Tuesday, February 24, 2009
लोहारिया तुम कहां हो
मुझे लगता है कि लोहारिया को देखकर यह तय किया जा सकता है कि कोई व्यक्ति अधिकतम कितना धैयॆ रख सकता है। एनबीए का दल नमॆदा बांध से विस्थापित लोगों को उनकी डूबी हुई या छीनी गई जमीनों के बदले सरकार की ओर से दी जा रही जमीनें देखने के लिए गया था। सरकार की ओर से ही यह व्यवस्था की गई थी। गांव-गांव जमीनें देखी जा रही थी। जमीनों की पड़ताल की इस कवायद में बारह दिन लगे। पूरे बारह दिन मैंने उसे लगभग एक ही मुखमुद्रा में देखा।
उसके चेहरे पर हमेशा पसरा रहने वाला आत्मसंतोष उसे औरों से अलग करता था। तमाम लोगों की तरह उसे भी पता था कि पथरीली जमीनों को बसने और खेती लायक बताकर ये अफसर झूठ बोल रहे हैं। एनबीए के बाकी लोग झुंझलाते थे। बहस करते थे। लड़ पड़ते थे नमॆदा विकास प्राधिकरण के अफसरों से। पर ऐसे में भी लोहारिया की भाव-भंगिमा नहीं बदलती। बस वह सिफॆ सुनता और देखता था। एक दिन मैंने उससे बातचीत की। उसने मुझे अपने बारे में बताया। नमॆदा बांध के पास ही उसकी लगभग आठ एकड़ जमीन थी। अच्छी फसल होती थी। पक्का मकान था। बांध बनने से जमीन-मकान सब डूबने का खतरा पैदा हो गया। सरकार ने उसके गांव को भी खाली करने का आदेश दिया। पर कोई इतनी आसानी से पुश्तैनी घर और जमीन कैसे छोड़ दे। लेकिन जीते जी कोई डूब भी तो नहीं सकता। ऐसे में घर के बदले घर, जमीन के बदले की मांग उसने भी की। सबकी तरह उसने भी कह दिया- जब तक ऐसा नहीं होता, डूब जाएंगे पर गांव नहीं छोड़ेंगे। लेकिन सरकारें आसानी से कुछ देती कहां है। सो वह भी हक की लड़ाई के लिए नमॆदा बचाओ आंदोलन के साथ हो गया।
उसकी जमीन, घर डूबने का खतरा था। जाहिर है वह बड़ी विपत्ति में फंसा था। लेकिन उसे देखकर कतई यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता था कि वह किसी मुसीबत में है। उसे स्थिति की गंभीरता का भी अंदाजा था। वह जानता था कि जल्द वह बेघर होने वाला है। सरकार ने वक्त पर जमीन और मुआवजा नहीं दिया तो उसे बूढ़े मां-बाप के साथ दर-दर भटकना पड़ सकता है। फिर भी वह और की तरह नहीं झुंझलाता। औरों की तरह माथे पर हाथ रखकर बैठा नहीं रहता।
इंसानी फितरत की एबीसी जानने वालों के लिए भी लोहारिया की ये बातें उसके प्रति उत्सुकता जगाती थी। उसका यह रूप देखकर मेरे मन में भी कई सवाल उठे थे। आज भी उठते हैं। क्या इसे ही धैयॆ कहते हैं? या इसे अगंभीरता कहेंगे? या फिर उसे कायर कहेंगे कि वह मुखर नहीं होता। बोलने से डरता है? लेकिन धैयॆ को छोड़कर कोई और जवाब लोहारिया पर फिट नहीं बैठता। वह अपनी समस्याओं के प्रति अगंभीर होता तो नमॆदा बचाओ आंदोलन के साथ नहीं जाता। वह डरता तो सबसे पहले किसी दिन अचानक डूब जाने के खतरे से डरता। नासमझ होता तो इतनी सुलझी हुई बातें नहीं करता।
तब तेईस साल के लोहारिया का कहना था कि चीखने-चिल्लाने या झल्लाने से मेरी समस्याएं नहीं सुलझेंगी। हमें पता है कि झूठ बोलते ये अफसर भी अपनी ड्यूटी पूरी कर रहे हैं। सरकार इन्हें यही कहने की तनख्वाह दे रही है। मैं भी तो अपना काम कर रहा हूं। एनबीए के साथ हूं। फिर मैं इनसे क्यों उलझूं।
पता नहीं अब लोहारिया कहां है? क्या कर रहा है? उसके धैयॆ का पुरस्कार, उसके हक के रूप में उसे मिला या नहीं, मुझे यह भी नहीं पता।
पर आज भी जब कोई धैयॆ की बात करता है तो सबसे पहले मुझे लोहारिया की याद आती है।
Monday, February 23, 2009
पान, बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू ना शराब
