Tuesday, November 17, 2009

ढलता सूरज, धीरे-धीरे ढलता है, ढल जाएगा

जहां जड़ों में सबही नचावत राम गोसाई मजबूती से स्थापित हो और जन्म-जन्मांतर के रिश्ते-नाते का हर दिमाग कायल हो, वहां भविष्य को संवारने के लिए संभावनाओं की तलाश कर उस पर अमल करना थोड़ा दुश्वारी भरा तो हो सकता है, पर है जरूरी। जरूरी इसलिए कि जन्म-जन्मांतर के रिश्ते का गुणगान करने वाला दिमाग भी अगले जन्म को सुधारने की बात तो करता ही है। अगला जन्म कुछ होता है या नहीं, इस पर चर्चा कभी बाद में, पर इस वक्त तो समझने की बात यही है कि अगला जन्म सुधारने के पीछे भी तो भविष्य सुधारने की ही बात होती है। होती है कि नहीं? तो जब होती है तो यह जरूरी है कि भविष्य को सुधारने की बात की जाए और उसके संवारने का टिप्स तलाशा जाए। मैंने कहीं पढ़ा था कि जिस काम को करने की आपने सोच ली, समझ लीजिए वह आधा पूरा हो गया। अब तो बस आपको काम कर डालना है। तो यह बड़ा जरूरी है कि भविष्य सुधारने के लिए कुछ करने को तैयार हुआ जाए। तैयार हो गए तो काम हुआ।

अब दो-तीन उन बुनियादी बातों की चर्चा, जिस पर गौर करने वाला आदमी कभी धोखा नहीं खाता, उसका भविष्य कभी खराब नहीं होता। चार कदम का सफर, उसके दो-चार हमसफर, थोड़ी आंधियां, थोड़ी खुश्बू, थोड़ी खुशियां, थोड़े गम इसी से तो बंधी होती है जिंदगी। और कुछ करें न करें, वक्त तो कट ही जाता है। ढलता सूरज, धीरे-धीरे ढलता है, ढल जाएगा। तो पहली बुनियादी बात यह है कि आप कुछ करें या न करें वक्त तो बीत ही जाएगा। इसलिए इस बीतते वक्त की नब्ज पकड़े और कुछ करें। कुछ भी करें पर करें। आपके हर दिन का कुछ न कुछ आउटपुट होना चाहिए। यह आउटपुट ही आपको समग्रता में चमकीला भविष्य देगा। गारंटी है।

कहते हैं, हिंदुस्तान का माइंड है - रिलैक्स। जल्दबाजी क्या है? आज नहीं कल, कल नहीं तो परसों। यह ख्याल नहीं होता कि आज शुक्रवार है, कल शनिवार और परसों रविवार। रविवार को दफ्तर बंद हो जाएगा। स्कूल में छुट्टियां हो जाएंगी। बैंक नहीं खुलेंगे। शुक्रवार को आपने कुछ नहीं किया और शुक्रवार बीत गया। शनिवार आया, वह भी बीत गया। आप बैठे रह गए। जब कुछ किया ही नहीं तो होगा क्या? अब बताइए, इसमें वक्त का कुछ दोष है? नहीं, दोष आपका है। आपको शुक्रवार को, शनिवार को कुछ करना था, पर आपने कुछ नहीं किया। यहीं है दूसरी बुनियादी बात। बात भी, सवाल भी। आखिर क्यों नहीं किया? इसलिए कि आपके पास प्रोग्राम नहीं था। आप जानते ही नहीं थे कि क्या करें? तो प्रोग्राम बनाना होगा कि आपको क्या करना है। तो बनाइए। आपको आज क्या करना है, कल क्या करना है, परसों क्या करना है, इसका मुकम्मल प्रोग्राम बनाइए। प्रोग्राम होगा तो वही आपको आगे बढ़ा देगा।

