जिनके दिल में पूरे हिन्दुस्तान का दर्द बसा था, जिनका जीवन अंधकार के खिलाफ रोशनी की तलाश और बेचैनी में बीता, उनका गांव बेनीपुर पूरी दुनिया से विदा ले रहा है और सबको राम-राम-राम कह रहा है। कोई काम न आया और फिर आया 23 दिसंबर। आंदोलन के पर्याय, चिरविद्रोही, बिहार में समाजवाद के प्रथम प्रकल्पक, किसान आंदोलन के अग्रणी, निर्भीक पत्रकार व साहित्य के आकाश रामवृक्ष बेनीपुरी की जयंती मनाने का दिन। निश्चित रूप से इस रोज बेनीपुरी जी का देशभर में गुणगान किया जाएगा, पर वह धरती, जहां उन्होंने जन्म लिया, खेले, जवान हुए, आज 'बाय-बाय’ कर रही है।
जी हां, हर साल बागमती नदी का कहर झेलता, उत्तरी-दक्षिणी तटबंधों के बीच बसा और गुड़हन से ढंका यह गांव पांच वर्षों में 12 से 14 फुट जमीन के अंदर समा चुका है। कभी बिजली के लिए यहां लगा पोल खूंटे की तरह दिखता है। जिस मकान में बेनीपुरी जी का जन्म हुआ, उसी के सामने 1987 में लगाई गई थी उनकी प्रतिमा। इस पर उचक कर माला चढ़ाई जाती थी, आज वह एक साधारण आदमी के कद से भी नीचे हो गई है।
मुजफ्फरपुर से सीतामढ़ी के रास्ते में जनाढ़ से दाएं फूटता है बेनीपुर का रास्ता। मगर, पूरे सफर में कहीं कोई निशान नहीं मिलेगा, जिससे लगे कि आप राष्ट्र की धरोहर की ओर बढ़ रहे हैं। जनाढ़ से मुड़ते ही एक किलोमीटर पर मिलेगा मुजफ्फरपुर-सीतामढ़ी रेल लाइन के लिए बागमती पर बनता पुल। इसके नीचे से नदी पार करिए। मिलेगी पगडंडी, गुड़हन से ढंकी। रास्ता बताने वाला न हो तो भटक जाएंगे। बालू में धंसते पांवों के साथ चलिए करीब डेढ़ किलोमीटर, फिर आएगा बेनीपुर। कृषि कार्यों से दूर, गरीबी से कराहता, भूख और बीमारी से जूझता गांव।
लोग विस्थापितों की श्रेणी में हैं। करीब तीन किलोमीटर दूर बागमती बांध के पार एक दूसरा बेनीपुर बसाने की घोषणा हो चुकी है। पर, लोग वहां जाएं कैसे? पुनर्वास और मुआवजा की टकटकी है। इसी साल 30 जनवरी को गांव में ही प्रमंडलीय आयुक्त ने घोषणा की थी कि जून तक सभी को पुनर्वासित किया जाएगा, पर दिसंबर आ गया। लोग तैयार हैं, बस उचित फैसले का इंतजार है। इस गांव की एक सबसे बड़ी मांग यह है कि न घर रहा न खेती, सरकार कम से कम सभी को अंत्योदय योजना से जोड़ दे, ताकि दो जून रोटी का जुगाड़ हो जाए, ताकि भूखों मरना न पड़े।
जी हां, हर साल बागमती नदी का कहर झेलता, उत्तरी-दक्षिणी तटबंधों के बीच बसा और गुड़हन से ढंका यह गांव पांच वर्षों में 12 से 14 फुट जमीन के अंदर समा चुका है। कभी बिजली के लिए यहां लगा पोल खूंटे की तरह दिखता है। जिस मकान में बेनीपुरी जी का जन्म हुआ, उसी के सामने 1987 में लगाई गई थी उनकी प्रतिमा। इस पर उचक कर माला चढ़ाई जाती थी, आज वह एक साधारण आदमी के कद से भी नीचे हो गई है।
मुजफ्फरपुर से सीतामढ़ी के रास्ते में जनाढ़ से दाएं फूटता है बेनीपुर का रास्ता। मगर, पूरे सफर में कहीं कोई निशान नहीं मिलेगा, जिससे लगे कि आप राष्ट्र की धरोहर की ओर बढ़ रहे हैं। जनाढ़ से मुड़ते ही एक किलोमीटर पर मिलेगा मुजफ्फरपुर-सीतामढ़ी रेल लाइन के लिए बागमती पर बनता पुल। इसके नीचे से नदी पार करिए। मिलेगी पगडंडी, गुड़हन से ढंकी। रास्ता बताने वाला न हो तो भटक जाएंगे। बालू में धंसते पांवों के साथ चलिए करीब डेढ़ किलोमीटर, फिर आएगा बेनीपुर। कृषि कार्यों से दूर, गरीबी से कराहता, भूख और बीमारी से जूझता गांव।
लोग विस्थापितों की श्रेणी में हैं। करीब तीन किलोमीटर दूर बागमती बांध के पार एक दूसरा बेनीपुर बसाने की घोषणा हो चुकी है। पर, लोग वहां जाएं कैसे? पुनर्वास और मुआवजा की टकटकी है। इसी साल 30 जनवरी को गांव में ही प्रमंडलीय आयुक्त ने घोषणा की थी कि जून तक सभी को पुनर्वासित किया जाएगा, पर दिसंबर आ गया। लोग तैयार हैं, बस उचित फैसले का इंतजार है। इस गांव की एक सबसे बड़ी मांग यह है कि न घर रहा न खेती, सरकार कम से कम सभी को अंत्योदय योजना से जोड़ दे, ताकि दो जून रोटी का जुगाड़ हो जाए, ताकि भूखों मरना न पड़े।
एक शायर का कलाम - कल तक जिसके वजूद पर तूने कई खत लिखे थे उम्मीद के, अभी हाल की बात है, वो दरख्त प्यार का जल गया।
बहुत दुख हुआ इस गांव ओर इस के वासियो के बारे सुन कर, कितना दुख होता हे जब अपना बस बसाया घर ओर जमीन छोडनी पडे, धन्यवाद इस समाचार के लिये
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