व्यक्तित्व विकास के लिए नशा पर नियंत्रण कितना जरूरी है, इसे एक-दो दृष्टांत से समझा जाये। एक साहबान जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर बिल्कुल नये शहर में ड्यूटी ज्वाइन करने पहुंचे तो कार्यस्थल पर बाद में पहुंचे, पहले पहुंच गये शराब के ठेके पर। छक कर सफर की खुमारी उतारी और रेस्ट हाउस में जाकर सो गये। नशे की नींद थी, जगने में थोड़ा विलंब हुआ। नहाये-धोये और लेट ही सही, पहुंच गये दफ्तर। उन्हें इस बात का अंदाजा भी नहीं था कि वे महक रहे थे और पूरा दफ्तर नाक-भौं सिकोड़ रहा था। उनकी बगल में बैठा एक युवक तो महक से उल्टियां करने लगा। भांडा फूट चुका था। पहले दिन से ही उस दफ्तर में उनके ऊपर दारूबाज का ठप्पा लगा और आप भरोसा कीजिए सीनियर, उम्रदराज और काबिल-जहीन होने के बावजूद वे उस इज्जत को तो नहीं ही पा सके, जिसके हकदार थे, अंततः उन्हें नौकरी छोड़कर चला जाना पड़ा। एक दूसरे साथी का जिक्र करूं। जहीन-तरीन, दिन में चार बार चेहरे पर पानी मारने वाले, साबुन से चेहरा चमका कर रखने वाले औऱ बड़ी नफासत से कपड़े पहनने वाले शख्स को आदत थी शाम में सुट्टा लगाने की, यानी गांजा पीने की। कहीं होते, शाम होते ही एकाध घंटे के लिए गायब हो ही जाते। लोग जान न जायें, इसलिए अपने कमरे पर सुट्टा लगाने का पूरा इंतजाम कर रखा था। एक छुट्टी के दिन जब उनके कमरे पर उनके दफ्तर के साथियों ने उनसे मिलने के लिए दस्तक दी तो किवाड़ के खुलते ही जो धुआं बाहर निकला, उससे उनके कैरियर में आग लग गयी। नशे के नाम पर तो बड़े-बड़े इल्म का जिक्र किया जा सकता है, मगर जो छोटे-छोटे पान, बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू जैसे सामान हैं, वे भी अच्छा-खासा व्यक्ति को भिखमंगा बना देते हैं। नशा करने वाला व्यक्ति अपने औसान में कभी नहीं रह पाता, आर्थिक दबाव बोनस में पाता है। ताज्जुब की बात तो यह भी है कि नशे को जिंदगी का हिस्सा बना लेने वाला शख्स भी दूसरे नशेड़ी भाई पर कभी विश्वास नहीं करता। ठीक किसी कातिल की भांति। आपने देखा होगा, बड़े से बड़ा हत्यारा भी नहीं चाहता कि उसका बेटा गुनाहों के दलदल में फंसे। मेरी समझ से, बातें स्पष्ट हो चुकी होंगी। व्यक्तित्व विकास के लिए नशा से परहेज जरूरी है। बात समझ गये हों तो शत्रुघ्न सिन्हा की एक फिल्म का वह गाना तो गुनगुना ही सकते हैं-पान, बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू ना शराब, हमको तो नशा है....। व्यक्तित्व विकास पर चर्चा अभी जारी रहेगी। धन्यवाद।
माफी जुर्म की परवरिश होती है, क्योंकि माफी मांग लेने से जुर्म का निशान नहीं मिटता।
Saturday, February 21, 2009
ये सोच लेना फिर प्यार करना
एक जमाना था. जब महिला और पुरुषों में साफ-साफ भेद का विचार समाज पर ऊपर और नीचे दोनों तरफ से हावी था। महिलाएं गृहशोभा की विषय-वस्तु समझी जाती थीं। उनका घर से बाहर पांव निकालना एक मुश्किल भरा काम दिख पड़ता था। जो बाहर निकलती भी थीं, वे लिंग भेद के अंतर के दबाव से साफ-साफ दबी दिखती थीं। यहां तक कि उनसे बात करना, उनके साथ संबंधों के खुलासे को लेकर एक आम संकोच का मामला हुआ करता था। नतीजा, लिंग भेदी ये दो जीव साथ में रहकर, बैठकर, काम कर भी अलग-अलग, दूर-दूर ही दिखते थे। पूरा माहौल भाभी-दीदी-आंटी आदर, सम्मान और सामाजिक विचारों से ओतप्रोत हुआ करता था। दफ्तरों में एकाध दो महिलाओं के दर्शन हो जायें तो बड़ी बात थी। उस पर भी तुर्रा यह कि शाम के चार-पांच बजे तक तो वे घर भाग ही पड़ती थीं। खतरे कम थे। अब? माहौल बदला है। सड़कों पर, बाजारों में, दुकानों में, दफ्तरों में, पोस्टरों में, पत्रों में, विज्ञापनों में, जहां देखिए वहां, इनकी संख्या