बुनियादी बातों की बात चल रही है। संदर्भ व्यक्तित्व विकास के साथ भविष्य संवारने का है। आप खुद देखेंगे कि दूसरी बुनियाद पर आपके अग्रसर होते श्रृंखला का तीसरा पायदान आपके बिल्कुल करीब होगा। और वह होगा कि कैसे करें? करने का जो प्रोग्राम बनाया है, उसे कैसे करें? जान लीजिए, सवाल उठता है तभी जवाब ढूंढे जाते हैं। एक बार सवाल उठा कि कैसे करें, निश्चित जानिए तभी जवाब भी आएगा कि ऐसे करें। और एक बार रास्ता मिल गया तो सफर कितना आसान होगा, क्या यह कहने की बात है? नहीं न? तो मेरे कहने से ही सही, निकल पडि़ए इस मार्ग पर, जो आपके लिए भविष्य की ढेर सारी संभावनाएं खोल रहा है। फिलहाल इतना ही। चर्चा जारी रहेगी। धन्यवाद।

घुटनों के बल जीने से अच्छा है, अपने पैरों पर मर जाना।

Monday, November 16, 2009

Some valuable values

To realize the value of a sister : Ask someone who doesn't have one.

To realize the value of ten years : Ask a newly divorced couple.

To realize the value of four years : Ask a graduate.

To realize the value of one year : Ask a student who has failed a final exam.

To realize the value of nine months : Ask a mother who gave birth to a still born.

To realize the value of one month : Ask a mother who has given birth to a premature baby.

To realize the value of one week : Ask an editor of a weekly newspaper.

To realize the value of one hour : Ask the lovers who are waiting to meet.

To realize the value of one minute : Ask a personWho has missed the train, bus or plane.

To realize the value of one-second : Ask a person who has survived an accident.

To realize the value of one millisecond : Ask the person who has won a silver medal in the Olympics.

To realize the value of a friend : Ask the person who has Lose one.

Time waits for no one. Treasure every moment you have. You will treasure it even more when you can share it with someone special. thanks.

Sunday, November 15, 2009

बतोलेबाजी नहीं, नुकसान हो जाएगा

एक सीन की कल्पना कीजिए, हो सकता है यह सीन आपको किसी हकीकत में डूबा डाले। पड़ोस का कोई दबंग है या किसी आफिस का कोई बास है। अब किसी सामान्य व्यक्ति या आफिस के किसी सामान्य कर्मचारी का मिजाज देखिए। दबंग व्यक्ति या बास से दूर , जब वह अपने कुनबे में अंटागाफिल होता है तो क्या बोलता है, क्या करता है? आज मिला था वह। कुनबे की आवाज - अच्छा। वह बोलता है - हां। फिर क्या हुआ? हुआ क्या, कुछ बोलना चाह रहा था, मगर मैंने भी साफ - साफ कह दिया कि अब बस। अच्छा ऐसा बोल दिया? हां भई, बोल दिया और जानते हो मेरे बोलते ही उसे सन्नाटा मार गया, बिल्कुल चुप हो गया। अच्छा तो तूने कमाल ही कर दिया। और इतना सुनते वह सामान्य आदमी या सामान्य कर्मचारी न जाने कहां से कहां पहुंच जाता है। ख्यालों में ही सही। उसका सीना तो देखिए, गर्व से कितना चौड़ा हो गया है। मगर यह तब की बात है, जब वह दबंग व्यक्ति या बास मौके पर नहीं होता।

अब देखिए बास या दबंग व्यक्ति को इस डायलागबाजी के बारे में पता चल गया है। फिर क्या होगा सीन? नहीं सर, नहीं भैया, आपको गलत मालूम है, ऐसा मैं बोल सकता हूं? और वह भी आपके खिलाफ? नहीं, कतई नहीं, लोगों का क्या है, बोलते रहते हैं, बोलते रहते हैं। जी, बिल्कुल, जी, जी, सही कहा आपने, यही सही है जो आप कह रहे हैं, नहीं, मैं वादा करता हूं, कभी नहीं, कभी नहीं मैं ऐसा करूंगा।

क्या है ये? ये है बतोलाबाजी। इससे हमेशा नुकसान की स्थितियां बनती हैं। कैसे? जब कभी बास के सामने किसी को प्रमोशन देने की नौबत आई, इंक्रीमेंट की घड़ी आई तो बतोलेबाज पीछे छूट सकता है। दबंग के सामने कभी मौका आया तो निकाल लेगा खुन्नस और बतोलेबाज समझ भी नहीं पाता कि क्या हुआ, कैसे हुआ, क्योंकि वह तो अंटागाफिल होता है। हकीकत और उसके फसाने से वह दूर, काफी दूर होता है। हकीकत और उसके फसाने से तालमेल बना रहे, इसके लिए जरूरी है कि बतोलेबाजी से बिल्कुल दूर रहें। बतोलेबाजी से ही नहीं, बतोलेबाजों से भी दूर रहें। क्योंकि अंग्रेजी वाला सफर सिर्फ बतोलेबाज ही नहीं करते, इसकी यात्रा का मजा कुनबे भी चखते हैं। जी हां, पूरा का पूरा ग्रुप होता है इफेक्टेड।

