आइए लेते हैं खबरों की खबर - 5
बिहार की बात है, मुखियों की गतिविधियों पर कंपाइल स्टोरी बन रही थी। खबर पूरी तरह से नकारात्मक भाव रखने वाली थी। खबर बनकर आई कि लूट-खसोट और भ्रष्टाचार में लिप्त हैं अधिकतर मुखिया। जिक्र उन योजनाओं का था, जिनकी राशि मुखियों की जेब में पहुंच चुकी थी और असली हकदार लाभ से पूरी तरह वंचित थे। मौका था खबर को पहले पन्ने पर डिस्प्ले का। बात जम नहीं रही थी क्योंकि उसका शीर्षक जम नहीं रहा था। होने लगी ब्रेन स्टार्मिंग। आखिर इस खबर का शीर्षक क्या हो कि पढ़ने वाले के दिलो दिमाग में सीधा घुस जाए। तो बात आई कि आम पब्लिक की मुखियों के बारे में क्या राय है। क्या बोल रही है जनता? जो दो चार वाक्य सामने आए, उनमें एक था - मुखियों की फौज, मार रही मौज। और यह शीर्षक बन गया उस खबर का। यकीन मानिए, अखबार और खबरों की भीड़ में सिर्फ वही शीर्षक चमक रहा था, लोगों को आकर्षित कर रहा था और लोग कह रहे थे, सही लिखा है अखबार ने, हमलोगों की बात रख दी है खोलकर...।
एक दूसरी खबर का जिक्र करूं। लीची का सीजन चल रहा था और पछुआ भी अपनी रफ्तार छोड़ने को तैयार नहीं थी। नतीजा, पेड़ पर टंगी लाल-लाल लीचियां फट गई थीं और इसी के साथ फट गया था लीची किसानों का कलेजा। खबर बन कर तैयार थी। मगर, फिर हालात वही थे। पहले पन्ने पर ली जाने वाली इस खबर का शीर्षक जम नहीं रहा था। तो फिर शुरू हुई ब्रेन स्टार्मिंग। क्या हो शीर्षक? मंथन शुरू हुआ और शीर्षक निकलकर आया- पछुआ ने लीची को लूटा। जी हां, कल के अखबार में इस शीर्षक की सर्वत्र सराहना हो रही थी, किसानों, व्यापारियों और आम पाठकों को भा रही थी। टिप्पणी थी - अखबार बिल्कुल मौलिक लिखता है।
राजस्थान में एक हवाई अड्डे का शिलान्यास करने प्रधानमंत्री आने वाले थे। यह हवाई अड्डा उस खास क्षेत्र में बन रहा था, जहां के लोगों के लिए हवाई जहाज पर चढ़ना तो दूर, उसे नजदीक से देखना भी एक सपने की तरह ही था। जिस दिन हवाई अड्डे का शिलान्यास होना था, उस दिन के अखबार के लिए सिर्फ इसी मुद्दे पर पूरा पेज प्लान था। खबरें तो कई थीं, पर कामन इंट्रो के साथ जो कामन हेडिंग बन रही थी, वह जम नहीं रही थी। जाहिर है विचारों का अंधड़ चल रहा था। प्रतिद्वंद्विता में आगे रहने की होड़ अलग से। आखिर में इसका जो शीर्षक बना, उसकी सराहना दूसरे अखबार वालों ने भी की। शीर्षक था - सपने चूमेंगे आसमान।
शीर्षकों के ऐसे ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे, जिन पर देर तक, बहुत देर तक बहस की जा सकती है, उदाहरण दिए जा सकते हैं। समझने वाली बात यह है कि खबरों की जान होते हैं शीर्षक और शीर्षक लगाना एक मशक्कत का काम है, दिमाग का काम है, दिल से खबरों से जुड़ने का काम है। अच्छे शीर्षक के लिए कंटेंट का भी अच्छा होना जरूरी है। जैसे, किसी ने खबर बना दी- महेश प्रजापति की अध्यक्षता में प्रज्ञा मंडल की बैठक हुई, इसमें शिक्षा के विकास पर विचार किया गया, इसमें फलां-फलां लोग उपस्थित थे, फलां ने धन्यवाद ज्ञापन की औपचारिकता निभाई। अब इस खबर का क्या लगाएंगे शीर्षक? इस खबर में एक बात मार्के की थी। संवाददाता ने ध्यान दिया होता तो यह छोटी सी खबर भी दिलचस्प हो सकती थी। इसका शीर्षक भी मार्गदर्शन कर सकता था। सोचिए....।
बैठक में क्या हुआ था? जवाब है - शिक्षा के विकास पर विचार। इस छोटी बैठक में लोग भले छोटे रहे हों, उनके विचार महत्वपूर्ण हो सकते थे। आखिर क्या थे शिक्षा के विकास की बाबत उनके विचार। रिपोर्टर को उन पर गौर करना चाहिए था। तब खबर लिखने का एंगल ही बदल जाता, शीर्षक तो अपने आप बदल जाता। बदल जाता कि नहीं? लोगों का आकर्षित करता। करता कि नहीं? जारी....
