मुजफ्फरपुर में घर से दफ्तर के बीच है संयुक्त कृषि निदेशक का कार्यालय। इसी के सामने भगत जी की पान की दुकान है। खुशमिजाज भगत जी... बात-बात मे बच्चों सी किलकारियां मारने वाले भगत जी। दफ्तर आते-जाते उनके हाथों का एक पान खाने का रुटीन रहा है, सो, भगत जी से न जाने कब एक आत्मीय रिश्ता सा बन गया, पता भी नहीं चला।
पता चला आज...!
कुछ दिनों से बंद थी उनकी दुकान, सो पान खाने का सिलसिला भी थम गया था। अभी दो दिनों पहले दफ्तर से लौट रहा था तो दुकान खुली थी और भगत जी काउंटर के पीछे खड़े होकर पान बेच रहे थे।
फिर क्या था, मेरी मोटरसाइकिल उनकी दुकान की ओर मुड़ी और रुक गई।
मोटरसाइकिल से ही हलकारा लगाया, पान खिलाइए भगत जी।
उन्होंने मेरी ओर देखा, मगर यह क्या, सदा हंसकर स्वागत करने वाला भाव उनके चेहरे से गायब था। निगाहों से उनके चेहरे का मुआयना किया। सिर, दाढ़ी मूंड़े हुए थे।
पूछा - क्या हुुआ?
बोले - परिवार में एक खटका हुआ था। (खटका मतलब परिवार में किसी की मौत)
वे पान बनाने में मशगूल हो गए। लेकिन, पान खाने के बाद चूना लेने और उसे जीभ पर लगाने से पहले मैंने पूछ ही लिया। कौन थे?
उनका सपाट एक शब्द जो जुबान से निकला, वह था - पत्नी।
क्या...! आपकी पत्नी गुजर गईं?
बोले - हां।
और भगत जी के चेहरे पर जो तकलीफ उभरी, उसका बयां नहीं कर सकता।
फिर बोले - कई बीमारियां थीं, इलाज करा रहा था, नहीं बची।
कहां इलाज करा रहे थे?
यहीं, मुजफ्फरपुर में ही...।
मेरे मुंह से स्वतः निकला - बड़ा कष्ट हो गया भगत जी...!
और वे बोलते चले गए - हां, बड़ा कष्ट हो गया..., बड़ा कष्ट हो गया...।
भगत जी बोल रहे थे और उनका चेहरा गम के गहरे समंदर में डूबता चला जा रहा था। उस समंदर में गोते लगा रहे थे उनके बच्चे की लावारिस परवरिश और खुद उनका अधूरा पड़ा आगे का पूरा जीवन...।
एक तस्वीर दिमाग में उभरी।
पत्नियों पर हम न जाने क्या क्या जोक बनाते हैं, मुहावरों-जुबानों में हम उन पर कितना तंज कसते हैं, उन्हें नीचा दिखाने का कोई मौका कभी नहीं छोड़ते हैं...
भगत जी का चेहरा कह रहा था, लोग गलत करते हैं।
और दो दिनों बाद आज फिर उनकी दुकान से गुजरा तो पान खाने रुक गया।
भगत जी ने अपना जीवन सामान्य कर लिया है। पेट की मजबूरी, गम गलत कर देती है, मगर उसके निशान नहीं मिटा सकती।
भगत जी के चेहरे से बच्चों सी किलकारी वाला स्वागत भाव नहीं मिल रहा था, वहां गम का समंदर आज भी ठाठें मार रहा था।
आज भगत जी का चेहरा मुझसे देखा न गया।
कब उन्होंने पान बनाया, कब मैंने उसे मुंह में रखा और कब मैं मोटरसाइकिल चालू कर वहां से आगे बढ़ चला, मुझे भी पता नहीं चला। भगत जी से कोई बात करना सूझ ही नहीं रहा था...!
घर पहुंच चुका हूं और दिमाग में दो बातें खलबली मचा रही हैं।
एक कि आज मैंने भगत जी से आत्मीय होकर कोई बात क्यों नहीं की? यह आत्मीयता का परिचायक है या किसी को जीवन की अंधी दौड़ में अकेला छोड़ देने की आम मानवीय प्रवृति?
दूसरी बात यह कि क्या पत्नियों के बगैर जीवन इतना एकाकी हो जाता है, इतना वीरान हो जाता है?
क्या इतना...?
मुझे याद आता है वह दिन, जब मेरी मां की मौत हुई थी। उन्हें कैंसर था। आपरेशन के बाद लंबा इलाज चला, मगर वे नहीं बचीं। मेरी गोद में ही उनका सिर था, जब मैं उन्हें गंगाजल पिला रहा था और जब उन्होंने अंतिम सांसें लीं।
पिताजी दरवाजे पर थे। भीतर से जब रुलाई की आवाज सुनी तो वे समझ गए। सन्निपात की अवस्था में वे उस कमरे में आए, मां को निहारा, उनके चेहरे पर हाथ फिराए और फिर बाहर दरवाजे पर आकर बैठ गए। चुपचाप।
उनकी आंखों से अविरल अश्रुधाराएं बह रही थीं। ऐसी कि मानो समंदर फूट पड़ा था, बिना गर्जन, बिना तर्जन....। मानो वे धाराएं अब रुकने वाली ही नहीं थीं।
अब हमारे लिए पिताजी की अश्रुधाराएं मां की मौत पर भारी थीें। इतनी कि मैं गांव के उनके मित्र शृंखला के लोगों को उन्हें सांत्वना देकर किसी तरह उन्हें सामान्य करने की मनुहार करने लगा।
मुझे याद आते हैं वे दिन...
जिस तरह आज भगत जी का चेहरा मुझसे देखा न गया, ठीक उसी तरह मुझे तब अपने पिताजी का चेहरा नहीं देखा जा पा रहा था...!