बतोलेबाजी का जन्म आखिर होता है कैसे और किन परिस्थितियों में, यह बहुत ही गौर करने की बात है। यह एक प्रकार का ह्यूमन साइको स्टेटस है। सुपरमेसी वाला साइको स्टेटस। अमूमन लोगों की भावनाएं होती हैं खुद को ऊपर दिखाने की, खुद को आगे दिखाने की। मगर, मिजाज आरामपसंदगी का कायल होता है। कुछ करने या कुछ कर दिखाने की जहमत कौन उठाए, चलो कुछ हांक कर ही अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। इसका मजा भी आता है। तत्काल रिस्पांस मिलता है, तत्काल वाहवाही मिलती है। सिलसिले में कोई बाधा नहीं आई तो यह आदत रोजाना की रूटीन में शामिल होती है, फिर पूरी दिनचर्या ही बतोलेबाजी की होती है। इस बीच यदि जरूरी काम भी निपटाने के लिए कह दिया गया तो बतोलेबाज परेशान हो उठते हैं। पहला इसलिए कि काम की आदत छूट चुकी होती है, दूसरा यह परेशान करने वाली, आराम में खलल डालने वाली हरकत लगने लगती है।

अब कोई बताए, जिसे अपना भविष्य संवारने की चिंता होगी, वह क्या इन प्रक्रियाओं को अपनाना चाहेगा? वह क्या बतोलाबाज बनना चाहेगा? बतोलाबाज बनकर या बतोलेबाजी में शामिल होकर अपने मूल काम से अपना ध्यान हटाना चाहेगा? मूल काम से ध्यान हटाकर अपना नुकसान कराना चाहेगा? नहीं न? तो मान ही लीजिए कि बतोलेबाजी नहीं करनी है। बतोलेबाज से दूर रहना है। फिलहाल इतना ही। भविष्य संवारने का टिप्स तलाशती रपटों का सिलसिला अभी जारी रहेगा। धन्यवाद।

यदि आप किसी व्यक्ति को क्रोधित देखना चाहते हैं तो उसे भूखा रखिए।

Monday, November 9, 2009

सब जज्बे की बात

व्यक्तित्व विकास पर चल रही सीरीज का यह पचासवां आलेख है। मेरे लिए तो यह बस एक आश्चर्य की ही बात है कि मैंने एक ख्याल पर्सनालिटी डेवलपमेंट पर उनचास लेख लिख दिए और पचासवां लिखने जा रहा हूं! क्या लिखूं यह सवाल नहीं है, न ही यह सवाल है कि कैसे लिखूं? सवाल यह है कि कुछ और अच्छा लिखूं, उनचासों से अच्छा। तो इसके पहले कि मैं इस हाफ सेंचुरी पर बातें आगे बढ़ाऊं, यह जरूरी है कि इन आलेखों को पढ़ने वालों और इन्हें लिखने के लिए प्रेरित करने वाले सभी हमकदम, हमख्यालों को बधाई दे लूं। आप सभी मेरी शुभकामनाएं कबूल करें।

व्यक्तित्व विकास पर कुछ अच्छा लिखने के लिए सोचों की जेरेसाया जो एक शब्द मेरे जेहन में गूंजा, वह शब्द था - जज्बा। मुझे लगता है कि व्यक्तित्व विकास के प्रति सतर्क व्यक्ति जो भविष्य संवारने के लिए भी संवेदनशील हों, उनके लिए इस शब्द का बड़ा महत्व है। आपका जज्बा आपको आपके हर कदम पर ऊंचा उठाता है, नीचे गिराता है। चाहे पूज्य बापू महात्मा गांधी हों, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू हों, डा. राजेन्द्र प्रसाद हों या फिर इंदिरा, पटेल जेपी ही हों। टाटा, बिड़ला की ही बात कर लें। उनकी मिसालें इसलिए आज धरोहर हैं कि वे एक जज्बा रखने वाले लोग थे। अपने जज्बों के प्रति निष्ठा भाव से समर्पित रहने वाले लोग थे।

