Saturday, January 10, 2009

मैं रात में ही मर गया

जिगर को थाम कर किस्सा सुनो, मिला मुझको जो वो हिस्सा सुनो।
सुनाऊं मैं कहानी रात की वारदात की, मुफलिस जिंदगी व बेबस हालात की।
एक दिन ऐसा हुआ, मैं सिनेमाघर गया,
देखकर के भीड़ सुनो, जोश मेरा कम हुआ।
खिड़की के ही पास खड़ा था एक मुस्टंडा,
मूंछें उसकी लंबी थीं, हाथ में था डंडा।
उसकी ये आदत थी, भीड़ को भगाता था,
थोड़ी ज्यादा दे दो तो टिकट भी कटवाता था।
हालात की ये मांग थी, मैं गया उसी के पास,
आठ के बदले साठ देकर पूरी हो गयी मेरी आस।
छह से नौ का शो था, नौ बजे टुट गया,
बाहर निकला, पता चला कि भीतर में मैं लुट गया।
हाथ डाला जेब में, तो जेब बाहर आ गयी,
भीड़ में ही मैं गया था, भीड़ ही रुला गयी।
सोचा, इसकी रपट लिखवा दूं बगल के थाने में,
दारोगा जी गायब थे, मुंशी जी थे पाखाने में।
ऐ बेहूदे, कौन है, आवाज कानों में आयी,
घूमकर देखा तो एक पुलिस नजर आयी।
गाली मैं खा चुका था, बारी फिर पिटने की थी,
एक बार मैं लुट चुका था, बारी फिर लुटने की थी।
बड़ी गरीबी से वो बोला, थाने में क्यों आये हो?
काम क्या है, पास में माल कितना लाये हो?
जब सुना कि माल क्या, एक लाल न मेरे पास था,
मारा थप्पड़, चला गया, करने वो जो खास था।
सोचा, कि जब हाल ये है एक सिपाही का ऐसा,
तो मुंशी कैसा होगा और दारोगा होगा कैसा?
ये भी यह संयोग था, सड़क पर मिल गये एसपी,
जीप रोकी पास में और बोले- तूने क्या है पी?
रात इतनी हो गयी और सड़क पर टहलते हो?
बैठ जाओ जीप में, तुम हवालात में चलते हो।
क्या करूं बातें मैं हवालात के हालात की,
कोई न वहां कमी रही, न हवा की न लात की।
सीखचों से मैंने देखा, अपने नेता आये थे,
जिनको हमने वोट दिया था, जिनको हम जीताये थे।
हाथ में गलास था और पी रहे थे थाने में,
कह रहे थे, भेज दो इसको जनाजेखाने में।
और सुनो दोस्तों, मैं रात में ही मर गया,
एक उग्रवादी सुबह को, शहर से कम कर गया।


परछाई भी साथ छोड़ देती है, जब अंधेरा होता है।

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