बढ़ी है। सहभागिता बढ़ी है। इतना ही नहीं, अभी और बढ़ेंगी क्योंकि इसके बढ़ने का सिलसिला जारी है, डिमांड बढ़ी है, जरूरत दिख रही है। कभी किसी महिला ने किसी से हंसकर बात कर ली, नजरें मिला लीं तो वह वर्षों प्यार के तराने, मुहब्बत के अफसाने गाता चलता था। किसी महिला के सरके पल्लू को किसी ने देख लिया तो महीनों उसके ख्वाबों में परियां झूमती रहती थीं। कभी कहीं स्पर्श हो गया तो समझो जीवन पार। बस और क्या चाहिए जिंदगी? आज नजरें मिलाना, घंटों बातें करना, सामने बैठकर मुस्काना और मुस्कुराते जाना कारोबारी-दफ्तरी मुकाम के हिस्से बन चुके हैं। अब पल्लू नहीं सरकते, क्योंकि फैशन की आड़ में कहिए या विज्ञापनों की धार में कहिए, वे गायब हो चुके हैं। यानी खतरे बढ़े? अब महिलाओं को सिर्फ इसलिए पीछे नहीं किया जा सकता कि वे महिलाएं हैं, घर की वस्तु हैं, गृहशोभा हैं। और खास बात यह कि लगभग हर क्षेत्र में वे आगे भी निकल रही हैं, आईकॉन्स बनती जा रही हैं। देहाती स्तर तक पर बच्चियां मिसालें कायम कर रही हैं, प्रेरणास्रोत बनती जा रही हैं।
मगर, मैथुनी सृष्टि में महिलाओं और पुरुषों के बीच एक-दूसरे के प्रति आकर्षण से कोई कैसे इनकार कर सकता है? यह सहज है, स्वाभाविक है। है न? और जब बड़ी तादाद एक लंबे समय तक एक-दूसरे के सापेक्ष हों तो उनके करीब और करीब आने के मौके बढ़ जाते हैं, इससे भी शायद ही किसी को इनकार हो। पर, यहीं लापरवाही के मौके भी बढ़ जाते हैं और समाज की उम्मीदें भी। दरअसल आधुनिकता की परिधि में समाज चाहे जितने गोते लगा ले, पर उसके मानक, निष्ठाओं की परिभाषाएं नहीं बदलतीं। जिंदगी जीने की कलाएं बदल जाएं, पर जीवन नहीं बदलता, जरूरतें नहीं बदलतीं। लाख फारवर्ड हो लें, मगर जान लीजिए, महिला से छेड़खानी या बलात्कार को दुनिया के किसी के हिस्से में जायज नहीं ठहराया जाता। तो व्यक्तित्व विकास के लिए सतर्क व्यक्ति के लिए लापरवाही की बढ़ती गुंजाइशों के बीच सावधानी के मौके भी इन्हीं क्षणों में बढ़ाने की जरूरत होती है। बढ़ते मौकों के बीच सेक्सुअल हैबिट्स के नियंत्रण से बाहर होने की गुंजाइश तो बढ़ी होती है और आपके पास हवाई जहाज के चालक वाला आप्शन होता है। यानी लापरवाही की बिल्कुल गुंजाइश नहीं। लापरवाही हुई कि व्यक्तित्व विकास का सत्यानाश। क्योंकि तेज रफ्तार जिंदगी उसे संभालने का आपको मौका नहीं देने वाली। एक बार पीछे छूट गये, एक बार गिर गये तो भीड़ में दब जाने का, क्रश हो जाने का सरासर खतरा। इस खतरों से बचने का सिर्फ एक ही रास्ता है, संभलिए। दूसरों को संभालिए भी। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। धन्यवाद।
सपने वह नहीं होते जो रातों में सोकर देखे जाते हैं। सपने वो होते हैं, जो रातों की नींद उड़ा दे।
Thursday, February 19, 2009
दिल की गली से बचके गुजरना
मेरे एक दोस्त हैं, मेरी उम्र से लगभग सात-आठ साल बड़े। बात भी सात-आठ साल पहले की है। बातचीत के मामले में हम एक दूसरे के काफी करीब थे। दफ्तरी मुकाम के दौरान पंद्रह-बीस मिनट के वकफे में हम साथ-साथ चाय पीते थे, पान खाते थे। लौट कर आते थे तो फिर नये मिजाज के साथ काम शुरू करते थे। एक दिन चाय सेशन में ही उनसे सेक्स और ह्यूमन बीईंग पर कुछ डिस्कशन होने लगी। बात तो हम दुनियावी कर रहे थे, पर उनका रुख व्यक्तिगत हो गया और एकाएक वे मानो बैकग्राउंड में चले गये। कहने लगे, क्या कहूं शुक्लाजी, उम्र बढ़ रही है, ज्ञान भी कुछ कम नहीं है, पर महिलाओं को देखते ही मिजाज बहकने लगता है। मैं चाहता हूं कि मेरे में महिलाओं को देखकर मातृत्व भाव आये, पर यह नहीं आ पाता है। मेरी नजरें उनके नाजुक अंगों को ही निहारने में खो जाती हैं। कभी-कभी तो इन नजरों की वजह से तब शर्मसार होना पड़ता है, जब मेरी नजरों का मतलब सामने वाली ताड़ जाती हैं। मैं क्या कहता? मैंने कहा, सर, आप इस चीज को लेकर चिंतन कर रहे हैं, .