मेरे एक साथी हैं। उन्हें एक महत्वपूर्ण पद पर विराजमान कर दिया गया। कोई भी पद महत्वपूर्ण इसलिए ही होता है कि वहां का काम महत्वपूर्ण होता है। हां, उस महत्वपूर्ण पद पर विराजमान व्यक्ति के सामने कुछ ऐशपरस्ती के भी मौके भी जरूर होते हैं। मगर, ऐशपरस्ती के मौके पद की महत्ता को बढ़ाने के लिए होते हैं, न कि उसमें डूबकर पद की महत्ता को भूल जाने के लिए। जज्बे का यहीं महत्वपूर्ण रोल हो जाता है। काम के प्रति आपका जज्बा बना रहा तो पद पर आपके बने रहने की संभावना बनी रहेगी और इसी के साथ बनी रहेगी उस पद से जुड़ी रहने वाली ऐशपरस्ती।

अब साथी ऐशपरस्ती में डूब गए। काम का दिन-ब-दिन कबाड़ा निकलने लगा। एक महीना बीता, दो महीना बीता। तीसरे महीने तो जिन्होंने उन्हें उस कुर्सी पर बिठाया था, उन्होंने ही टिप्पणी शुरू कर दी। साथी टिप्पणी झेल रहे थे और इधर-उधर प्रति टिप्पणी करते चल रहे थे। अब एक समय ऐसा आया कि बॉस बदल गया। साथी की ऐशपरस्ती चलती रही। जब उनसे काम खोजा जाने लगा तो वे घबरा गए। उनका घबराना यह बताता था कि काम के प्रति उनका जज्बा खत्म हो चुका था। नतीजा, उन्हें पद से भी पहले ऐशपरस्ती खोनी पड़ी। बाद में तो वे पद बचाने के लिए मशक्कत कर रहे थे। यह मशक्कत संस्थान बदलने के बाद ही पूरी हुई। एक ख्वाब जो ख्वाबों में ऊंचा मुकाम चढ़ गया था, अंजाम तक पहुंचने से ही पहले ध्वस्त हो गया। कारण रहा जज्बे की कमी।

फिलहाल इतना ही। व्यक्तित्व विकास के प्रति सतर्क व्यक्ति के लिए भविष्य संवारने काटिप्स तलाशती रपटों का सिलसिला अभी जारी रहेगा। धन्यवाद।

