Wednesday, February 26, 2014

खबर हार्ड तो हेडिंग साफ्ट - 2

खबरों की जान हैं शीर्षक -3
आइए लेते हैं खबरों की खबर - 7

सवाल है कि हत्या, लूट और बलात्कार जैसी घटनाओं की हेडिंग साफ्ट कैसे की जाए?  उदाहरण से समझिए। एक युवक की दिनदहाड़े बदमाशों ने बीच बाजार गोली मार कर हत्या कर दी। एक ने हेडिंग बनाई -दिनदहाड़े बीच बाजार युवक की हत्या, दूसरे ने लिखा - सरेआम गोलियों से भूना, तीसरे ने शीर्षक बनाया - पुलिस का इकबाल ध्वस्त, सरेआम खून, चौथे ने लिखा - हत्यारों का राज!, पांचवें ने हेडिंग बनाई - बाइक से उतरे, पिस्तौल सटाई और दागने लगे गोलियां। ये सब हार्ड खबर की हार्ड हेडिंग है। आपको नहीं जंचती। आपके सामने सवाल है साफ्ट हेडिंग लगाने का? क्या लगाएं?

इसी परिप्रेक्ष्य में एक और उदाहरण पर  गौर फरमाइए। शाम में चार बजे एक सूचना आती है कि शहर से बीस किलोमीटर की दूरी पर ड्राइवर की लापरवाही से ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो गई। अब सारा फोकस ड्राइवर पर। थोड़ी देर बाद सूचना अपडेट हुई कि ड्राइवर नशे में था। फिर अपडेट हुई कि ड्राइवर ४८ घंटों से लगातार ड्यूटी पर था। फिर अपडेट हुई कि सिग्नल था नहीं औऱ ड्राइवर ने ट्रेन रोकी नहीं। सारा फोकस ड्राइवर की लापरवाही पर हो गया और हेडिंग उसी के इर्द गिर्द बन गई। रिपोर्टर खुश, काम हो गया। डेस्क का साथी खुश, मिल गई एक हार्ड खबर। कल संपादक भी खुश कि खबर छूटी नहीं।

लेकिन, एक संवाददाता ऐसा निकला जो अपडेट होती सूचनाओं पर टिका बैठा नहीं रहा। वह पहुंच गया स्पाट पर, मिल लिया ड्राइवर से, बातें कर लीं उन लोगों से जो स्पाट पर मौजूद थे। अब उसकी हेडिंग थी - बचा ली ग्यारह मासूमों की जान। दरअसल उसे पता यह चला कि ड्राइवर ने क्रासिंग पर फंसे उस टेम्पो को देख लिया था, जिसमें ग्यारह स्कूली बच्चे सवार थे। उसे पता चल गया था कि ड्राइवर न तो नशे में था, न ही उसने किसी नियम को तोड़ा था।

अपना सवाल फिर वही है। खून खराबे वाली हार्ड खबर की हेडिंग साफ्ट कैसे बने? ट्रेन दुर्घटना का विश्लेषण गवाह है, रिपोर्टर को मेहनत करनी होगी। टेक्स्ट बटोरना होगा। गहन अन्वेषण करना होगा और खबर के साथ दिल से जुड़ना होगा। हेडिंग तो बनेगी ही, कैसे नहीं बनेगी? आखिर बात तो पूरी हो, सूचना तो पूरी हो, मालूमात तो पूरे हों। ये सब होंगे तभी तो बनेगी कुछ संभावना।

इसके पहले कि दिनदहाड़े हत्या की कुछ साफ्ट हेडिंग सुझाऊं, एक और दृष्टांत पर गौर फरमाइए। फिर बात ट्रेन की। वक्त भी वही रखिए, यानी शाम के चार बजे। पता चलता है कि राजधानी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गई और करीबन डेढ़ सौ लोग मारे गए। अब लड़ाई शुरू हो गई मारे जाने वालों की संख्या ज्यादा से ज्यादा दिखाने की। कोई अखबार लिखता है १५० मरे, कोई लिखता है १५८ तो कोई १७५। जाहिर है, राजधानी दुर्घटनाग्रस्त तो वे लिखेंगे ही। अब जरा सोचिए, घटना शाम चार बजे की है। यदि आप अखबार के लिए खबर लिख रहे हैं तो वह बहुत जल्दी भी वह पाठक के पास पहुंची तो कम से कम पंद्रह-सोलह घंटे तो गुजर ही चुके होंगे। मान लेते हैं, किसी रिपोर्टर को यह भी ख्याल आया। अब चूंकि उसका फोकस मृतकों की संख्या है, इसलिए वह देर रात तक अस्पताल खंगालेगा और उसमें दो चार की और बढोतरी कर लेगा। काम खत्म, खबर कवर?