यही सुधार का लक्षण है। अच्छा संकेत है, इस पर सोचते रहिए, शायद मुक्ति का मार्ग मिल जाये। अब तक उनको लेकर कोई सेक्स स्कैंडल खड़ा नहीं हुआ, इसका मतलब है कि वे चेत गये, संभल गये और महिलाओं को देखकर उनमें मातृत्व भाव आने लगा, ऐसा माना जा सकता है।
इस प्रकार का एक निजी अनुभव पढ़ाना चाहूंगा। चार-पांच साल पहले एक मकान में ऊपर नीचे हम और एक मित्र रहते थे। टायलेट कम बाथरूम कामन था और नीचे था। मुझे उसके इस्तेमाल के लिए नीचे उतरकर यह देखना पड़ता था कि वह खाली है भी या नहीं। मित्र अपनी पत्नी के साथ रहते थे। कपड़ा धोने व बर्तन मांजने के लिए उन्होंने एक बाई लगा रखी थी। बाई जवान थी। कपड़े वह बाथरूम में धोया करती थी, इससे टायलेट भी इंगेज होता था। एक दिन मैं एक दफे नीचे उतरकर बाई को कह चुका था कि बाथरूम थोड़ा जल्दी खाली कर दे और ऊपर आ गया था। तकरीबन आधा घंटे बाद जब मैं फिर नीचे गया तो वह कपड़े साफ कर ही रही थी। मैं उसे बाहर निकलने और फिर बाद में कपड़े धो लेने के लिए कह रहा था। तभी मित्र कमरा खोलकर बाहर निकल आये और उन्होंने जिन नजरों से मुझे देखा, उन नजरों की छाप आज भी मेरे हृदय में अंकित है। उनकी नजरें साफ-साफ मेरे ऊपर इल्जाम लगा रही थी। कह रही थी कि अच्छा तो अब आप इस पर उतर आये हैं यानी बाई से आंखमिचौली! उन स्थितियों से बचके मैं अपनी छवि कैसे मित्र के सामने साफ कर पाया, यह दूसरा मसला है, लेकिन इतना जरूर है कि मशक्कत मुझे करनी पड़ी।
तीसरी घटना, एक सहकर्मी को लेकर है। महिलाओं के प्रति वे सदा से नरम मिजाज थे। लड़की देखी कि उसे लगते दुलारने-पुचकारने और सहानुभूति दर्शाने। धीरे-धीरे वे उसके करीब पहुंच जाते और कभी-कभी तो स्पर्श सुख लेते हुए बालों तक पर हाथ भी फिरा देते। पूरे दफ्तर में उनका सम्मान था। विद्वान थे। एक कालेज में एडहाक लेक्चरर के रूप में काम भी कर रहे थे। एडहाकी से पैसे नहीं मिल रहे थे, इसीलिए पत्रकारिता कर रहे थे और ठीक-ठाक कर रहे थे। मालिकान का भी भरोसा उनके प्रति कायम था। दिनकर, निराला, पाश, दुष्यंत की रचनाएं उनकी जुबान पर होती थी। एक दिन मामला गड़बड़ाया। एक लड़की उनकी हरकतों, बात-बात में बाल सहलाने की आदतों से भड़क गयी। अब तो पूछिए मत कि आगे दफ्तर में उनका क्या सम्मान रह गया। पूरे व्यक्तित्व पर पानी फिर गया था। सेक्सुअल हैबिट्स की ये तीन घटनाएं महज बानगी के रूप में ली जायें। मान-अपमान को पारिभाषित करतीं ऐसी ढेरों कहानियां कही जा सकती हैं। समझने का मसला यह है कि व्यक्तित्व विकास में आपकी सेक्सुअल हैबिट्स काफी प्रभाव डालती हैं। इससे व्यक्ति तुरंत और मौके पर एक्सपोज होता है और एक बार एक्सपोज हो गया तो फिर संभलने या संवरने का बहुत मौका नहीं मिलता। व्यक्तित्व विकास में सेक्सुअल हैबिट्स पर अभी चर्चा जारी रहेगी। धन्यवाद।
इच्छाओं के पूरा होने से खुशी मिलती है, पर जो व्यक्ति इच्छाओं से ऊपर उठ जाये वह आनंद को प्राप्त हो जाता है।
Wednesday, February 18, 2009
वह कवि हृदय
वेतन वृद्धि के फिराकों में,
पीएफ में कटौती रुकवाने के जज्बातों में,
संतति के मुंडन, जनेऊ, शादी, पढ़ाई-लिखाई के सवालातों में,
लदते जा रहे कर्ज के कागजातों में,
कहां खो गया न जाने,
वह कवि हृदय।
कल ये करूंगा, कल वो करूंगा,
टकटकी लगाये बैठे हैं कल पर,
और कल कभी आयेगा?