बिहार की बात है, मुखियों की गतिविधियों पर कंपाइल स्टोरी बन रही थी। खबर पूरी तरह से नकारात्मक भाव रखने वाली थी। खबर बनकर आई कि लूट-खसोट और भ्रष्टाचार में लिप्त हैं अधिकतर मुखिया। जिक्र उन योजनाओं का था, जिनकी राशि मुखियों की जेब में पहुंच चुकी थी और असली हकदार लाभ से पूरी तरह वंचित थे। मौका था खबर को पहले पन्ने पर डिस्प्ले का। बात जम नहीं रही थी क्योंकि उसका शीर्षक जम नहीं रहा था। होने लगी ब्रेन स्टार्मिंग। आखिर इस खबर का शीर्षक क्या हो कि पढ़ने वाले के दिलो दिमाग में सीधा घुस जाए। तो बात आई कि आम पब्लिक की मुखियों के बारे में क्या राय है। क्या बोल रही है जनता? जो दो चार वाक्य सामने आए, उनमें एक था - मुखियों की फौज, मार रही मौज। और यह शीर्षक बन गया उस खबर का। यकीन मानिए, अखबार और खबरों की भीड़ में सिर्फ वही शीर्षक चमक रहा था, लोगों को आकर्षित कर रहा था और लोग कह रहे थे, सही लिखा है अखबार ने, हमलोगों की बात रख दी है खोलकर...।
एक दूसरी खबर का जिक्र करूं। लीची का सीजन चल रहा था और पछुआ भी अपनी रफ्तार छोड़ने को तैयार नहीं थी। नतीजा, पेड़ पर टंगी लाल-लाल लीचियां फट गई थीं और इसी के साथ फट गया था लीची किसानों का कलेजा। खबर बन कर तैयार थी। मगर, फिर हालात वही थे। पहले पन्ने पर ली जाने वाली इस खबर का शीर्षक जम नहीं रहा था। तो फिर शुरू हुई ब्रेन स्टार्मिंग। क्या हो शीर्षक? मंथन शुरू हुआ और शीर्षक निकलकर आया- पछुआ ने लीची को लूटा। जी हां, कल के अखबार में इस शीर्षक की सर्वत्र सराहना हो रही थी, किसानों, व्यापारियों और आम पाठकों को भा रही थी। टिप्पणी थी - अखबार बिल्कुल मौलिक लिखता है।
राजस्थान में एक हवाई अड्डे का शिलान्यास करने प्रधानमंत्री आने वाले थे। यह हवाई अड्डा उस खास क्षेत्र में बन रहा था, जहां के लोगों के लिए हवाई जहाज पर चढ़ना तो दूर, उसे नजदीक से देखना भी एक सपने की तरह ही था। जिस दिन हवाई अड्डे का शिलान्यास होना था, उस दिन के अखबार के लिए सिर्फ इसी मुद्दे पर पूरा पेज प्लान था। खबरें तो कई थीं, पर कामन इंट्रो के साथ जो कामन हेडिंग बन रही थी, वह जम नहीं रही थी। जाहिर है विचारों का अंधड़ चल रहा था। प्रतिद्वंद्विता में आगे रहने की होड़ अलग से। आखिर में इसका जो शीर्षक बना, उसकी सराहना दूसरे अखबार वालों ने भी की। शीर्षक था - सपने चूमेंगे आसमान।
शीर्षकों के ऐसे ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे, जिन पर देर तक, बहुत देर तक बहस की जा सकती है, उदाहरण दिए जा सकते हैं। समझने वाली बात यह है कि खबरों की जान होते हैं शीर्षक और शीर्षक लगाना एक मशक्कत का काम है, दिमाग का काम है, दिल से खबरों से जुड़ने का काम है। अच्छे शीर्षक के लिए कंटेंट का भी अच्छा होना जरूरी है। जैसे, किसी ने खबर बना दी- महेश प्रजापति की अध्यक्षता में प्रज्ञा मंडल की बैठक हुई, इसमें शिक्षा के विकास पर विचार किया गया, इसमें फलां-फलां लोग उपस्थित थे, फलां ने धन्यवाद ज्ञापन की औपचारिकता निभाई। अब इस खबर का क्या लगाएंगे शीर्षक? इस खबर में एक बात मार्के की थी। संवाददाता ने ध्यान दिया होता तो यह छोटी सी खबर भी दिलचस्प हो सकती थी। इसका शीर्षक भी मार्गदर्शन कर सकता था। सोचिए....।
बैठक में क्या हुआ था? जवाब है - शिक्षा के विकास पर विचार। इस छोटी बैठक में लोग भले छोटे रहे हों, उनके विचार महत्वपूर्ण हो सकते थे। आखिर क्या थे शिक्षा के विकास की बाबत उनके विचार। रिपोर्टर को उन पर गौर करना चाहिए था। तब खबर लिखने का एंगल ही बदल जाता, शीर्षक तो अपने आप बदल जाता। बदल जाता कि नहीं? लोगों का आकर्षित करता। करता कि नहीं? जारी....
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