सर्वाधिक पत्थर उसी पेड़ पर फेंके जाते हैं, जो फलों से लदे होते हैं।

Monday, November 2, 2009

सालम आदमी को बेच देता है वह आदमी

नजीर के कलाम 'यां आदमी पे जान को वारे है आदमी और आदमी पे तेग को मारे है आदमी...’ की तरह ही तो दिखता है वह। आता है, चाय-नाश्ता-भोजन करता है, इंसानियत के रिश्ते गांठता है, चकाचौंध व ग्लैमर भरी जिंदगी के सपने दिखाता है और आखिर में सालम आदमी को बेच देता है वह आदमी। हथियार-नशीली दवाओं के बाद विश्व के दूसरे बड़े संगठित अपराध 'मानव व्यापार’ का बरास्ते नेपाल बार्डर इतना ही तो सच है। अपना बनाकर दामन में दाग लगाने वाला और इंसानी जेहन में सन्नाटा मचा देने वाला यह खेल उत्तर बिहार से जुड़ी खुली नेपाल सीमा के कदम-कदम पर हर रोज खेला जाता है। गोरखपुर से शुरू होकर वाल्मीकिनगर, रक्सौल, सोनबरसा, भिïट्टामोड़, बैरगनिया, पूर्णिया, सुपौल से लेकर पश्चिम बंगाल तक।
पश्चिमी चंपारण में 26 अप्रैल 2008 को सीमावर्ती वाल्मीकिनगर थाना क्षेत्र होकर बार्डर पार कराने के दौरान पकड़ी गयी सात नेपाली लड़कियों ने जो बताया और उससे क्रास बार्डर ट्रैफिकिंग की जो कहानी सामने आयी, वह किसी भी संवदेनशील इंसान के मानस पटल को झकझोर कर रख देने वाली है। कभी लड़की के जन्म पर लक्ष्मी का आना मानकर खुशियां मनाने और जश्न में डूब जाने वाला गरीब नेपाली समुदाय आज पूरी तरह ग्लैमर की चकाचौंध में फंस गया है। नेपाल सरकार परेशान रहे तो रहे, भारत हाय-तोबा मचाता रहे तो रहे, विश्व भर में जहां-तहां राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों में चिंता प्रदर्शन का दौर जारी रहे तो रहे, पर यह सच है कि तराई के करीब आधा दर्जन से अधिक जिलों सरलाही, वारा, परसा, नवलपरासी, मकवानपुर, सिंधुली और थरुहट इलाके में 'मानव व्यापार’ को किसी अपराध के नजरिये से बिल्कुल नहीं देखा जाता। हां, यह रोटी के जुगाड़ का आसान मार्ग जरूर है। जिसे आम दुनिया सिंडिकेट, रैकेट और नेक्सस के रूप में जानती है, उसे यहां का बड़ा हिस्सा रोजगार मुहैया कराने वाला मानता है। जी हां, पूरा सौदा तय होता है। परिवार के अभिभावक को एक साल का मेहनताना एडवांस दिया जाता है। कम से कम पच्चीस सौ रुपये प्रतिमाह की तय राशि पर एक युवती घर से निकल पड़ती है पैसे कमाने के सपने को पूरा करने। पश्चिमी चंपारण के वाल्मीकिनगर, पूर्वी चंपारण के रक्सौल, सीतामढ़ी के बैरगनिया और मधुबनी के जयनगर में कहीं भी नेपाल बार्डर पर जब वे पकड़ी जाती हैं तो यह साबित करना ही मुश्किल होता है कि वे किसी साजिश का शिकार हैं। साथ चलने वाले लड़के को वे अपना रिश्तेदार बताती हैं, जबकि लड़का भी कुछ ऐसी ही बातें करता रहता है। कड़ी मशक्कत के बाद पुलिस और सुरक्षा अधिकारियों के हाथ तो कुछ नहीं आता। जब वे उन लड़कियों को वापस उनके परिजनों के हवाले करते हैं तो उनमें लौटकर घर आने या किसी बड़ी मुसीबत से बच जाने की भी कोई खुशी नहीं दिखती।
खुले नेपाल बार्डर से मानव व्यापार का यह धंधा कब से शुरू है, यह कहना तो मुश्किल है, पर 2004 से मानव व्यापार पर रोक लगाने के लिए दो बड़े एनजीओ नेपाल में माइती नेपाल और भारत में दलित महिला उत्थान केन्द्र मानव सेवा संस्थान (सीबीटीएन) के वजूद में आने और सक्रिय होने के बाद इस पर अंकुश लगा है। इनके प्रतिनिधि सीमा पर खासकर रक्सौल में चौबीसों घंटे नजर रखते हैं। ट्रैफिकिंग के अधिकतर मामले रक्सौल में ही पकड़े जाते हैं। सीबीटीएन के मेंबर जब तक एक-एक बोगी को खंगाल नहीं लेते, तब तक रक्सौल से बड़े शहरों को जाने वाली लंबी दूरी की कोई ट्रेन नहीं खुलती। हालांकि, सिंडिकेट से जुड़े लोगों ने इससे पार पाने का भी रास्ता ढूंढ़ लिया है। अब वे 'खेप’ के साथ पैदल सीमा पार करते हैं, तांगा से भारत में भीतर घूम-फिरकर बस पकड़ते हैं और फिर रेलमार्ग से आगे निकल जाते हैं। महानगरों खासकर दिल्ली पहुंचने के बाद ही खेप सिंडिकेट के असली हाथों में जाती है।
