Saturday, June 22, 2013

...और यूं बदल जाती है खबर

आइए लेते हैं खबरों की खबर - ४

अजीब लग सकता है, पर है दुरुस्त। एक सूचना आई और आपने उसे बिना सोचे समझे खबर में ढाल दिया। खबर गई, छपी, पर कोई असर नहीं छोड़ पाई। आप ही का कोई प्रतिद्वंद्वी उस सूचना की मीन मेख निकालने लगा। कुछ सोचा, कुछ विचारा, कुछ बहस चलाई, क्यों-कैसे का सवाल उठाया और सूचना ने रुख बदल लिया, खबर बदल गई। वह और उसका हाउस छा गया। कैसे? आइए, इसे एक उदाहरण के साथ समझते हैं।

अभी कुछ दिनों पहले की बात है। शाम की बैठक में खबरों की प्रायरिटी तय हो रही थी। इनपुट हेड ने बताया कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से एक महत्वपूर्ण खबर है। पूछा गया - क्या? उन्होंने बताया - बीएचयू प्रशासन ने रैगिंग रोकने के लिए नई नीति बनाई है। पूछा गया - क्या? बताया गया - रैगिंग साबित होने पर इसमें लिप्त लड़के पर कड़ी कार्रवाई तो की ही जाएगी, यदि आरोप गलत निकला तो शिकायत करने वाले पर भी बीएचयू कार्रवाई करेगा। पूछा गया - क्या करेगा? उन्होंने बताया - उसे विश्वविद्यालय से निकाला भी जा सकता है।

सूचना जिस रूप में आई, उसके मुताबिक खबर का स्वरूप था - रैगिंग रोकने के लिए बीएचयू ने बनाई नई नीति। अब नीतियों में क्या-क्या है, इसे दूसरे शीर्षक, प्वाइंटर और बाडी में दीजिए। यह सीधी बात थी, सीधी सूचना थी, सीधा प्रयास था, सीधी खबर बनती, छपती और छपकर खत्म हो जाती। जी हां, खबर खत्म हो जाती। मगर नहीं। सोचने वाले ने सोचा, विचारा, बहस की और खबर बदल गई, उसकी आत्मा बदल गई और खबर कनेक्ट हो गई पूरे छात्र समूह और बीएचयू प्रशासन से। कैसे? आइए, आगे समझते हैं।

प्राथमिक सूचना के साथ जो बहस चली, उसका पहला सवाल था - ये क्या नीति है भई? रैगिंग होने वाला छात्र आखिर कैसे अपने आरोप को साबित करेगा? रैगिंग करने वालों का हुजूम होता है, इसीलिए तो वे भारी पड़ जाते हैं और मनमानी कर पाते हैं। अब एक लड़के की कुछ लड़के अकेले में घेर कर रैगिंग करते हैं तो वह इसे साबित कैसे करेगा, मुश्किल होगी। उसके पक्ष में बोलेगा कौन? यदि बोलने वाला बोलने की स्थिति में होता तो फिर रैगिंग की नौबत ही क्यों आती?

बहस का दूसरा जो बिंदु था, वह यह कि इससे रैगिंग पर रोक लगे न लगे, शिकायतें बंद जरूर हो जाएंगी। लड़के निष्कासन या कार्रवाई के भय से शिकायत ही नहीं करेंगे। तीसरी बात यह उभर कर सामने आई कि बीएचयू प्रशासन ने रैंगिंग रोकने की कवायद नहीं की है, रैगिंग की शिकायतों को खुद तक पहुंचने से रोकने की बुद्धि भिड़ाई है। खूब बहस चली और आखिर में संपादकीय क्रीमी लेयर ने माना कि यह सही है। अब सवाल था, इस खबर को लिखा कैसे जाए, छापा किस अंदाज में जाए।

बहस का रुख सवालिया था तो खबर भी सवालिया निशान छोड़ती बनाने का फैसला हुआ। फिर तय हुआ कि सूचना के आगे की बात रखती हो खबर। खबर के माध्यम से बीएचयू प्रशासन को कुछ सलाह दी जाए। खबर ऐसी बने कि बीएचयू प्रशासन को लगे कि कुछ गलत फैसला हो रहा है। छात्रों को लगे कि अखबार उनके साथ है। आम पाठक को भी लगे कि यह उनकी आवाज है, जो अखबार ने उठाई।

और बस। बन गई हेडिंग। यह थी - नई रैगिंग नीति से मुश्किल में होंगे पीड़ित छात्र। अब क्या यह बताने की जरूरत है कि खबर कैसी होगी, उसका वाक्य विन्यास क्या होगा? हेडिंग बन गई यानी खबर का खाका तैयार। खबर का खाका ठीक-ठाक खिंच जाए, इसके लिए बेहद जरूरी होता है कि मारक हेडिंग बन जाए। खैर, इस पर बात किसी और पोस्ट में। पर साहब, यकीन मानिए, इस खबर का जोरदार इंपैक्ट हुआ। इस खबर को लेकर पूरे विश्वविद्यालय परिसर में सनसनी रही और रही अखबार की चर्चा। फीडबैक पाकर संपादकीय टीम अगले रोज गदगद थी।

