अब जरा इस पर विचार करें कि जिस व्यक्ति ने धैर्य नहीं रखा, उसका खेल कैसे बिगड़ जाता है। बीजारोपण को ही देखिए। आपने बीज डाले, आपको उसकी प्रस्फुटन अवधि का पता नहीं है, पता है भी तो धैर्य खो बैठे और आप बीज को मिट्टी से निकालकर लगे उलटने-पुलटने। अब इसे आसानी से समझा जा सकता है कि परिणाम क्या हासिल होगा। इस धैर्यहीन कार्रवाई में बीज ही नष्ट हो गया। हो गया कि नहीं? थोड़ा व्यावहारिक उदाहरण। हमारे एक सीनियर थे। दफ्तर के नंबर टू ने जब इस्तीफा डाला तो प्रबंधन के स्तर तक से उक्त सीनियर को नंबर टू बनाने की बात चलने लगी। ढंके-छिपे ढंग से उन्हें भी इस बात का इशारा कर दिया गया कि नंबर टू नहीं रहे तो आपको ही उनका काम देखना होगा। जूनियर्स भी उनका उसी तरीके से सम्मान करने लगे। अब सीनियर महोदय ने एक दिन नंबर टू के केबिन का उद्घाटन कर दिया। बैठ गये, अगरबत्ती जलवायी, लड्डू बंटवाये और लगे बधाइयां कबूल करने। सब कुछ ठीक था। पर, कांटा बहुत ऊपर जाकर फंस गया। वहां यह महसूस किया गया कि इस व्यक्ति ने प्रबंधन से उसकी हैसियत और अधिकार छीन लिये। घोषणा करने और प्रोन्नति देने के अधिकार छीन लिये। नतीजा, सीनियर महोदय के पूरे व्यक्तित्व पर जो सवाल उठा, वह अगले सात-आठ महीने के बाद उनके इस्तीफे की परिणति के रूप में सामने आया। उस वक्त मुझे लगा कि धैर्य का होना व्यक्तित्व विकास के लिए कितना महत्वपूर्ण है। है कि नहीं? आप सोचिए। मेरी ओर से तो फिलहाल इतना ही। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी।
सुनना बोलने से ज्यादा बुद्धिमानी का काम है। ज्यादा बोलने वाले बेवकूफ होते हैं।