हमारे एक मित्र हैं। एक संस्थान में वे बिल्कुल ऊब चुके थे। बॉस से भी छत्तीस का आंकड़ा चल रहा था। हम मित्रों से अपनी परेशानी शेयर करते थे। हम सभी का यही सुझाव होता था कि भई बेहतर संस्थान है, थोड़ी-बहुत परेशानी को मत देखिए, तीस दिनों पर मिलने वाली तनख्वाह का ख्याल कीजिए। वे चुप हो जाते। एक दिन वे सीधे दफ्तर पहुंचे, अपनी टेबल पर बैठे और इस्तीफा लिखकर पहुंच गये बॉस के केबिन में। बॉस सन्नाटे में, थोड़ी देर बाद दफ्तर भी। लोग मित्र को समझा रहे थे कि ये आपने क्या कर दिया? मगर नहीं, वे पूरी तरह आत्मविश्वास से लबरेज थे। दोस्तों के जवाब में सिर्फ इतना ही कहा- रिस्क लिया।
आगे जो हुआ, वह दिलचस्प है। वे अगले ही रोज सीधा प्रतिद्वंद्वी संस्थान में पहुंचे। वहां उन्हें न केवल हाथोहाथ लिया गया, बल्कि एक प्रमोशन और वेतन में तीन-चार हजार रुपये की बढ़ोतरी तक दी गयी। अगले रोज से वह खुश चल रहे थे। कुछ लोगों ने पूछा कि अगर प्रतिद्वंद्वी संस्थान में आप हाथोहाथ नहीं लिये जाते तो क्या होता, आप क्या करते? जवाब सीधा था- रिस्क लिया था, कैसे न हाथोहाथ लिये जाते? और यदि हाथोहाथ नहीं लिये जाते तो क्या दुनिया इसी शहर और उसी संस्थान तक खत्म हो जाती है? आगे बढ़ जाता। यहां तक जन्म लेते ही तो नहीं पहुंच गया था? शुरुआत कहीं न कहीं जीरो से ही तो हुई थी। आज तो अपने पास उम्र और अनुभव का खजाना है। इसके साथ क्या यहां से एक कदम आगे नहीं जा सकता? सवाल पूछने वाले चुप। सबक लेने और विचार करने वाली बात थी। इसी साथी की बात करूं तो जान लीजिए कि वे उस संस्थान में भी ज्यादा दिनों तक नहीं टिके। थोड़ा और रिस्क लिया और जिस समय में उनके साथ के लोग कनीय और ज्यादा से ज्यादा वरीय बने घूम रहे थे, उसी समय में वे चीफ की हैसियत में आ गये। आज वे एक इकाई के प्रभार में चल रहे हैं।
रिस्क नहीं लिया तो भविष्य खराब हो जाता है, यह एक अन्य साथी के कदम से समझा जा सकता है। मेरे साथ काम करने वाले ही एक साथी की बात है। जानकार, विद्वान, चिंतक, अध्ययनशील, पर रिस्क नहीं ले सकते। रिस्क लेने के मौके पर बुरी तरह घबरा जाते हैं, उनकी पेशानी पर पसीने चुहचुहाने लगते हैं। चूंकि विद्वान हैं, इसलिए दूसरों के विचारों से जल्दी सहमत भी नहीं हो पाते और कांटा बॉस से ही जाकर फंसता है। संस्थान कोई हो, बॉस उनसे नाराज ही रहता है। बॉस ने उन्हें प्रमोट कर आगे नहीं बढ़ाया और उनके जूनियर जो उनसे कम काबिल थे प्रमोट होकर उनके बराबर पहुंच गये। जिस दिन यह हादसा सार्वजनिक हुआ, उस रोज वे काफी परेशान और हलकान थे। मेरा हाथ पकड़कर उन्होंने रुआंसे अंदाज में कहा कि संस्थान बदलना पड़े तो पड़े, एक प्रमोशन दिलवाइए।
मैं क्या करता? दोस्त थे, फोन घुमाना शुरू किया। संयोग... बात बनी और ऐसी बनी कि एक घंटे के अंदर उनके लिए प्रमोशन और बेहतर पैकेज का आफर हाथ आ गया। बस करना इतना था कि उसी रात निकलकर उन्हें उस संस्थान के बॉस से कल इंटरव्यू के लिए मिलना था। पर, यह क्या? साथी को पता नहीं कौन सा सिंड्रोम जकड़ गया। देखते-देखते वे पसीने-पसीने हो गये। अंततः जिस साथी ने उनके लिए अपने संस्थान में बात चलायी थी, उससे फोन पर उन्होंने माफी मांगते हुए इनकार कर दिया। नतीजा- उन्होंने एक वेलविशर खोया और पुराने संस्थान में बुरे हाल में पड़े रहकर हलकान होते रहे और बॉस के कई उल्टे-सीधे फैसले झेलने को मजबूर रहे। मेरी समझ से पूरा मामला रिस्क का था। रिस्क लेने में वे पीछे पड़ गये वर्ना वे आज कहीं से कहीं होते।
यहां एक बात कही जा सकती है। कभी-कभी रिस्क लेना उल्टा भी पड़ जाता है। पर, यहीं यह ठीक से समझ लेने की जरूरत है कि उल्टा पड़ने की संभावना नहीं हो तो इसे रिस्क ही क्यों कहा जाय? क्यों ठीक कहा न मैंने? सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि आपने कितनी फोर्स के साथ रिस्क लिया। रिस्क आपके इरादों और आपके हौसलों का इम्तिहान भी लेता है। पर, जिसे भविष्य संवारना हो, वह इम्तिहान से भला क्योंकर डरेगा? वह तो रिस्क उठायेगा और भविष्य संवारेगा। क्या आप भी ऐसा करने को तैयार हैं? फिलहाल इतना ही। व्यक्तित्व विकास की श्रृंखला में भविष्य संवारने के नुस्खों पर अभी चर्चा जारी रहेगी।
एक चुटकुला : एक दोस्त ने दूसरे से कहा, अपराध से कुछ भी हासिल नहीं होता। दूसरे ने कुछ सोचकर कहा- इसका मतलब मैं जो जॉब कर रहा हूं, वह क्या अपराध है? क्योंकि इस जॉब से तो मुझे कुछ भी हासिल नहीं हो रहा।