आइए लेते हैं खबरों की खबर - ४
अजीब लग सकता है, पर है दुरुस्त। एक सूचना आई और आपने उसे बिना सोचे समझे खबर में ढाल दिया। खबर गई, छपी, पर कोई असर नहीं छोड़ पाई। आप ही का कोई प्रतिद्वंद्वी उस सूचना की मीन मेख निकालने लगा। कुछ सोचा, कुछ विचारा, कुछ बहस चलाई, क्यों-कैसे का सवाल उठाया और सूचना ने रुख बदल लिया, खबर बदल गई। वह और उसका हाउस छा गया। कैसे? आइए, इसे एक उदाहरण के साथ समझते हैं।
अभी कुछ दिनों पहले की बात है। शाम की बैठक में खबरों की प्रायरिटी तय हो रही थी। इनपुट हेड ने बताया कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से एक महत्वपूर्ण खबर है। पूछा गया - क्या? उन्होंने बताया - बीएचयू प्रशासन ने रैगिंग रोकने के लिए नई नीति बनाई है। पूछा गया - क्या? बताया गया - रैगिंग साबित होने पर इसमें लिप्त लड़के पर कड़ी कार्रवाई तो की ही जाएगी, यदि आरोप गलत निकला तो शिकायत करने वाले पर भी बीएचयू कार्रवाई करेगा। पूछा गया - क्या करेगा? उन्होंने बताया - उसे विश्वविद्यालय से निकाला भी जा सकता है।
सूचना जिस रूप में आई, उसके मुताबिक खबर का स्वरूप था - रैगिंग रोकने के लिए बीएचयू ने बनाई नई नीति। अब नीतियों में क्या-क्या है, इसे दूसरे शीर्षक, प्वाइंटर और बाडी में दीजिए। यह सीधी बात थी, सीधी सूचना थी, सीधा प्रयास था, सीधी खबर बनती, छपती और छपकर खत्म हो जाती। जी हां, खबर खत्म हो जाती। मगर नहीं। सोचने वाले ने सोचा, विचारा, बहस की और खबर बदल गई, उसकी आत्मा बदल गई और खबर कनेक्ट हो गई पूरे छात्र समूह और बीएचयू प्रशासन से। कैसे? आइए, आगे समझते हैं।
प्राथमिक सूचना के साथ जो बहस चली, उसका पहला सवाल था - ये क्या नीति है भई? रैगिंग होने वाला छात्र आखिर कैसे अपने आरोप को साबित करेगा? रैगिंग करने वालों का हुजूम होता है, इसीलिए तो वे भारी पड़ जाते हैं और मनमानी कर पाते हैं। अब एक लड़के की कुछ लड़के अकेले में घेर कर रैगिंग करते हैं तो वह इसे साबित कैसे करेगा, मुश्किल होगी। उसके पक्ष में बोलेगा कौन? यदि बोलने वाला बोलने की स्थिति में होता तो फिर रैगिंग की नौबत ही क्यों आती?
बहस का दूसरा जो बिंदु था, वह यह कि इससे रैगिंग पर रोक लगे न लगे, शिकायतें बंद जरूर हो जाएंगी। लड़के निष्कासन या कार्रवाई के भय से शिकायत ही नहीं करेंगे। तीसरी बात यह उभर कर सामने आई कि बीएचयू प्रशासन ने रैंगिंग रोकने की कवायद नहीं की है, रैगिंग की शिकायतों को खुद तक पहुंचने से रोकने की बुद्धि भिड़ाई है। खूब बहस चली और आखिर में संपादकीय क्रीमी लेयर ने माना कि यह सही है। अब सवाल था, इस खबर को लिखा कैसे जाए, छापा किस अंदाज में जाए।
बहस का रुख सवालिया था तो खबर भी सवालिया निशान छोड़ती बनाने का फैसला हुआ। फिर तय हुआ कि सूचना के आगे की बात रखती हो खबर। खबर के माध्यम से बीएचयू प्रशासन को कुछ सलाह दी जाए। खबर ऐसी बने कि बीएचयू प्रशासन को लगे कि कुछ गलत फैसला हो रहा है। छात्रों को लगे कि अखबार उनके साथ है। आम पाठक को भी लगे कि यह उनकी आवाज है, जो अखबार ने उठाई।
और बस। बन गई हेडिंग। यह थी - नई रैगिंग नीति से मुश्किल में होंगे पीड़ित छात्र। अब क्या यह बताने की जरूरत है कि खबर कैसी होगी, उसका वाक्य विन्यास क्या होगा? हेडिंग बन गई यानी खबर का खाका तैयार। खबर का खाका ठीक-ठाक खिंच जाए, इसके लिए बेहद जरूरी होता है कि मारक हेडिंग बन जाए। खैर, इस पर बात किसी और पोस्ट में। पर साहब, यकीन मानिए, इस खबर का जोरदार इंपैक्ट हुआ। इस खबर को लेकर पूरे विश्वविद्यालय परिसर में सनसनी रही और रही अखबार की चर्चा। फीडबैक पाकर संपादकीय टीम अगले रोज गदगद थी।
तो खबर थोड़ी बहस मांगती है, थोड़ा विचार और थोड़ा चिंतन-मंथन भी। प्रतिद्वंद्विता का दौर है, आगे निकलने की होड़। सोचना तो पड़ेगा न! आगे बताऊंगा शीर्षकों का तिलस्म। आखिर एक शीर्षक कैसे खबर को खींच ले जाता है, कैसे खबरों के बीच से यूं निकल आता है जैसे पानी के भीतर से हवा भरा गुब्बारा। इंतजार कीजिए।
