Thursday, January 29, 2009

खामोशियों की आवाज

मैंने सुनी है बंद कमरे और सौ वाट के प्रकाश में,
खामोशियों की आवाज,
कभी लयबद्ध तो कभी बेअंदाज,
न था कोई साजिंदा, न था कोई साज,
बस मैं था, मेरी खामोशियां थीं, और थी,
फूंक मार कर छू-मंतर कर देने वाली मेरी अपनी आवाज ।
मैं सुन ही नहीं, देख भी रहा था,
आवाज का अंदाज,
मैं देख रहा था, वह कोई और था,
जो दफ्तर में था, जो सड़क पर था,
जो खुले दरवाजे वाले कमरे में था,
जो बंद कमरे में और सौ वाट के प्रकाश में था ।
इतना वीभत्स, इतना काला कि कोयला भी शरमा जाय,
शैतानियत इतनी कि शैतान को भी बेहोशी आ जाय,
कहीं शान का गुरुर तो कहीं मोहब्बत का सुरुर,
इजहारे ईमानदारी की आड़ में, करते बेईमानी जरूर,
और सुबह जब बल्ब बुझ गया था,
फिर भी मैंने सुनी, खामोशियों की आवाज,
मगर, सिर्फ आवाज, उनमें कहीं कोई खामोशी नहीं थी,
थी हत्या, अपहरण, लूट, चोरी,
दंगा-फसाद और... और बलात्कार,
सिर्फ मजलुमों की चीखें... चीखें,
और फरियाद लगाती आवाज,
जो खामोशियों के दम पर जिंदा थी,
जिनसे खामोशियां खो चुकी थीं...... ।

धमकी देने का मतलब आप दुश्मन को सतर्क कर रहे हैं। अपना स्टेमिना खो रहे हैं, यह दूसरा पहलू है।

2 comments:

  1. बढ़िया, बहुत दिनों के बाद हृदय को झकझोरने वाली कविता पढ़ी। - अनोज (राजस्थान)

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  2. न था कोई साजिंदा, न था कोई साज,
    बस मैं था, मेरी खामोशियां थीं, और थी,...


    सिर्फ मजलुमों की चीखें... चीखें,
    और फरियाद लगाती आवाज,

    बहुत खूब क्रांतिकारी कविता ....बहुत अच्छा लिखा है आपने


    अनिल कान्त
    मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

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