लेकिन, एक भाई ऐसा निकला जो  यह पता करने लगा कि राजधानी एक्सप्रेस आखिर दुर्घटनाग्रस्त हुई तो कैसे हुई? राजधानी का मतलब अतिरिक्त विभागीय सतर्कता, अतिरिक्त सुरक्षा व्यवस्था। अब उसे पता चला कि यह विभागीय कोई बड़ी लापरवाही थी, उसे पता चला कि यह बड़ी नक्सली साजिश थी और उसकी हेडिंग बन गई बड़ी लापरवाही या बड़ी नक्सली साजिश। आप स्वयं कल्पना कर सकते हैं कल अखबार कौन सा भीड़ में अलग दिखेगा, उस भीड़ से कौन सा अखबार उठेगा।

अपना सवाल तो फिर वही है। उस दिनदहाड़े खून की साफ्ट हेडिंग क्या हो? उम्मीद है कुछ हेडिंग आपको सूझने लगी होगी। नहीं, तो बातें अगली पोस्ट में।

Thursday, February 20, 2014

खबर हार्ड तो हेडिंग साफ्ट

 खबरों की जान हैं शीर्षक - 2
आइए लेते हैं खबरों की खबर -6


जमशेदपुर की बात है। पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में राजनीति की दिशा और दशा पर हफ्तेवार पूरा पेज लिखने वाले बुजुर्ग पत्रकार केदार महतो (अब इस दुनिया में नहीं हैं) कहा करते थे कि यदि खबर हार्ड हो तो शीर्षक साफ्ट बनाइएगा और खबर साफ्ट हो तो शीर्षक को हार्ड कर दीजिएगा। हमलोग उन्हें चाचा कहा करते थे। जब पूछता कि चाचा, जरा विस्तार से बताइए तो कहते खुद सोचिए। बड़ी मुश्किल थी, कोफ्त भी होती थी। पहले तो बात समझ में ही नहीं आई। पर, इतना जरूर हुआ कि दिमाग चलने लगा। जब कभी हार्ड खबर लेकर बैठता तो साफ्ट हेडिंग सोचने लगता। जब कभी साफ्ट खबर लेकर बैठता तो हार्ड हेडिंग सोचने लगता। अजीब मुसीबत थी। आप विश्वास करिए, यह मशक्कत हर खबर की हेडिंग के लिए होने लगी। और नतीजा बड़ा चमत्कारिक था। अखबार चमकने लगा था।

तो मुद्दे पर आएं। क्या हो हार्ड खबर की साफ्ट हेडिंग और साफ्ट खबर की हार्ड हेडिंग? अमूमन होता यह है कि जब किसी अधिकारी या विभाग की कलई खोलती हार्ड खबर लिखी जाती है तो संवाददाता या डेस्क के साथी हेडिंग को भी हार्ड ही रखते हैं। लेकिन, जरा रुकिए, सोचिए..। क्या इसकी कोई साफ्ट हेडिंग हो सकती थी जो तीर की तरह सीधे दिलोदिमाग में घुस जाती? सोचिए कि क्या यह खबर किसी विभाग या किसी अधिकारी के भ्रष्टाचार की कलई खोलती पहली खबर बन रही है? क्या वह पहला विभाग है या पहला अफसर है जो भ्रष्टाचार में लिप्त है? तो सोचिए कि आप इस खबर का शीर्षक हार्ड बनाने पर क्यों तुले हैं?

