Sunday, December 13, 2009

इन्हें लाश की राजनीति में भी शर्म नहीं आती!

किसी अपराधी की लाश और देश को बचाने के लिए मौत को गले लगा लेने वाले शहीदों की लाश में कोई फर्क नहीं???

रविकांत प्रसाद

प्रसंग-एक : निठारी कांड का एक पात्र सुरेन्द्र कोली, जो छोटे-छोटे बच्चों को टुकड़ों में काटकर उसका गोश्त खाता था। फिलहाल जेल में हैं। कोली की चर्चा छिड़ते ही लोगों के चेहरे पर घृणा के भाव उभर आते हैं, जबकि वह अपने जुर्म की सजा भुगत रहा है। कोली जैसे हत्यारे ने अपने जघन्य अपराध को माना।

प्रसंग-दो : दिल्ली में गए वर्ष हुए एक बम विस्फोट की जानकारी जब तत्कालीन गृह मंत्री को मिली तो उन्होंने पहले सूट बदला, पाउडर चपोड़े, फिर देखने गए कि कितने लोग मारे गए हैं? गृह मंत्री ने मरे लोगों के शवों पर कथक करने से पहले खुद को सजा-संवार लिया था। इस घटना के कुछ ही माह बाद ये पद से हट गए, परंतु इन्हें कभी पछतावा नहीं हुआ।

प्रसंग-तीन : झारखंड राज्य बनने के पहले राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद बिहार के मुख्यमंत्री थे। इन्होंने एक भाषण में कहा था कि उनके शव पर ही राज्य का बंटवारा होगा। यानी जीते जी वे बंटवारे की बात को स्वीकार नहीं करेंगे। कुछ दिनों बाद झारखंड स्वतंत्र राज्य बना। लालू प्रसाद अब भी राजनीति कर रहे हैं। इन्हें कोई पछतावा नहीं कि झारखंड बनने से बिहार कमजोर हो गया।

सतीश श्रीवास्तव जी, आपके लेख जलियांवाला बाग के खानदान ही खत्म! मैंने पढ़ा। आपको बधाई कि आपने एक ऐसे विषय को छुआ, जिसे लाशों पर राजनीति करने वाले इतिहास का मरा पात्र भी मानने को तैयार नहीं हैं। आपके लेख से मस्तिष्क में 'आइला' उठा, उसे शांत करने के लिए उक्त प्रसंगों का सहारा लेना पड़ा। जिस देश के नेता को जलियांवाला बाग के शहीद को शहीद मानने में परेशानी हो रही है, इनके लिए कौन-सा शब्द इस्तेमाल किया जाए। इसपर पर गंभीरता से विचार करना होगा?

हाल ही में मनसे नेताओं ने सपा विधायक अबू आजमी को हिन्दी में शपथ लेने के लिए प्रताडि़त किया था। मनसे नेताओं को शायद मां को मां कहने में भी शर्म आती है। ऐसे विचारधारा के नेता भला शहीद को शहीद आसानी से कैसे कहेंगे, कैसे मान लेंगे।

जलियांवाला बाग की घटना तो भारतीय के मुंह पर अंग्रेजों का एक ऐसा तमाचा था, जिससे भारतीय टूट जाए, झूक जाए। परंतु इसी घटना ने भारत में आजादी की ऐसी मशाल जलाई, जिसमें अंग्रेज धू-धूकर जल गए। केन्द्र व राज्य सरकारों ने स्वतंत्रता सेनानियों को तो कई सुविधाएं दीं, क्योंकि ये जिंदा हैं, वोट दे सकते हैं, इन्हें गद्दी पर बिठा सकते हैं। परंतु 1919 में घटी जलियांवाला बाग की घटना के शहीदों को अबतक शहीद का दर्जा न मिलना वास्तव में चिंतनीय है। इसमें मारे गए शहीदों की गिनती भी नेताओं को सही से याद नहीं है।

जहां अंग्रेजी हुकूमत की पंजाब सरकार की रिपोर्ट में बाग में 379 लोगों के मारे जाने की बात स्वीकारी गई थी, वहीं अमृतसर सेवा सोसायटी ने उसी समय 530 शहीदों की सूची तैयार की थी। जबकि, आजाद भारत सरकार का कोई आधिकारिक दस्तावेज अब तक जलियांवाला बाग में मारे गए लोगों को शहीद ही नहीं मानता। यह हैरत भरा है। शहीद हरिराम बल के पौत्र भूषण बहल 1980 से जलियांवाला बाग के शहीदों को स्वतंत्रता सेनानी घोषित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अब वह 60 के हो चुके हैं। इनके संघर्ष का ही नतीजा है कि सोलह लोगों के वारिसों का पता लग गया है।

सरकार में थोड़ी सी भी चेतना बची हो, थोड़ा सा भी देशप्रेम बचा हो तो उसका पहला काम जलियांवाला बाग के शहीदों और शहीदों के परिवारों को सम्मान दिलाना ही होना चाहिए। पर, ऐसा हो पाएगा, कहना मुश्किल है। देखना यह है कि लाश की राजनीति करने वाले गली में किसी मुठभेड़ में मार गिराए गए अपराधी की लाश और देश को बचाने के लिए मौत को गले लगा लेने वाले शहीदों की लाश में कब फर्क करते हैं?

(प्रखर पत्रकार श्री रविकांत प्रसाद से आप www.journalism-ravikant.blogspot.com पर मिल सकते हैं।- कौशल)

4 comments:

  1. अभी कोई उम्मीद नही है ....

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  2. लाश तो लाश है जी, ये राजनीती है ही ...ड़वों का खेल !!!

    सलीम खान

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  3. gande aur ghinaavne khel ka ek lamaabaa silsila chalaa a raha hai...

    band toh hoga

    magar kab hoga ?

    ye wakt hi bataayega......

    __bahut hi saarthak post

    __badhaai !

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  4. what a mind you have. you are the reasearcher. yor new step is fine. This can give great result in future.

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