आ तो आज रहा, गा रहा, चला जा रहा,
और कल की मुलाकातों के ख्यालातों में,
कहां खो गया न जाने,
वह कवि हृदय।
जब दिल बीमार हो जाये तो गाते रहो,
दोस्त-दोस्त ना रहा, प्यार-प्यार ना रहा,
ऐंठन भरी आंतों में, विरह की रातों में,
दोस्तों की बातों में, दुश्मनों की करामातों में,
सभी तो इंसान हैं, कोई किसी से कम नहीं,
खाओ-पीओ, मौज उड़ाओ, मर जाओ तो गम नहीं,
कल का इंतजार, कल ये करूंगा, कल वो करूंगा,
और इंतजार के मकानातों में,
कहां खो गया न जाने,
वह कवि हृदय।
अपनों के सपनों में तड़पन है जिंदगी,
लेन-देन बाकी तो बचपन है जिंदगी,
दुनिया को देखो तो विचरन है जिंदगी,
प्रेम की कहानी में बिछुड़न है जिंदगी,
बस, कल सब ठीक हो जायेगा,
मेहनत है, हिम्मत है,
किस्मत है, मिल्लत है,
दिन-दिन भर भूखों रहने की लत है,
बच्चा भी भूखा, मैं भी हूं भूखा,
भूख के घेरे में सबकुछ है सूखा,
सूखे पड़े खेत, सूखा पड़ा खाता,
और खाता के 'खातों' में,
कहां खो गया न जाने,
वह कवि हृदय।
वह कवि हृदय,
जहां गीत उपजते थे, संगीत उपजते थे,
मीत उपजते थे, मिलन की रीत उपजते थे,
गम की न थी बात, सदा ही जीत उपजते थे,
और उन जीत के 'जातों' में,
कहां खो गया न जाने,
वह कवि हृदय, वह कवि हृदय....।
यदि आप अपनी आंखें बंद रखेंगे तो सामने अंधेरा ही तो दिखेगा।
Monday, February 16, 2009
ना कहना भी बहुत जरूरी
मेरी समझ से छवि ऐसी होनी चाहिए कि यदि आपने हां कह दिया तो इसका मतलब हां ही हो। आपने हां कह दिया तो आगे यह लगना चाहिए कि आप इसे पूरा करने के लिए कोई प्रयास उठा नहीं रखेंगे। और यह छवि हर काम, हर चीज के लिए हां कहने से नहीं बनती। यह छवि तभी बनती है, जब आपको ना कहने की कला आती हो। जब तक आप ना कहने के लिए सेलेक्टिव नहीं होंगे, तब तक आपकी हां का कोई मतलब नहीं होगा। यह खयाल करने की बात है कि आपकी हां का पावर ना कहने से ही मजबूत होता है।
मेरे एक संकोची मित्र है। कभी किसी काम के लिए ना नहीं कहते और हां कहने के बाद बातों को याद भी नहीं रख पाते। लोगों को याद दिलाना पड़ता है कि उन्होंने फलां काम के लिए कभी हां कहा था। दोष उनका भी नहीं है। आखिर वे करें तो क्या करें? जब ढेर सारे काम के लिए उन्होंने हां कह रखी है, तो आखिर वे किस-किस काम को करने की जहमत उठायें। आखिर आदमी के काम करने की भी अपनी सीमा है। सीमा से बाहर जाकर काम किया तो जा सकता है, लेकिन उसकी भी एक सीमा होती है। वे हमेशा परेशान तो दिखते हैं, पर कभी किसी को संतुष्ट नहीं कर पाते। दूसरों को तो छोड़िए, खुद को भी नहीं कर पाते। एक दिन बड़ी शिद्दत से वे कह रहे थे-अब कोई काम के लिए हां कहने से पहले सोचूंगा, तय करूंगा, खुद को नापूंगा और लगा कि कर पाऊंगा तभी हां कहूंगा। उनकी बात मैं भी कहना चाहूंगा। यदि आप अपने व्यक्तित्व में डायनमिक डेवलपमेंट चाहते हैं तो जरा हां-ना में फर्क कीजिए और कभी-कभी ना भी जरूर कीजिए। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी।
औकात आनुपातिक सेंस है। किसी के सामने आपकी कुछ औकात नहीं तो जिसके सामने आपकी कुछ औकात नहीं, उसकी भी किसी के सामने कुछ औकात नहीं।
Sunday, February 8, 2009
प्रतिस्पर्धा का मतलब दुश्मनी नहीं
पर, आम जीवन में आम तौर पर क्या होता है? आपकी फील्ड का कोई साथी थोड़ा अच्छा काम कर गया, थोड़ी बड़ाई लूट ली, थोड़ा किसी का (किसी का क्या बास का) चहेता बन गया और बन गया आपकी आंखों की किरकिरी। किरकिरी ही नहीं, आपने तो दुश्मनी ठान ली और लगे उसको ऐन-केन-प्रकारेण नुकसान की जुगत करने। ऐसा करने में आपके सामने खतरे दो तरह के पैदा हो गये। एक तो यह कि आपने उस अच्छे-भले साथी को अपना दुश्मन बना लिया, दूसरे दुश्मनी साधने के चक्कर में आप अपना काम भूल गये। आप पर कुंठित, ईर्ष्यालू होने का विशेषण लगा, इसे बोनस समझिए।