तो खबर थोड़ी बहस मांगती है, थोड़ा विचार और थोड़ा चिंतन-मंथन भी। प्रतिद्वंद्विता का दौर है, आगे निकलने की होड़। सोचना तो पड़ेगा न! आगे बताऊंगा शीर्षकों का तिलस्म। आखिर एक शीर्षक कैसे खबर को खींच ले जाता है, कैसे खबरों के बीच से यूं निकल आता है जैसे पानी के भीतर से हवा भरा गुब्बारा। इंतजार कीजिए।

Sunday, June 2, 2013

सावधान, काफी हुनरमंद होती हैं खबरें

आइए लेते हैं खबरों की खबर - 3

खबरों से जुड़े किसी भी शख्स से यह पूछा जाए कि खबरों के कितने वर्ग होते हैं तो वह सीधे-सीधे कई खबरें गिना डालेगा। अपराध-अपराधी की खबरें, घटना-दुर्घटना की खबरें, साहित्य-संस्कृति-सामाजिक सरोकारों की खबरें, शासन-प्रशासन-विधि व्यवस्था की खबरें, शिक्षा-शिक्षक की खबरें, कारोबार-कारोबारी की खबरें, ट्रैफिक-यातायात-परिवहन की खबरें, यात्रा-पर्यटन की खबरें, संचार-दूरसंचार की खबरें, नेता-राजनीति की खबरें, संस्था-संस्थान की खबरें आदि-आदि....।

सही भी है। मोटे तौर पर खबरें इन्हीं जगहों से निकलती हैं, इन्हीं की होती हैं। मगर क्या कभी आपने सोचा कि इन्हीं खबरों के भीतर कुछ और वर्ग तैयार खड़े होते हैं, जिन पर गौर करना बेहद जरूरी हो जाता है। इन वर्गों पर गौर किए बगैर खबरों में घुसे, खबर लिखनी शुरू कर दी, लिख दी तो गड़बड़ी शुरू हो जाती है। गड़बड़ी यानी डेस्क को, आपके संपादक को और अंततः अखबार को या उस मीडिया माध्यम को जिससे आप जुड़े हुए हैं और जिसे आप खबर दे रहे हैं।

जरा सोचिए। वह कोई एक खबर ही तो होती है जो लीड बन जाती है, वह कोई एक खबर ही तो होती है जो बाटम बन जाती है। कोई खबर पहले पन्ने पर जगह ले लेती है कोई अंदर के पन्ने पर चली जाती है। वह भी खबर ही होती है जिसे टाप में बाक्स ट्रीटमेंट दिया जाता है या कह दिया जाता है कि अंदर के किसी भी पन्ने पर बाक्स लगा लें। ध्यान दें, खबर तो वह भी होती है, जिसे छापने से मना कर दिया जाता है।

खबरों का वर्गीकरण और भी हैं। यह है साइज, लेंथ। अकसर अखबारों में बेहद गंभीर चर्चाएं सिर्फ इस बात पर होती हैं कि इस खबर को लीड लगाओ पर दो कालम ट्रीटमेंट दो, तीन कालम ट्रीटमेंट दो या चार कालम से ज्यादा मत छापो। यह तो बैनर है यार, इस खबर को पूरे आठ (आजकल सात) कालम में तानकर- लहराकर छापो। इस खबर को चार कालम में क्यों लिख दिया, यह तो सिंगल कालम में भी छपने के लायक नहीं है, इस खबर को तो ब्रीफ में निपटा दो, इसमें है क्या। इस खबर को सिंगल में क्यों निपटा दिया, इसे कम से कम तीन कालम में छापने के लायक लिखो। इस खबर को किसने लिखा, क्यों लिखा, कितना पैसा खाकर लिखा आदि-आदि...। 

अब यह सोचिए, खबरों की साइज, लेंथ  और उसके प्लेसमेंट पर विचार किए बगैर आपने खबर लिख दी तो कितनी गड़बड़ होती है! एक खबर पर कितनी देर तक उलझन होगी, बहस होगी, समय बर्बाद होगा, आप डांट खाएंगे और पूरा काम करने के बाद भी निराश घर जाएंगे।

तो खबरों की दुनिया में चैन की सांस लेनी है तो उस हुनर का मास्टर बनकर रहिए जहां अगला आपको सिर्फ खबरों की लेंथ-साइज और प्लेसमेंट को लेकर क्लास लगा देता है। और इसका हुनरमंद बनना बेहद आसान है। कुछ बातें सोचने के लिए तो आपको यही आलेख मजबूर कर रहा होगा, कुछ आगे का कर देगा। इंतजार कीजिए।