अजीब लग सकता है, पर है दुरुस्त। एक सूचना आई और आपने उसे बिना सोचे समझे खबर में ढाल दिया। खबर गई, छपी, पर कोई असर नहीं छोड़ पाई। आप ही का कोई प्रतिद्वंद्वी उस सूचना की मीन मेख निकालने लगा। कुछ सोचा, कुछ विचारा, कुछ बहस चलाई, क्यों-कैसे का सवाल उठाया और सूचना ने रुख बदल लिया, खबर बदल गई। वह और उसका हाउस छा गया। कैसे? आइए, इसे एक उदाहरण के साथ समझते हैं।
अभी कुछ दिनों पहले की बात है। शाम की बैठक में खबरों की प्रायरिटी तय हो रही थी। इनपुट हेड ने बताया कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से एक महत्वपूर्ण खबर है। पूछा गया - क्या? उन्होंने बताया - बीएचयू प्रशासन ने रैगिंग रोकने के लिए नई नीति बनाई है। पूछा गया - क्या? बताया गया - रैगिंग साबित होने पर इसमें लिप्त लड़के पर कड़ी कार्रवाई तो की ही जाएगी, यदि आरोप गलत निकला तो शिकायत करने वाले पर भी बीएचयू कार्रवाई करेगा। पूछा गया - क्या करेगा? उन्होंने बताया - उसे विश्वविद्यालय से निकाला भी जा सकता है।
सूचना जिस रूप में आई, उसके मुताबिक खबर का स्वरूप था - रैगिंग रोकने के लिए बीएचयू ने बनाई नई नीति। अब नीतियों में क्या-क्या है, इसे दूसरे शीर्षक, प्वाइंटर और बाडी में दीजिए। यह सीधी बात थी, सीधी सूचना थी, सीधा प्रयास था, सीधी खबर बनती, छपती और छपकर खत्म हो जाती। जी हां, खबर खत्म हो जाती। मगर नहीं। सोचने वाले ने सोचा, विचारा, बहस की और खबर बदल गई, उसकी आत्मा बदल गई और खबर कनेक्ट हो गई पूरे छात्र समूह और बीएचयू प्रशासन से। कैसे? आइए, आगे समझते हैं।
प्राथमिक सूचना के साथ जो बहस चली, उसका पहला सवाल था - ये क्या नीति है भई? रैगिंग होने वाला छात्र आखिर कैसे अपने आरोप को साबित करेगा? रैगिंग करने वालों का हुजूम होता है, इसीलिए तो वे भारी पड़ जाते हैं और मनमानी कर पाते हैं। अब एक लड़के की कुछ लड़के अकेले में घेर कर रैगिंग करते हैं तो वह इसे साबित कैसे करेगा, मुश्किल होगी। उसके पक्ष में बोलेगा कौन? यदि बोलने वाला बोलने की स्थिति में होता तो फिर रैगिंग की नौबत ही क्यों आती?
बहस का दूसरा जो बिंदु था, वह यह कि इससे रैगिंग पर रोक लगे न लगे, शिकायतें बंद जरूर हो जाएंगी। लड़के निष्कासन या कार्रवाई के भय से शिकायत ही नहीं करेंगे। तीसरी बात यह उभर कर सामने आई कि बीएचयू प्रशासन ने रैंगिंग रोकने की कवायद नहीं की है, रैगिंग की शिकायतों को खुद तक पहुंचने से रोकने की बुद्धि भिड़ाई है। खूब बहस चली और आखिर में संपादकीय क्रीमी लेयर ने माना कि यह सही है। अब सवाल था, इस खबर को लिखा कैसे जाए, छापा किस अंदाज में जाए।
बहस का रुख सवालिया था तो खबर भी सवालिया निशान छोड़ती बनाने का फैसला हुआ। फिर तय हुआ कि सूचना के आगे की बात रखती हो खबर। खबर के माध्यम से बीएचयू प्रशासन को कुछ सलाह दी जाए। खबर ऐसी बने कि बीएचयू प्रशासन को लगे कि कुछ गलत फैसला हो रहा है। छात्रों को लगे कि अखबार उनके साथ है। आम पाठक को भी लगे कि यह उनकी आवाज है, जो अखबार ने उठाई।
और बस। बन गई हेडिंग। यह थी - नई रैगिंग नीति से मुश्किल में होंगे पीड़ित छात्र। अब क्या यह बताने की जरूरत है कि खबर कैसी होगी, उसका वाक्य विन्यास क्या होगा? हेडिंग बन गई यानी खबर का खाका तैयार। खबर का खाका ठीक-ठाक खिंच जाए, इसके लिए बेहद जरूरी होता है कि मारक हेडिंग बन जाए। खैर, इस पर बात किसी और पोस्ट में। पर साहब, यकीन मानिए, इस खबर का जोरदार इंपैक्ट हुआ। इस खबर को लेकर पूरे विश्वविद्यालय परिसर में सनसनी रही और रही अखबार की चर्चा। फीडबैक पाकर संपादकीय टीम अगले रोज गदगद थी।
तो खबर थोड़ी बहस मांगती है, थोड़ा विचार और थोड़ा चिंतन-मंथन भी। प्रतिद्वंद्विता का दौर है, आगे निकलने की होड़। सोचना तो पड़ेगा न! आगे बताऊंगा शीर्षकों का तिलस्म। आखिर एक शीर्षक कैसे खबर को खींच ले जाता है, कैसे खबरों के बीच से यूं निकल आता है जैसे पानी के भीतर से हवा भरा गुब्बारा। इंतजार कीजिए।
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