मुझे याद है, बचपन में परीक्षाओं के दौरान भोर में (सुबह के तीन-चार बजे से) हमें पढ़ाई के लिए जगा दिया जाता था। हम लालटेन जलाकर पढ़ने लगते थे। मेरी क्लास का कोई दूसरा साथी जो बगल के घर में या दूसरे दरवाजे पर सोया करता था, झांक कर देख लेता था कि मैं पढ़ रहा था या नहीं। मुझे देखकर वह भी पढ़ने लगता था। लेकिन, अगले रोज जब भी पूछो तो कभी नहीं बताता था कि वह भी भोर में पढ़ता था। एक दिन लुकाछिपी पकड़ी गयी। जब वह लालटेन जलाकर पढ़ रहा था तो मैं उसकी खिड़की पर जाकर भूत की तरह खड़ा हो गया। उसने पहले तो हक्का-बक्का होकर मुझे देखा, पर थोड़ी ही देर में दोनों के मुंह से बेसाख्ता हंसी निकली और हम हंसते चले गये। यह कैसी प्रतिद्वंद्विता थी। वक्त की मार में हम शायद उस मौलिकता को भूल चुके हैं! और आप भरोसा करें, जब दोनों को यह पता चला कि दोनों एक ही मिजाज के पढ़ाकू हैं तो गुजरते वक्त के साथ हम गाढ़े मित्र भी बन गये। वैचारिक स्तर पर समानता शायद अंदरखाते व्यक्ति को दोस्त भी बना देती है।
तो क्या इस पर विचार करने की जरूरत नहीं है कि व्यक्तित्व विकास के लिए सतर्क व्यक्ति को हमेशा प्रतिस्पर्धा के लिए तो तैयार रहना चाहिए, पर प्रतिस्पर्धा को कभी दुश्मनी नहीं समझनी चाहिए? प्रतिस्पर्धा को दुश्मनी समझने की भूल यदि हो गयी तो समझिए यह आने वाले दिनों में आपकी सभी सकारात्मक क्रियाकलापों को ध्वस्त कर देगी। अपने स्वभाव को टटोलिए औऱ यदि इस बीमारी का थोड़ा भी लक्षण दिखायी दे तो दूर निकाल फेंकिए। यह आपको औऱ आपके व्यक्तित्व को बचाने के लिए नितांत आवश्यक है। व्यक्तित्व विकास पर चर्चा अभी जारी रहेगी। धन्यवाद।
दुनिया में कोई चीज बेकार नहीं होती, बेकार से बेकार समझी जाने वाली वस्तु की भी कहीं न कहीं बड़ी और मजबूत अहमियत होती है।
Saturday, February 7, 2009
काम मेरा, नाम तेरा, वाह भई वाह
इसके ठीक विपरीत, आपके आसपास वैसे लोग भी होंगे, जो इस खेल से परे हर किसी को उसके काम का न केवल क्रेडिट देते हैं, बल्कि उसे सार्वजनिक तौर पर घोषित करते हैं और उसे सम्मान का भागी बनाते हैं। अब वैसे लोगों की छवि, गरिमा और प्रतिष्ठा को जरा आंखें बंद कर याद कर लीजिए। ऐसे व्यक्ति के होने से माहौल भी कितना खुशनुमा होता है, इसे भी याद कर लीजिए। साफ हैं, वैसा व्यक्ति, कोई जरूरी नहीं कि किसी बड़े ओहदे पर हो, लोगों के बीच प्रतिष्ठा पाता है और पाता ही रहता है। इसी के साथ, आपके आसपास वैसे लोग भी होंगे, जो दूसरों की गल्तियां अपने सिर ले लेते हैं और गल्ती करने वाले को उसकी गल्ती के लिए कभी अपमानित होने का मौका नहीं देते। वे खुद तो सम्मान और प्रशंसा के पात्र बनते ही हैं, गल्ती करने वाले साथी को भी सबक मिलता है और देखा तो यह गया है कि वह कम से कम उस प्रकार की गल्तियां नहीं दोहराता। तो व्यक्ति विकास की प्रक्रिया में यह एक कला ही है कि आप कभी दूसरे का क्रेडिट अपने नाम करने की कोशिश न करें, बल्कि हर व्यक्ति को उसके काम का क्रेडिट दें। साथ ही यह भी कोशिश हो कि अपनी गल्ती दूसरे के माथे न थोपें। एक बार इस पर अमल आपने शुरू किया तो फिर कौन है, जो आपको प्रतिष्ठित होने से रोक दे? व्यक्तित्व विकास पर चर्चा अभी जारी रहेगी। धन्यवाद।
शैतान की फितरतों का विश्लेषण करने से ही उससे टकराने का रास्ता सूझता है। आंखें बंद कर लेने से खतरे खत्म नहीं हो जाते।
Thursday, February 5, 2009
मैंने तुम्हे कहीं देखा है
सूखे पत्ते की तरह गिरते,
गिर कर भी संभलते,
संभल कर भी बहकते,
फिर भटकते,
फिर बदलते,
मैंने तुम्हे कहीं देखा है।
बदमाशों व हथियारों के साथ,
शरीफों पे दिनदहाड़े डालते हाथ,
जेबों पर दिखाते करामात,
फिर खाते मात,
फिर खाते लात,
मैंने तुम्हे कहीं देखा है।
देते भाषण,
लूटते राशन,
पीते किरासन,
लगाते आसन,
वह भी वज्रासन,
मैंने तुम्हे कहीं देखा है।
हाथ मिलाते,
हाथ छुड़ाते,
फिर मिलाते,
फिर छुड़ाते,
फिर मिलाते,
मैंने तुम्हे कहीं देखा है।
एक जंगेजां को जिंदा जलाते,
कइयों के मरने के बाद पुल को बनाते,
फिर सलामी में गोलियां दगवाते,
