Sunday, December 28, 2008

बड़ा समझदार था

देहात का दाढ़ी वाला दरिद्र
दोशाला ओढ़े आया था शहर
लेकर आया था चाहत खटने की
सुबह शाम दोपहर
लेकिन, वह स्टेशन से ही लौट गया
बड़ा समझदार था।
दोशाला ओढ़े और भी दरिद्र थे शहर में,
जो पड़े थे उससे भी ज्यादा दरिद्रता के कहर में,
यहां दाढ़ी, नहीं गरीबी की पहचान थी,
भाई जैसे लोगों की आन बान और शान थी
सुबह से शाम तलक खटने वालों को भी
रोटी की दरकार थी,
गरीब घुट रहे थे, क्योंकि
गरीबों की सरकार थी।
इससे अच्छा तो उसका गांव था
जहां अपना कह सकने लायक
कम से कम पीपल का तो छांव था।
और वह गरीबी का गीता ज्ञान समेटे,
पुरखों का ईमान समेटे,
स्टेशन से ही लौट गया,
बड़ा समझदार था।
(नोट - यह रचना पूर्णतः मौलिक और अप्रकाशित है)
बीच सड़क पर पड़ी थी एक भिखारी की लाश और बगल में लिखा था-भूख में जहरीली रोटी भी मीठी लगती है।

4 comments:

  1. बहुत अच्‍छे भाव से युक्‍त रचना।

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  2. बहुत खूब। एक अप्रतिम सच।

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  3. आदरणीय संगीता जी,
    मैं सिर्फ इतना ही कह सकता हूं कि यह कविता मुझे भी प्यारी लगती है। यह तब लिखी गयी थी, जब मैं आवाज, जमशेदपुर में था और सिदगोड़ा के किराये के कमरे में दो दिनों से बीमार था। परिस्थितयों से तंग मैं सारा काम-धाम छोड़कर घर ही लौट जाना चाह रहा था। आपने अपने विचार दिये, इसका शुक्रगुजार हूं। एक बार फिर आपको धन्यवाद। - कौशल।

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  4. श्री सतीश पंचम जी,
    आपने मेरी कविता को अप्रतिम सच बताया, मैं रोमांचित हूं। पर, हिम्मत बढ़ी है। अब मैं अपनी कुछ और कविताएं पोस्ट करने का साहस कर सकता हूं। मैंने ऐसा किया तो निश्चित जानिए, उसका सारा श्रेय आपको जायेगा। धन्यवाद। - कौशल।

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