खबर में मुख्य रूप से तीन प्राथमिकताएं ही होती हैं। पहली सूचित करना। दूसरी सावधान करना। तीसरी संवाद करना। इन तीन प्राथमिकताओं पर गौर कीजिए। यह हार्ड और साफ्ट की परिभाषा भी समझा रही हैं। मेरा आग्रह तीसरी प्राथमिकता पर है। संवाद की श्रृंखला ही आपको इस फर्क को समझाने लगेगी। सवाल आएगा कि इस खबर को लेकर संवाद किससे? किससे?? फिर सोचिए, इस खबर की बाबत आप संवाद किससे कर रहे हैं। क्या उस आम पाठक से जो अखबार खरीदकर पढ़ रहा है? क्या उस विभाग के आला अधिकारी या सीधे सरकार से? सोचिए, क्या यह संवाद सीधे उस विभाग से या उस अधिकारी से नहीं हो सकता? मुझे लगता है कि अब आपकी हेडिंग बन गई होगी। और एक नहीं, कई हेडिंग्स बन गई होंगी। बनी कि नहीं? चलिए, हम ही कुछ सुझाते हैं। भ्रष्टाचार की कलई खोलती इस तस्वीर के कई साफ्ट शीर्षक हो सकते हैं - मनरेगा में यह क्या हो रहा है सर..., मत बेचिए भूखों का अनाज, आ गया भादो अब क्या करेंगे जॉब कार्ड आदि आदि...।

ग्लैमर की चकाचौंध भरे आज के परिवेश में कहीं कोई भूख से मर जाता है। आपको इसकी खबर बनानी है। बहुत आक्रोश होगा मन में। व्यवस्था के प्रति, समाज के प्रति। क्या लिख दें। मन कर रहा होगा कि गुस्से का कोई आखिरी शब्द हो तो उसे ही उकेर दें। पर सावधान, यह हार्ड खबर बिल्कुल साफ्ट हेडिंग की मांग कर रही है। सोचिए, यदि इसकी हेडिंग आप यह लगा दें  'उफ वो ठंडा चूल्हा, वो चमकते बर्तन' तो क्या कम मारक दिखेगी, क्या कम व्यवस्था को झकझोरेगी, क्या इससे निकलने वाला दर्द कुछ ही लोगों को टीसेगा? सोचिए, सोचिए।

और मतलब समझे? कैसे बनती है हार्ड खबर की साफ्ट हेडिंग? पहली बात, आपको खबर से पूरी तरह जुड़ जाना होगा, उस पूरी घटना को अपने ऊपर हुआ मानना होगा। दूसरी बात, अपनी जुबान को किसी भी कुव्यवस्था या भ्रष्टाचार की वजह से पीड़ित की फरियाद लगाने वाले की जुबान बनानी होगी। और सावधानी भी जरूरी है। यह कि मामला प्रखंड की गड़बड़ी का हो तो दोषी पूरे जिला प्रशासन को मत ठहरा दीजिएगा, दोष जिलाधिकारी के मत्थे मत मढ़ दीजिएगा। फिर खबर जिस असर, जिस परिणाम के लिए लिखी जाएगी, उसमें देरी हो जाएगी।  

अब एक सवाल उठ सकता है कि हत्या, लूट और बलात्कार जैसी हार्ड खबर की हेडिंग साफ्ट कैसे की जाए? है न रोचक सवाल? तो जवाब अगली पोस्ट में।

Monday, February 17, 2014

खबरों की जान हैं शीर्षक -1

आइए लेते हैं खबरों की खबर - 5

 बिहार की बात है, मुखियों की गतिविधियों पर कंपाइल स्टोरी बन रही थी। खबर पूरी तरह से नकारात्मक भाव रखने वाली थी। खबर बनकर आई कि लूट-खसोट और भ्रष्टाचार में लिप्त हैं अधिकतर मुखिया। जिक्र उन योजनाओं का था, जिनकी राशि मुखियों की जेब में पहुंच चुकी थी और असली हकदार लाभ से पूरी तरह वंचित थे। मौका था खबर को पहले पन्ने पर डिस्प्ले का। बात जम नहीं रही थी क्योंकि उसका शीर्षक जम नहीं रहा था। होने लगी ब्रेन स्टार्मिंग। आखिर इस खबर का शीर्षक क्या हो कि पढ़ने वाले के दिलो दिमाग में सीधा घुस जाए। तो बात आई कि आम पब्लिक की मुखियों के बारे में क्या राय है। क्या बोल रही है जनता? जो दो चार वाक्य सामने आए, उनमें एक था - मुखियों की फौज, मार रही मौज। और यह शीर्षक बन गया उस खबर का। यकीन मानिए, अखबार और खबरों की भीड़ में सिर्फ वही शीर्षक चमक रहा था, लोगों को आकर्षित कर रहा था और लोग कह रहे थे, सही लिखा है अखबार ने, हमलोगों की बात रख दी है खोलकर...।