हंसते,
मुसकाते,
मैंने तुम्हे कहीं देखा है।
आग लगाते,
आग बुझाते,
लोगों को समझाते,
उजड़वाते,
बसवाते,
उजड़वाते,
बसवाते,
उजड़वाते,
मैंने तुम्हे कहीं देखा है।
तुम्ही तो आस हो,
तुम्ही तो पास हो,
तुम्ही तो सर्वनाश हो,
लोगों का विनाश हो,
मैंने तुम्हे ही देखा है,
कहां देखा.... कहीं देखा है।
किसी से कुछ मांगने में यदि आपको कठिनाई होती हो तो मान लीजिए आपमें शराफत जन्म ले रही है, क्योंकि शरीफ आदमी के लिए किसी से कुछ मांगना बहुत कठिन होता है।
Wednesday, February 4, 2009
ट्रबल शूटर बनें, क्रिएटर नहीं
अब एक दूसरे साथी का जिक्र करूं। बड़ी से बड़ी समस्या उनके सामने ले जाइए, चुटकी बजाते हल कर देते हैं। किसी साथी को छुट्टी में घर जाना हुआ तो वे खोदकर पूछते हैं और अपने पास से कुछ पैसे उसकी जेब में डाल देते हैं। अपने पास पैसे न हुए तो उधार लेकर भी इंतजाम करते हैं, यह हिदायत देते हुए कि आप घर जा रहे हैं, पैसों की वहां जरूरत हो सकती है। इसे रखिए, काम होगा तो खर्च कीजिएगा, वर्ना वापस भी लाकर दे सकते हैं। लोग उनके व्यवहार से अभिभूत रहते हैं। उनका पैसा कभी किसी के पास फंसा, यह तो नहीं जानता, पर उन्हें देखकर ही लोग उनके स्वागत के लिए उनके सामने बिछ से जाते हैं। अपनी समस्या उनके पास भले लाख रहे, पर उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं देख सकता, यहां तक कि उनके खास दोस्तों को भी काफी बाद में, जब उनकी समस्याएं हल हो जाती हैं तब उसके बारे में पता चल पाता है। तो व्यक्तित्व विकास के लिए यह बड़ा प्रभावी सूत्र है, जो हर किसी की साफ समझ में होनी चाहिए। आप समस्याओं का समाधान बनें, न कि समस्याएं क्रिएट करते चलें। नौकरी में हों, व्यवसाय में हों, किसानी में हों, आपके लिए जरूरी है कि आप समस्याओं के निदान करने वाले के रूप में पहचाने जाएं, समस्याएं उत्पन्न करने और उसे बढ़ाते जाने के लिए नहीं। एक बार इस पर विचार कर अमल करना शुरू करें, देखिए कैसे आपके जीवन में चमत्कार होना शुरू होता है। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी।
वक्त से पहले और जरूरत से ज्यादा चर्चा होने पर नये खिलने वाले फूल की फितही खिलावट रुक जाती है।
Tuesday, February 3, 2009
बुड्ढे हो गये और इतना भी नहीं जानते...
दूसरी बात - नयी चीजों को जानने की कोशिश। आपके सामने बहुत सी चीजें नयी हो सकती हैं, जिन्हें जानना आपके लिए जरूरी हो सकता है। तो लगभग हर दिन एक-दो नयी चीजों के बारे में जानने की कोशिश ज्ञानअर्जन की दिशा में काफी सहयोगी हो सकती है। आप कहीं हों, किसी फील्ड में हों, रोजगार में लगे हों, बेरोजगार हों, यह जरूरी है कि लगातार आपके पास जानकारियां बढ़ती रहें। देखने की बात यह भी है कि यह रातोरात नहीं हो सकता है। रातोरात न तो कोई कालिदास बन सकता है, न ही टाटा-बिड़ला। लेकिन, अभ्यास की प्रक्रिया आपने शुरू कर दी, तो इतना जरूर है कि आप कालिदास को भी पछाड़ सकते हैं।
तीसरी बात - अज्ञानता का ज्ञान। अमरीका की इंटेलिजेंस ने माना कि अफगानिस्तान में जिन परिस्थितयों से उसकी फौज का सामना हुआ, उससे वे बिल्कुल अनजान थे, उसके बारे में कोई स्ट्रेटजी वे तैयार नहीं कर पाये थे। तो अपनी अज्ञानता का भी आपको ज्ञान हो, यह जरूरी है। ज्ञान अर्जन के मामले में देखा गया है कि जिस किसी मौके या स्तर पर व्यक्ति चूका, उसी मौके या उसी स्तर से उसका व्यक्तित्व प्रभावित होने लगा। दुनिया की इस मान्य प्रक्रिया से शायद ही किसी को इनकार हो कि आप आगे बढ़ते रहिए, नहीं तो कोई न कोई आपसे आगे निकल ही जायेगा, आपको पीछे धकेलकर। सूचना क्रांति के दौर और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भी शायद यह बहुत जरूरी है कि आपके ज्ञान का स्तर हमेशा बढ़ता रहना चाहिए। और यह बिल्कुल आपके स्वयं के ऊपर निर्भर करता है, आपके प्रयास के ऊपर निर्भर करता है।
