Thursday, November 13, 2014

खबर साफ्ट तो हेडिंग हार्ड - 1

खबरों की जान है शीर्षक - 5

आइए लेते हैं खबरों की खबर - 9

आसान है साफ्ट खबरों के लिए हार्ड हेडिंग लगाना, बहुत ही आसान है। शर्त सिर्फ एक ही है कि आपको उस खबर में डूबना होगा, डूबना होगा, खबर की भावनाओं को आत्मसात करना होगा। ऐसा कौन कर सकता है, सवाल यह भी है। ऐसा नहीं है कि आपको कहा कि आप खबर में डूब जाएं, आप डूब गए और हेडिंग निकल आई। कभी-कभार तो ऐसा हो सकता है और परिणाम काफी सुखदकारी हो सकता है, पर आपकी लेखनी लगातार ऐसे शीर्षक उगलती रहें, इसके लिए यह भी जरूरी है कि आप लगातार अध्ययनशील हों, भ्रमणशील हों, बहुत सारा प्यार का जज्बा हो तो अंदर से गुस्सा भी फूटे। और यह सब कुछ हुआ तो हार्ड खबर की साफ्ट या साफ्ट खबर की हार्ड हेडिंग निकलने में देरी नहीं होने वाली। खबरों की जान हैं शीर्षक के पहले आलेख में मैं जिन तीन कहानियों और उनके शीर्षकों क्रमशः मुखियों की फौज मार रही मौज, पछुआ ने लीची को लूटा व सपने चूमेंगे आसमान का जिक्र कर चुका हूं, वे यही हैं, साफ्ट खबर की हार्ड हेडिंग। आइए, कुछ और उदाहरणों से समझते हैं, निश्चित रूप से तस्वीर साफ होगी।

उदाहरण एक - विश्व कैंसर दिवस पर खबर बननी थी। संवाददाता ने जो खबर दी, वह आंकड़े पेश कर रही थी। साल दर साल बढ़ते कैंसर मरीजों के। खबर यह भी बता रही है कि किस-किस प्रकार के कैंसर होते हैं और इलाका विशेष में किस प्रकार का कैंसर पनप रहा है। फोकस क्यों पर भी था। सबसे बाद में थी उस जिले में कैंसर की जांच और इलाज की व्यवस्था का हाल। पूछने पर बताया गया कि कैंसर तो लाइलाज ही होता है। अब इसके लिए क्या और कैसे खबर बनाई जाए। आंकड़ों की बात है और बात यह है कि इस इलाके में भी यह रोग बढ़ रहा है। खबर में डूबने की बात थी और डूबा मन कह रहा था कि सारी बातें किस्तों में छप चुकी हैं। इसकी तो कोई हार्ड हेडिंग होनी चाहिए, व्यवस्था पर चोट करने वाली हेडिंग होनी चाहिए, हेडिंग ऐसी होनी चाहिए कि कल अखबार में दिखे तो सिर्फ यही। कल शहर की जुबां पर चर्चा हो तो सिर्फ इसी एकमात्र हेडिंग की।

शुरू हुई मशक्कत। संवाददाता के साथ ब्रेन स्टार्मिंग। पूछा, कैंसर के इतने रूप आपके इलाके में पसर गए हैं, क्या यह बात सिर्फ आपको मालूम है? जवाब - नहीं, महकमे के सभी अधिकारी इस बात को जानते हैं, आंकड़े तो विभाग से ही लिए गए हैं। सवाल - अच्छा, तो उन्होंने क्या किया? जवाब - क्या करते, बस बातें करते हैं, करना तो सरकार को है। सवाल - सरकार को यानी? जवाब - सर, राजधानी में कैंसर अस्पताल है, यहां तो बस एक यूनिट बनाकर उसे कैंसर यूनिट का नाम दे दिया है। यहां जांच की तो सुविधा ही नहीं है, इलाज कहां से करेंगे? सवाल - तो क्या करते हैं अस्पताल में? जवाब - सही मायने में देखा जाए सर तो मरीजों को इलाज के नाम पर बरगलाते हैं, उनका समय खराब करते हैं और बात जब बूते से बाहर हो जाती है तो मरीज को राजधानी रेफर कर देते हैं।

रिपोर्टर की बात भयानक थी। खबर निश्चित रूप से साफ्ट थी। कैंसर दिवस विशेष पर छपने वाली थी, मगर नेचर हार्ड हो रहा था, सो हेडिंग भी हार्ड बनी। क्या? थोड़ी देर सोचिए, सूझे तो ठीक, न सूझे तो अगली लाइन पढ़िए। डाक्टरों का मरीजों को बरगलाकर टाइम खराब करने वाली बात हैमर कर रही थी, यही पाठकों को बताने को विवश भी कर रही थी। जो डाक्टर मरीज के अंतिम क्षणों में कह रहे थे, अखबार उसे पहली लाइन में ही कह देना चाहता था। हेडिंग बनी - कैंसर है, भागिए पटना। इसकी दूसरी हेडिंग थी- इलाज तो छोड़िए यहां जांच की भी नहीं है व्यवस्था। खबर छपी। वह दिन था, अखबार था, व्यवस्था थी, इलाके का पाठक वर्ग था। सब एक दूसरे में समाहित। एक ही आकर्षण - कैंसर है तो भागिए पटना।

बहुत दिनों के बाद लिखा, लेकिन जहां तक मैं समझता हूं, खबर साफ्ट तो हेडिंग हार्ड, के तहत प्रेरक शुरुआत हो गई है। इस पर अभी और बातें होंगी। उदाहरण दो के साथ आएगी अगली पोस्ट, इंतजार कीजिए। 

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