अब आदमी सोचता है। जो जैसा है, जहां है, जिन परिस्थितियों में है, वह वहां उसी के अनुरूप सोचता है। बच्चा, किशोर, जवान, बूढ़ा, बीमार, यहां तक कि बेहोश व्यक्ति तक सोचता है। अब आपने सोचा कि सामने वालों को गाली दे दी जाय, आपने दी और पिट गये, बेइज्जत हो गये। आपने सोचा कि दारू पीकर थोड़ी मस्ती की जाय, आपने पी और गड्ढे में उलटकर सरेआम फजीहत करा बैठे, इज्जत मिट्टी में मिला ली। आपने सोचा कि नाराज चल रहे व दुश्मन बन चुके व्यक्ति से बात कर अपना पक्ष रख दिया जाय, माफी मांग ली जाय, नमस्कार कर लिया जाय, आपने किया और दुश्मनी खत्म, वह आपका मित्र बन गया।
तो आदमी जैसा सोचता है, वैसा करता है। करता है न? एक बच्चे का एक्जाम है, वह हाय-तौबा मचाये हुए हैं, मंदिर जा रहा है, भगवान को प्रसाद चढ़ा रहा है, कोर्स कंपलीट नहीं कराने को लेकर टीचर को कोस रहा है, पर पढ़ाई-पढ़ने के बारे में नहीं सोच रहा है। क्या वह पास कर पायेगा? एक व्यक्ति बॉस की डांट खा रहा है तो वह उदास है, निराश है, वह चारों तरफ अपना दीदा फाड़ रहा है, गुटबंदी कर रहा है, बॉस के बॉस से बॉस की शिकायत की सोच रहा है, पर वह अपनी गल्तियों के बारे में नहीं सोच रहा, अपना काम ऐन चौकस करने की नहीं सोच रहा है। तो क्या वह उचित सम्मान का भागी हो पायेगा, उसे उसका हक मिल पायेगा? तो यह बहुत जरूरी है कि सोचों की दिशा तय की जाय। क्या सोचना है और क्या नहीं सोचना है इस पर गंभीरता से विचार किया जाय। एक बार इस पर विचार करने का भान हो गया तो बातें खुद-ब-खुद आगे बढ़ने लगेंगी। इस लेख के माध्यम से मेरी कोशिश आपको जगाना भर ही तो है। व्यक्तित्व विकास के इस महत्वपूर्ण पहलू पर अभी चर्चा जारी रहेगी।
इस पर भी करें विचार - सोचें जब गहरी हो जाती हैं तो फैसले कमजोर पड़ जाते हैं।
Sahi kaha.
ReplyDeleteअच्छा लगा। जानकारियां सटीक थीं। आगे भी पढ़ना चाहूंगा - रविकांत, पटना।
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