मैंने देखा है, जब भी सकारात्मक सोचों पर किसी बुजुर्ग या विद्वान से चर्चा कीजिए, वे पानी से आधा भरे ग्लास का उदाहरण देकर गर्व से अपना सीना चौड़ा कर लेते हैं। वाह, क्या बोला मैंने। आपके सामने एक ग्लास है, जो पानी से आधा भरा हुआ है। विद्वानों का कहना है कि जो ग्लास को आधा भरा देखता है, वह सकारात्मक सोच रखता है। जो इसे आधा खाली देखता है, वह नकारात्मक सोच वाला है। मेरा मानना है कि भेद इससे बहुत स्पष्ट नहीं होता। इस भेद में कहीं न कहीं बड़ा छेद है। एक ग्लास आधा भरा है तो आधा खाली भी तो है। व्यक्ति की दृष्टि आधे भरे ग्लास के साथ उसके आधे खालीपन को भी देख पाती है तो मेरी समझ से तो यही बड़ी अच्छी बात है। किसी को आधा खाली ग्लास में सिर्फ उसका आधा भरा होना ही दिखाई दे, एक तो यह संभव नहीं, दूसरे यदि जबरदस्ती इसे संभव बनाया जाय तो मेरी समझ से यह एक बड़े तथ्य और स्थापित सच से इनकार करने वाली सोच है। है कि नहीं? सकारात्मक सोच का मतलब किसी सच को नकारना नहीं होता। एक बार इसकी आदत पड़ गयी तो आगे जीवन दुरुह होती चली जायेगी और मूल को पकड़ना, समझना और उस पर अमल करना बिल्कुल असंभव हो जायेगा।
तो फिर क्या है सकारात्मक सोच, जिससे व्यक्ति का व्यक्तित्व खिल उठता है? क्या है नकारात्मक सोच, जिससे व्यक्ति की मिट्टी पलीद हो जाती है, जीवन के मायनों में वह फेल हो जाता है, घृणा का पात्र बन जाता है? और सबसे महत्वपूर्ण सवाल कि नकारात्मक सोचों से किनाराकशी कर सकारात्मक सोचों के रथ पर कोई कैसे सवार हो? है न विचार करने की बात? फिलहाल मोटे तौर पर सकारात्मक और नकारात्मक सोचों को परिभाषित करने वाली जो विषय वस्तु है, उस पर विचार कीजिए। जिन सोचों से सहानुभूति, प्यार, परोपकार, स्वीकार, दोस्ती, आत्मीयता, विश्वास, भरोसा, सहजता और ईमानदारी का प्रस्फुटन होता हो, उन्हें सकारात्मक मानिये। जिन सोचों से हिंसा, द्वेष, घृणा, इनकार, दुश्मनी, अविश्वास, बेईमानी, चिंता व तनाव बढ़ते हों, उन्हें नकारात्मक मानिये। आपके हाथों में कोई घातक हथियार है तो इसका मतलब यह नहीं कि आप उससे मार-काट मचाने का ही काम करें। आप इसका इस्तेमाल किसी की रक्षा के लिए भी कर सकते हैं। तो हाथ में हथियार हो और उससे किसी का नुकसान न हो, बल्कि सोचों में हमेशा यह गूंजे कि इसे हमेशा किसी के रक्षार्थ ही इस्तेमाल करना है तो उस सोच को सकारात्मक मानिये। आपके पड़ोसी ने कार खरीद ली और रोज आपके सामने से वह धुआं उड़ाता फुर्र होता है। इस परिघटना से आप कार खरीदने का मन बना लें और उद्यम कर, पैसे इकट्ठा कर कार खरीद लें, तब तो यह सकारात्मक सोच है। पर, आप कार नहीं खरीद पाने की सूरत में पड़ोसी की कार को ऐन-केन-प्रकारेण क्षतिग्रस्त कर दें या करने की सोचें तो इस सोच को नकारात्मक मानिये। कुछ सूत्र हैं, कुछ उदाहरण हैं, जिनसे बातें और स्पष्ट होंगी। व्यक्तित्व विकास के इस महत्वपूर्ण पहलू पर अभी चर्चा जारी रहेगी।
किसी लकीर को छोटा दिखाना हो तो उसकी बगल में बड़ी लकीर खींच दीजिए।
बहुत अच्छा आलेख। सकारात्मक और नकारात्मक का भेद बिलकुल स्पष्ट कर दिया है।
ReplyDelete- आनंद
बहुत सुंदर...आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्लाग जगत में स्वागत है.....आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्त करेंगे .....हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी शुरुआत की है आपने. स्वागत ब्लॉग परिवार और मेरे ब्लॉग पर भी. (gandhivichar.blogspot.com)
ReplyDeleteBade khoobsoorat dhang se pesh kiya hai..."always better to proactive than reactive", is sandeshko !
ReplyDeleteAbhinandan hai shubhkamnayon sahit swagat hai...!
स्वागत है आपका, लिखते रहें और ख़ूब लिखें।
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