पानी का यह तिलस्म पश्चिमी चंपारण के वाल्मीकिनगर से, जहां राज्य का सबसे ऊंचा स्थल है, लेकर कटिहार के मथुरापुर तक, जहां राज्य का सबसे नीचा स्थल है, देखा जा सकता है। आठ बड़ी नदियों घाघरा, गंडक, बूढ़ी गंडक, बागमती, अधवारा समूह, कमला, कोसी और महानंदा का क्रीड़ास्थल है उत्तर बिहार। घाघरा व महानंदा क्रमशः उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल से होकर बिहार में प्रवेश करती है, जबकि बूढ़ी गंडक को छोड़कर अन्य सभी नदियां नेपाल से आती हैं। बूढ़ी गंडक का उद्गम स्थल बिहार ही माना जाता है, पर इसका काफी बड़ा जलग्र्रहण क्षेत्र नेपाल में पड़ता है। गंगा पूरे राज्य के लिए मास्टर ड्रेन का काम करती है, जो पश्चिम से पूर्व राज्य के बीचोबीच बहती है। राज्य में इस नदी की लंबाई 432 किलोमीटर है। इसके उत्तर का मैदानी इलाका ही उत्तर बिहार कहलाता है। 52,312 किलोमीटर के इस क्षेत्र की आबादी 5.23 करोड़ है और यहां की कुल 8,36000 हेक्टेयर जमीन को जलजमाव से ग्रस्त माना जाता है। यानी कुल क्षेत्रफल का 16 फीसदी हिस्सा पानी में डूबा रहता है, जहां प्रति वर्ग किलोमीटर लगभग 1000 लोग निवास करते हैं।
यह तिलस्मी कथा नहीं तो और क्या है कि1952 में तटबंधों की लंबाई राज्य में मात्र 160 किलोमीटर थी, जो बढ़ते-बढ़ते 2005 तक 3305 किलोमीटर हो गयी और इसी के साथ साल दर साल तबाही भी बढ़ती गयी। झारखंड बंटवारे से 24 किलोमीटर तटबंध उसके हिस्से में चला गया, जबकि पिछले पंद्रह वर्षों में 11 किलोमीटर तटबंध बह गये। इस प्रकार राज्य में 3430 किलोमीटर, जबकि उत्तर बिहार में 2952 किलोमीटर तटबंध अभी मौजूद है। राज्य सरकार दावा करती है कि तटबंधों के निर्माण में 29 लाख हेक्टेयर जमीन को सुरक्षा प्रदान की गयी है, जबकि इसकी हकीकत बाढ़ और बारिश के दौरान धरधरा कर टूटने वाले बांधों और फैलते पानी से समझा जा सकता है।
पानी के इस तिलस्म का गवाह तटबंधों के अंदर और बाहर दोनों ओर की लाखों बेहाल जिंदगियां हैं। सरकारी वादों में फंसी हजारों जिंदगियों को तिरहुत और बागमती तटबंधों पर नया समाजशास्त्र गढ़ते देखा जा सकता है। कोसी तटबंधों के भीतर फंसे गांवों की संख्या 386, बागमती तटबंधों के भीतर 96, महानंदा में 66 तथा कमला के भीतर 76 गांव फंसे हैं। तिलस्म यह है कि तटबंधों के बाहर सुरक्षित क्षेत्र के लोग तटबंध के भीतर रहने वाले लोगों से अब ईर्ष्याकरने लगे हैं क्योंकि अंदर रहने वाले लोगों को कभी बांध टूटने का भय नहीं सताता। वहां लोग नदी का आतंक झेलने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। तटबंधों से सुरक्षित जमीनों में कुछ भी नहीं पैदा होता, जबकि सुरक्षित अंदर के लोग बाढ़ के बाद रबी फसलों की भरपूर उपज लेते हैं। सुरक्षित क्षेत्र में जलजमाव से परेशान लोग बरसात के मौसम में रात-रात भर नहीं सो पाते, तटबंधों के टूटने का खतरा उन्हें सताता रहता है। दरअसल, भारत का 16.5 प्रतिशत बाढ़ प्रभावित क्षेत्र बिहार में पड़ता है, जबकि इतने ही क्षेत्र पर देश की 22.1 प्रतिशत आबादी बाढ़ पीडि़त है। आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर बिहार के कुल क्षेत्रफल का 70.6 प्रतिशत बाढ़ प्रवण क्षेत्र है। आजादी के बाद से इस क्षेत्र में बढ़ोतरी ही हुई है।