इसके अलावा, देखने की बात यह भी है कि आज दुनिया जिस तरीके से विस्तार ले रही है, जिस तरीके से रोज नयी-नयी व्यवस्थाएं, परियोजनाएं, कंपनियां व अवसर सामने आ रहे हैं, उस लिहाज से आदमी को इन सबके बारे में जानना, जानकारियां रखना कितना जरूरी है। कोई फंड आ गया, आपको पता ही नहीं, तो उस फंड का आप लाभ कैसे ले पायेंगे? कोई व्यवस्था लागू हुई, आप उससे अनजान रहे तो उसमें आपका हिस्सा कैसे निर्धारित हो पायेगा। सूचनाएं, जानकारियां आपके पास होनी ही चाहिए। और आप अपने पड़ोस में, इर्द-गिर्द, देख सकते हैं, जिसके पास अधिकतम सूचनाएं हैं, अधिकतम जानकारियां हैं, उसी के पास अधिक पैसे हैं, वही धनी है। गरीब वही है, जिसके पास न तो सूचनाएं हैं, न जानकारियां। तो क्यों न अपने व्यक्तित्व विकास के लिए, सफलता के लिए, आगे बढ़ने के लिए, आज से ही ज्ञान अर्जन का प्रयास शुरू कर दिया जाय? व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी।
लफ्फाजियों से इंसान महान नहीं बनता, इसके लिए कुर्बानियां देनी पड़ती हैं।
Sunday, February 1, 2009
मुजस्सम हुस्न में बह गया तबस्सुम
अरे क्या गोया तबस्सुम, अरे क्या खोया तबस्सुम,
मुजस्सम हुस्न में बह गया तबस्सुम।
दरो-दीवार हैं न खिड़कियां मेरे घर में,
ताक लो, झांक लो, सब देख लो, ऐ मेरी तबस्सुम।
तुम्हारी नाक के नीचे गिला है, शिकवा है,
तुम्हारी आंख के नीचे कजा है, फजा है,
हमीं हम हैं, खुदी की याद में खोये हुए,
बर्बादे इश्क-मुश्क का, यही मंजर तबस्सुम।
सुना था छीन लेती है मोहब्बत रूह जिस्म से,
सुना था दोस्तों को भी बना देती है ये दुश्मन,
यहां तो रूह जिस्म है बना, दुश्मन बने हैं दोस्त,
यहां क्या ताल, हाल, ढूंढ़ लो, आओ तबस्सुम।
मरीज जिद का शराबी, हकीम नीम जैसा है,
सलाहियत पे चला है, कसाइयत को झेला है,
जुनूने गम का मारा है, सुकूने हम में जीता है,
ये चाल, माल मयस्सर, बहुत ही दूर तबस्सुम।
मुजस्सम हुस्न में बह गया तबस्सुम।
मुजस्सम हुस्न में बह गया तबस्सुम।
वक्त एहसान के जज्बे की बानगी भी भर देता है।
तू मेरा यार, मैं तेरा यार
इस पूरी कथा में दफादार साहब के व्यक्तित्व को देखने-समझने की जरूरत है। व्यक्तित्व विकास के लिए यह बड़े मतलब का मसला है, जिस पर एक बार अमल करने की आदत पड़ गयी तो समझिए जिंदगी तर गयी। इसके तहत करना सिर्फ इतना है कि आदमी कुछ भी करे, किसी भी उम्र या पेशे में रहे, सिर्फ दोस्त बनाता चले, सच्चा दोस्त। अपनी कार्यशैली का कुछ हिस्सा रोजाना मित्रता कायम करने के लिए दान करे, झोंके। आज जिसे मजबूत माना जाता है, वह वही तो है जिसके दोस्तों की फेहरिश्त लंबी है, जिसके शुभेच्छुओं की संख्या अधिक है। कोई कार वाला आपका दोस्त है, अब आपके पास कार न होने का कोई गम नहीं। कोई होटल वाला आपका दोस्त है, आपके ठहरने-भोजन की चिंता खत्म। कोई अफसर, कोई नेता, कोई जज, कोई पत्रकार.... जिसके दोस्त हों, उनके सामने बहुत सारी परेशानियां सिर ही नहीं उठातीं। आम तौर पर होता यह है कि आदमी सिर्फ पैसे कमाने की धुन में लगा रहता है और समाज, परिवार, यहां तक कि खुद से भी कटता चला जाता है। न तो किसी का सच्चा दोस्त बन पाता है, न किसी को बना पाता है। कभी सहपाठियों को तो कभी सहकर्मियों को दोस्त समझ लेता है और लगातार खता खाता रहता है। खता खाने के बाद फिर उन्हीं को गद्दार ठहराता, खिलाफ में भुनभुनाता, हरकत करता उलझा रहता है। दोस्ती टूटने का गम भी मनाता है, गाता चलता है- दोस्त-दोस्त ना रहा, प्यार-प्यार ना रहा। विचार कीजिए, जब आप किसी के नहीं तो आपका कौन? तो मेरी मानिए, यह गाना छोड़िए कि दोस्त-दोस्त ना रहा....., अब तो गाइए, मैं तेरा यार, तू मेरा यार, यही है सफल जिंदगी का सार, यही है, यही है, यही है। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। धन्यवाद।
जिनसे ताल्लुकात होते हैं, उनकी ख्वाहिशातों का भी खयाल रखना पड़ता है, वर्ना ताल्लुकात खत्म होने का खतरा हमेशा चौकस मानिए।