Monday, February 23, 2009

पान, बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू ना शराब

एक सत्य मगर हंसने-हंसाने के सिलसिले से बात की शुरुआत करना चाहूंगा। रफ्ता-रफ्ता बातें स्पष्ट हो जायेंगी कि क्या कहना चाहता हूं। रोजाना शाम होते अपनी महफिल सजा लेने वाले एक खुदमुख्तार व्यक्ति के साजोसामान में एकबार भोला-भाला और तफरीहन-कभी-कभार मिजाज बनाने वाला एक शख्स शामिल हुआ। वह देखता है कि हर पैग के बाद खुदमुख्तार बुजुर्गवार मुन्नीबाई को बड़ी नफासत के साथ आवाज देते थे। मुन्नीबाई, जरा पकौड़े लाना, मुन्नीबाई जरा सलाद लाना। और जब मुन्नीबाई आती तो उस भोले-भाले शख्स की त्योरी चढ़ जाती। दरअसल, मुन्नीबाई एक काली-कलूठी काम करने वाली बाई थी और बुजुर्गवार की नफासत के मिजाज से उसकी सूरत बिल्कुल मेल नहीं खाती थी। शुरू में तो भोले-भाले शख्स ने कुछ पूछने की हिमाकत नहीं की, पर दो-चार पैग जब उसने भी चढ़ा लिये तो हिम्मत करके पूछ ही बैठा- कोई सुंदर सी बाई आपको नहीं मिली थी? बुजुर्गवार मुस्कुराये, बोले- बेटा, मुन्नीबाई मेरे पैग का पैमाना है। जान-बूझकर इस काली-कलूठी बाई को रख छोड़ा है। भोले शख्स ने पूछा-मतलब नहीं समझा? बुजुर्गवार बोले-जिस पैग के बाद मुझे मुन्नीबाई सुंदर दिखने लगती है, समझ जाता हूं, नशा हो गया है और पीना बंद कर देता हूं। महफिल में शामिल लगभग सभी कलाकार तो ठहाका लगाकर हंस पड़े, पर तफरीहन मिजाज बनाने वाले उस शख्स के आगे सन्नाटा नाच गया। नशे में बच्चा सुंदर बाई खोज रहा था। बुजुर्गवार की बातों से उसे सबक मिला। लगभग हर दिन नशा करने वाले बुजुर्गवार समझते थे कि नशा अपने चरम पर जाकर गुनाह की दावत देता है, इसलिए उन्होंने नशे को नापने का एक पैमाना खोज लिया था। पीते तो थे, पर नशा से परहेज करते थे। बच्चे ने बात समझी और संभल गया। कच्ची उम्र का था, तौबा ही कर ली दारू से। लेकिन, बड़े-बड़े लोग नहीं संभल पाते।
व्यक्तित्व विकास के लिए नशा पर नियंत्रण कितना जरूरी है, इसे एक-दो दृष्टांत से समझा जाये। एक साहबान जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर बिल्कुल नये शहर में ड्यूटी ज्वाइन करने पहुंचे तो कार्यस्थल पर बाद में पहुंचे, पहले पहुंच गये शराब के ठेके पर। छक कर सफर की खुमारी उतारी और रेस्ट हाउस में जाकर सो गये। नशे की नींद थी, जगने में थोड़ा विलंब हुआ। नहाये-धोये और लेट ही सही, पहुंच गये दफ्तर। उन्हें इस बात का अंदाजा भी नहीं था कि वे महक रहे थे और पूरा दफ्तर नाक-भौं सिकोड़ रहा था। उनकी बगल में बैठा एक युवक तो महक से उल्टियां करने लगा। भांडा फूट चुका था। पहले दिन से ही उस दफ्तर में उनके ऊपर दारूबाज का ठप्पा लगा और आप भरोसा कीजिए सीनियर, उम्रदराज और काबिल-जहीन होने के बावजूद वे उस इज्जत को तो नहीं ही पा सके, जिसके हकदार थे, अंततः उन्हें नौकरी छोड़कर चला जाना पड़ा। एक दूसरे साथी का जिक्र करूं। जहीन-तरीन, दिन में चार बार चेहरे पर पानी मारने वाले, साबुन से चेहरा चमका कर रखने वाले औऱ बड़ी नफासत से कपड़े पहनने वाले शख्स को आदत थी शाम में सुट्टा लगाने की, यानी गांजा पीने की। कहीं होते, शाम होते ही एकाध घंटे के लिए गायब हो ही जाते। लोग जान न जायें, इसलिए अपने कमरे पर सुट्टा लगाने का पूरा इंतजाम कर रखा था। एक छुट्टी के दिन जब उनके कमरे पर उनके दफ्तर के साथियों ने उनसे मिलने के लिए दस्तक दी तो किवाड़ के खुलते ही जो धुआं बाहर निकला, उससे उनके कैरियर में आग लग गयी। नशे के नाम पर तो बड़े-बड़े इल्म का जिक्र किया जा सकता है, मगर जो छोटे-छोटे पान, बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू जैसे सामान हैं, वे भी अच्छा-खासा व्यक्ति को भिखमंगा बना देते हैं। नशा करने वाला व्यक्ति अपने औसान में कभी नहीं रह पाता, आर्थिक दबाव बोनस में पाता है। ताज्जुब की बात तो यह भी है कि नशे को जिंदगी का हिस्सा बना लेने वाला शख्स भी दूसरे नशेड़ी भाई पर कभी विश्वास नहीं करता। ठीक किसी कातिल की भांति। आपने देखा होगा, बड़े से बड़ा हत्यारा भी नहीं चाहता कि उसका बेटा गुनाहों के दलदल में फंसे। मेरी समझ से, बातें स्पष्ट हो चुकी होंगी। व्यक्तित्व विकास के लिए नशा से परहेज जरूरी है। बात समझ गये हों तो शत्रुघ्न सिन्हा की एक फिल्म का वह गाना तो गुनगुना ही सकते हैं-पान, बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू ना शराब, हमको तो नशा है....। व्यक्तित्व विकास पर चर्चा अभी जारी रहेगी। धन्यवाद।

माफी जुर्म की परवरिश होती है, क्योंकि माफी मांग लेने से जुर्म का निशान नहीं मिटता।

4 comments:

  1. नफासत से ही नशे से सावधान किया है। बधाई हो, वर्ना तो नशेड़ियों के साथ जो कुछ किया जाय, कम ही है। - अनोज, अजमेर (राजस्थान)

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  2. बहुत सुदर लिखा है...ज्ञानवर्द्धन हो रहा है बहुतों का...महा शिव रात्रि की बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं..

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  3. वाकई, नशे ने कई घर उजाड़े हैं। - देवेन्द्र सिंह, जमशेदपुर।

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