Saturday, March 23, 2013

ना ना ना ना

डगर कहता है
जरा संभल ना
मगर कहता हूं
ना ना ना ना

हिसाबों में हम
किताबों में हम
सवालों में हम
जवाबों में हम

जिगर कहता है
जरा मचल ना
मगर कहता हूं
ना ना ना ना

ओ काली जुल्फें
नशीली आंखें
ये मस्त जवानी
बड़ी मस्तानी

शहर कहता है
जरा बदल ना
मगर कहता हूं
ना ना ना ना

लंबी गलियां
ऊंची कलियां
टेढ़ी सड़कें
चलने ना दें

सफर कहता है
जरा सा रुक ना
मगर कहता हूं
ना ना ना ना

सूना दफ्तर
पसीने से तर
नगीना घर है
कमीना बिस्तर

असर कहता है
जरा फिसल ना
मगर कहता हूं
ना ना ना ना

सरेंडर दिन है
कैलेंडर रातें
मगर कहता हूं
ना ना ना ना

होश में हैं लोग
जोश में हैं हम
मगर कहता हूं
ना ना ना ना

लंबी राहें
पुकारें आ जा
मगर कहता हूं
ना ना ना ना

बताए रस्ता
इधर से ही जा
मगर कहता हूं
ना ना ना ना

कोई जो बोले
कि बोलो हां हां
मगर कहता हूं
ना ना ना ना

ना ना ना ना
ना ना ना ना 

(नोट - २३ मार्च २०१३ की भोर में टार्च की लाइट में लिखी कविता)

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