बिहार के द्वितीय सिंचाई आयोग की रिपोर्ट (1994) के अनुसार 1952 में 25 लाख हेक्टेयर बाढ़ प्रवण इलाका था, वह 1978 में 43 लाख हेक्टेयर व 1982 में 65 लाख हेक्टेयर से बढ़ते-बढ़ते 1993 में 68.8 लाख हेक्टेयर हो गया। जुलाई 2004 में ब्रिसबेन में अंतरराष्ट्रीय भूमि संरक्षण को लेकर इस्को-2004 (इंटरनेशनल स्वायल कंजर्वेशन आर्गनाइजेशन कान्फ्रेंस - ब्रिसबेन, जुलाई 2004) के नाम से आयोजित सेमिनार में एएन कालेज पटना के पर्यावरण और जल प्रबंधन विभाग के एके घोष, एएन बोस, केआरपी सिन्हा और आरके सिन्हा ने जो रपट पेश की, उससे इस संबंध में और खुलासा होता है। मार्च 1984 से मार्च 2002 के बीच का लेखाजोखा करते हुए रिपोर्ट में बताया गया कि सतही जल प्लावित क्षेत्र में तेजी से जो परिवर्तन हो रहे हैं, वह अलार्मिंग है। ये आंकड़े मार्च महीने और पूरे इलाके को तीन जोनों घाघरा-गंडक जोन, घाघरा-कोसी जोन तथा वेस्टर्न कोसी फैन बेल्ट से इकट्ठे किये गये। पानी के तिलस्म का बड़ा हिस्सा राजनेता, इंजीनियर, ठेकेदार और भारत-नेपाल वार्ता के बीच भी गढ़ा जाता है। इंजीनियरों का दल नेपाल में बड़े बांध की सिफारिश करता है, नेपाल से बात होती है, वादे मिलते हैं और काम ठप रहता है। कोसी हाई डैम की राजनीति अब तो तिलस्म से निकलकर चुनावी बयार के साथ बहने लगी है। हाल के कुछ वर्षों से इस बात का बड़ा प्रचार होता है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में नेपाल द्वारा नदियों में पानी छोडऩे के कारण बाढ़ आती है। इस भ्रांति को नेता के साथ मीडिया भी खूब प्रसारित करते हैं। पानी छोड़ा तो तभी जायेगा, जब उसे कहीं पकड़कर रखा गया हो। नेपाल से भारत में प्रवेश करने वाली केवल दो नदियों पर बराज की शक्ल में कंट्रोल संरचनाएं हैं। एक गंडक बराज है, जिसका बायां हिस्सा पश्चिमी चंपारण जिले में और दायां हिस्सा नेपाल के भैरवा जिले में है। दूसरा कोसी बराज है, जो भारत-नेपाल सीमा पर सहरसा जिले के वीरपुर कस्बे से सटाकर बना है। इन दोनों बराजों का संचालन जल संसाधन विभाग के इंजीनियर करते हैं, इसलिए अगर पानी छोड़ा भी जाता है तो उसकी जिम्मेवारी बिहार सरकार की बनती है। नेपाल में यह धारणा है कि भारत-नेपाल साझा प्रकल्पों में नेपाल को उसका समुचित हिस्सा नहीं मिल पाता। इसका असंतोष पिछले साल 2008 में कोसी बराज पर कुरसेला के पास देखने को मिला, जब नेपाली लोगों ने वहां कब्जा जमा लिया और वहां लगे मजदूरों और इंजीनियरों को खदेड़ दिया। काहिली देखिए कि 1991 में सप्तकोसी परियोजना पर नेपाल से बात हुई और सहमति बनी। अगस्त 2003 में केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री अर्जुन सेठी ने लोकसभा को बताया कि नेपाल से कोसी हाईडैम की परियोजना रिपोर्ट तैयार करने पर बात चल रही है। सवाल यह है कि बारह वर्षों में यह तय किया जाता है कि तकनीकी छानबीन के लिए कितने लोगों की जरूरत पड़ेगी तो बांध का निर्माण शुरू होने में कितना समय लगेगा। पर, 2008 में कोसी ने जिस तरह अपनी धारा बदली और सभी अवरोधों को तोड़ते-फोड़ते सैकड़ों की जान लेते लाखों लोगों को बेघर कर इतिहास रचा, उससे तो अब यह साफ हो जाना चाहिए कि उत्तर बिहार को पानी के इस तिलस्म में डूबने-तैरने से बचाने के लिए बड़ा उपाय सोचना होगा। उत्तर बिहार में जल प्रबंधन को लेकर चर्चा अभी जारी रहेगी। अगली पोस्ट में पढ़िए- नाकाम जल प्रबंधन-हर बार कहा, पर माना कहां?
हवा-ए-शाम के झोंकों जरा लिहाज करो, न लो चराग जलाते ही इम्तहान मेरा।
priya bhai saheb,
ReplyDeleteachcha laga aapka yeh lekh
kya yeh lekh aapka mai apne blog me dal sakta hoon
mera bolg address hai
www.iamshishu.blogspot.com
shishu
मेरे ब्लाग ए़ड्रेस के साथ आप इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। धन्यवाद।
ReplyDeleteडाक्टर विश्वेश्रैया ने जैसे मदुरै में जल प्रबंधन किया था वैसे ही किसी उपाय की जरूरत आज बिहार को है राप्ती नदी की बाढ़ मैंने भी झेली है
ReplyDeleteAchchhi jankari mili. sangrahniye lekh likhne ke liye aapko sadhuvad.
ReplyDeleteAnoj, Ajmer
वाह भई, इस आलेख के साथ आपने तो अपने को उत्तर बिहार में रहना सार्थक कर दिया। - देवेन्द्र, जमशेदपुर।
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