थी, लेकिन वे निस्वार्थी और देश के प्रति समर्पित महिला थीं। उन्होंने सरकार से अपने पति की शहादत की कीमत कभी नहीं वसूली।

जो शहीद हुए हैं उनकी, जरा याद करो कुर्बानी।

1 comment:

  1. Ī have collected precious records regarding the contribution and sacrifices of the great revolutionary Yogendra shukla and Martyr Baikunth Shukla released by the government in 70s.I want them to post on Google so that people could know more about their life and valour.If you like to post them on your website I will feel very obliged to you.
    Sant Shukla. Lalganj

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