और आप दफ्तर पहुंच गये। गेट पर दरबान नमस्कार कर रहा है। आप उसकी ओर देख नहीं रहे। रिशेप्शन पर बैठा कोई शख्स, दफ्तर में मौजूद कोई कर्मचारी आपके सम्मान में खड़ा हो रहा है, आपकी गर्दन में बल नहीं पड़ रहा। आपकी टेबल साफ है, फाइलें करीने से लगी हैं, सभी रिपोर्ट टेबल पर सही-सलामत पड़ी है, गलास में साफ और ताजा पानी भरा है। यदि ये सब नहीं हैं तो कोई आपके आदेश पर हुक्म बजाने को बिल्कुल तैयार, चौकस खड़ा है, आपकी ओर देख रहा है। आपके एक-एक हुक्म पर वह जी-जान से दौड़ता काम बजा रहा है। और आप क्या कर रहे हैं? हेकड़ी दिखा रहे हैं। मानवोचित व्यवहार तो दूर, खामियां निकालने में लगे हैं, अपमानित करने में लगे हैं। क्या आपको इन सबके प्रति शुकराना अदा नहीं करना चाहिए? आप बाजार निकलते हैं। आटो पकड़ते हैं, टैक्सी पकड़ते हैं, बस पकड़ते हैं। वह आपको आपकी मंजिल पर पहुंचाता है। आपने भाड़ा चुकाया, किस्सा खत्म। क्या इंसानी जज्बों को मुकाम मिल गया? आप उन्हें शुक्रिया बोलकर देखिए। जो होगा महसूस कीजिए। हो सकता है, शुक्रिया सुनकर कोई आपकी बांहें थाम ले, आंसू भरी आंखों से आपको सलाम करे। आपकी आत्मा प्रसन्न हो जायेगी। आप महसूस कर पायेंगे कि आपकी एक शुक्रिया किसी के जीवन में किस कदर क्रांतिकारी व सुखद परिवर्तन ला पायी।
आदमी की औकात क्या है? कभी सोचा आपने? जरा सोचिए। विशाल सागर, चारों ओर अथाह जलराशि। लहरें ठाठें मार रही हैं। इसी अथाह जलराशि के बीच लहरों के साथ अपने वजूद को बचाने का संघर्ष करता, आगे बढ़ता एक बहुमंजिला जहाज। हर मंजिल पर अफरातफरी। इसकी सबसे निचली मंजिल। दर्जनों कमरे। आलू के बोरों से भरा आखिरी कमरा। इस पैक कमरे के कोने में रखा आलू का सबसे निचला बोरा। इस बोरे के भीतर सबसे नीचे का एक आलू, जो सड़ गया है। सड़े आलू में मौजूद एक कीड़ा। और यह कीड़ा सोच रहा है कि वह सागर के मैकेनिज्म को समझ लेगा, जान लेगा। बड़ी मुश्किल कि वह आलू के बोरे से निकल पाये। वहां से निकला तो कमरे से निकल पाने की ही कोई गारंटी नहीं। फिर कैसे तय पायेगा अपनी मंजिल? कहां खत्म हो जायेगा, किसके पैरों तले कुचल जायेगा, पता नहीं। फिर कीड़े की उम्र ही कितनी होगी। वही खत्म हो सकती है। क्या वह सागर के मैकेनिज्म को समझ सकता है, जान सकता है? क्या इस कीड़े से ज्यादा औकात है आदमी की?
आदमी कोई हो, क्या है उसकी औकात, क्या है उसका वजूद? उम्र तक सीमित है आदमी की। सब कछ ठीक-ठाक रहा तो औसतन साठ-सत्तर-अस्सी। या इससे भी ज्यादा? किसी को कोई भुलावा हो तो वह अपने बाप की उम्र देख ले, दादा की उम्र देख ले। उनसे दो-चार-पांच वर्ष ही तो इधर-उधर उम्र रहेगी? कितनी तो काट चुके, अब कितनी बची है, अंदाजा कर सकते हैं। कर सकते हैं कि नहीं? तो काहे का दर्प, काहे का घमंड, काहे की लाज? इन सभी को गठरियों में बांधकर ढोना छोडिए। यह आपको कृतघ्न बनाती है। आदमी हैं तो कृतज्ञ होना सीखिए। हर कदम, हर मोड़ पर बोलिए, शुक्रिया, शुक्रिया, सबका शुक्रिया। चमत्कार होगा साहब, चमत्कार। आपकी छवि में चार चांद लग जायेंगे। कृतज्ञ व्यक्ति ही सम्मान का भागी होता है। और सम्मान से बड़ा कोई सुख है क्या? मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जिसके व्यक्तित्व में सिर्फ शुकराने का भाव है, उसके सामने से बड़ी से बड़ी समस्याएं छू-मंतर गायब हो जाती हैं। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। आगे सम्मान पर कुछ बात करने का इरादा है। आखिर कोई क्यों हो जाता है अपमानित, संभवतः इसका कोई सूत्र पकड़ में आये।
मकड़ी के जाले में छोटे-छोटे कीड़े-मच्छर ही फंसते हैं, चील-कौए उस जाले को फाड़कर निकल जाते हैं।
are bhai shukria bahut achha lekh hai sadhuvaad
ReplyDeleteअरसे बाद इतनी सरल और मनमोहक शैली में सामान्य पर अति महत्वपूर्ण विषय पर अच्छा ललित निबंध पढने को मिला.
ReplyDeleteलिखते रहें
सादर
कौशल किशोर
शुक्रिया कहने में कैसी लाज-
ReplyDeleteआपका शुक्रिया जो इस बारे में लिखा.
जनाब, बिल्कुल झप्पी देने वाला लेख लिखा है। मुन्नाभाई के डायलॉग याद आ गए। आपने जो लिखा है वो मैनें करके देखा है। वास्तव में बहुत फर्क आ जाता है शुक्रिया या धन्यवाद के एक शब्द से। एक अच्छा और सारगर्भित लेख पढ़वाने के लिए धन्यवाद। इसलिए नहीं कि आपने ऐसा करने के लिए लिखा है बल्कि इसलिए कि वाकई ये काबिले तारीफ लिखा है।
ReplyDeleteधन्यवाद सभी सम्मानित टिप्पणीकारों को, आपके शुकराने से मैं रोमांचित हूं। सच।
ReplyDeleteशुक्रिया !!!!!!
ReplyDeleteबहुत अच्छा और बढ़िया लिखा है आपने ..शुक्रिया
ReplyDeleteएक बहुत ही बढिया एवं सारगर्भित लेख हेतु आभार स्वीकार करें.......
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