एक दूसरी खबर का जिक्र करूं। लीची का सीजन चल रहा था और पछुआ भी अपनी रफ्तार छोड़ने को तैयार नहीं थी। नतीजा, पेड़ पर टंगी लाल-लाल लीचियां फट गई थीं और इसी के साथ फट गया था लीची किसानों का कलेजा। खबर बन कर तैयार थी। मगर, फिर हालात वही थे। पहले पन्ने पर ली जाने वाली इस खबर का शीर्षक जम नहीं रहा था। तो फिर शुरू हुई ब्रेन स्टार्मिंग। क्या हो शीर्षक? मंथन शुरू हुआ और शीर्षक निकलकर आया- पछुआ ने लीची को लूटा। जी हां, कल के अखबार में इस शीर्षक की सर्वत्र सराहना हो रही थी, किसानों, व्यापारियों और आम पाठकों को भा रही थी। टिप्पणी थी - अखबार बिल्कुल मौलिक लिखता है।

राजस्थान में एक हवाई अड्डे का शिलान्यास करने प्रधानमंत्री आने वाले थे। यह हवाई अड्डा उस खास क्षेत्र में बन रहा था, जहां के लोगों के लिए हवाई जहाज पर चढ़ना तो दूर, उसे नजदीक से देखना भी एक सपने की तरह ही था। जिस दिन हवाई अड्डे का शिलान्यास होना था, उस दिन के अखबार के लिए सिर्फ इसी मुद्दे पर पूरा पेज प्लान था। खबरें तो कई थीं, पर कामन इंट्रो के साथ जो कामन हेडिंग बन रही थी, वह जम नहीं रही थी। जाहिर है विचारों का अंधड़ चल रहा था। प्रतिद्वंद्विता में आगे रहने की होड़ अलग से। आखिर में इसका जो शीर्षक बना, उसकी सराहना दूसरे अखबार वालों ने भी की। शीर्षक था - सपने चूमेंगे आसमान।

शीर्षकों के ऐसे ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे, जिन पर देर तक, बहुत देर तक बहस की जा सकती है, उदाहरण दिए जा सकते हैं। समझने वाली बात यह है कि खबरों की जान होते हैं शीर्षक और शीर्षक लगाना एक मशक्कत का काम है, दिमाग का काम है, दिल से खबरों से जुड़ने का काम है। अच्छे शीर्षक के लिए कंटेंट का भी अच्छा होना जरूरी है। जैसे, किसी ने खबर बना दी- महेश प्रजापति की अध्यक्षता में प्रज्ञा मंडल की बैठक हुई, इसमें शिक्षा के विकास पर विचार किया गया, इसमें फलां-फलां लोग उपस्थित थे, फलां ने धन्यवाद ज्ञापन की औपचारिकता निभाई। अब इस खबर का क्या लगाएंगे शीर्षक? इस खबर में एक बात मार्के की थी। संवाददाता ने ध्यान दिया होता तो यह छोटी सी खबर भी दिलचस्प हो सकती थी। इसका शीर्षक भी मार्गदर्शन कर सकता था। सोचिए....।

बैठक में क्या हुआ था? जवाब है - शिक्षा के विकास पर विचार। इस छोटी बैठक में लोग भले छोटे रहे हों, उनके विचार महत्वपूर्ण हो सकते थे। आखिर क्या थे शिक्षा के विकास की बाबत उनके विचार। रिपोर्टर को उन पर गौर करना चाहिए था। तब खबर लिखने का एंगल ही बदल जाता, शीर्षक तो अपने आप बदल जाता। बदल जाता कि नहीं? लोगों का आकर्षित करता। करता कि नहीं? जारी....