आंकड़ा कहता है कि 9 से 16 वर्ष की सात हजार से दस हजार लड़कियां प्रतिवर्ष नेपाल से भारत भेजी जाती हैं, जो विभिन्न शहरों की सेक्स मंडियों से लेकर खाड़ी देशों तक में खपायी जाती हैं। एक अनुमान के अनुसार भारतीय सेक्स ट्रेड में इस वक्त करीब दो लाख नेपाली लड़कियां इस्तेमाल हो रही हैं या की जा रही हैं। 2006 में भारत में महिलाओं व बच्चों की तस्करी पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट में कहा गया कि नेपाल से आने वाली महिलाओं में से सर्वाधिक 42 फीसदी उत्तर प्रदेश व 40 फीसदी दिल्ली पहुंचती हैं। इसके अलावा नौ फीसदी महाराष्ट्र, पांच फीसदी पश्चिम बंगाल व चार फीसदी बिहार ले जायी जाती हैं।
नेपाल सीमा से चलाये जा रहे इस खेल का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि सिंडिकेट से सीधा जुड़ा कोई 'मुर्गा’ कभी पकड़ में नहीं आया। वाल्मीकिनगर में पकड़ी गयी लड़कियों की शिनाख्त पर पूर्वी चंपारण के एक कारोबारी का नाम सामने आया था, पर वह भी एक लंबा समय गुजर जाने के बावजूद शिकंजे से दूर ही है। पुलिस की आंखों में धूल झोंककर बदस्तूर जारी इस धंधे का सच यह है कि ट्रेनरों के हाथों कभी-कभी शिफ्टिंग की जिम्मेदारी मिल जाने से ही लड़कियों की खेप बार्डर पर पकड़ी जाती है। नेपाल ने अभी हाल में ही 4 मार्च 2009 को मानव व्यापार के खिलाफ बड़ी लड़ाई की घोषणा की है। उधर, भारत में भी इसको लेकर समय-समय पर सरगोशियां चलती रहती हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग ने अपनी रिपोर्ट में मानव व्यापार को अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद माना है। जब कभी मामला उठा, कार्ययोजना का शीघ्र प्रारूप तैयार करने का वादा कर कर्तव्य की इतिश्री कर ली गयी। 8 नवंबर 2007 को पटना में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यूनाइटेड नेशंस आफिस आन ड्रग्स ऐंड क्राइम के संयुक्त सहयोग से पटना, गया और मुजफ्फरपुर में तीन मानव व्यापार निरोध कोषांग का गठन किया। 3 फरवरी 2008 को तत्कालीन एडीजी सीआईडी अशोक कुमार गुप्ता जब मुजफ्फरपुर आये तो उन्होंने स्वीकारा कि नेपाल के रास्ते हो रही मानव तस्करी बेलगाम हो गयी है और इस पर काबू पाना जरूरी है। पर, बंद कमरे की ये बातें कभी बार्डर की राह नहीं पकड़ पायीं। खुली सीमा आज भी मानव व्यापार का प्रवेश मार्ग बनी है। 21 नवंबर 2008 को सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) के आईजी दिलीप टंडन ने नेपाल सीमा पर 750 महिला आरक्षियों की तैनाती की घोषणा की तो मानव व्यापार पर कुछ अंकुश लगने की उम्मीद जगी। हालांकि, 1800 किलोमीटर लंबी खुली नेपाल सीमा पर इससे कितना अंकुश लग पायेगा, कहना मुश्किल है। फिलहाल शिकारी कौन, शिकार कौन की मुश्किल पहचान के बीच सिलसिला कुछ यूं बना है - एक सन्नाटा मेरी पलकों पे लिखता है धुआं, जैसे एक कंदील के साये में हों तारीकियां, ठीक है कि स्वप्न मेरे टूट ही जायेंगे फिर, है इन्हीं सपनों में एक उम्मीद की महफिल जवां।

...पर सरगना कभी नहीं हुआ चिह्नित
पिछले एक साल में सिर्फ रक्सौल रेलवे स्टेशन परिक्षेत्र से करीब पांच सौ से अधिक युवतियों व गिरोह के लोगों को हिरासत में लिया गया। इस दौरान गिरोह के लोगों के पास से विदेशी मुद्रा व पासपोर्ट तक बरामद किये गये, पर स्थानीय या नेपाल प्रशासन इस कार्य में लगे सरगनाओं को चिह्नित करने में विफल साबित हुए। मानव तस्करी रोकने की दिशा में प्रयासरत स्वयंसेवी संगठन सीबीटीएन व प्रयास के सर्वे में यह खुलासा हुआ कि इस कार्य में लगे लोग युवक-युवतियों को अपना रिश्तेदार बताकर रक्सौल के रास्ते दिल्ली, मुंबई, कोलकाता व खाड़ी देशों में ले जाते हैं और मोटी रकम लेकर उन्हें देह व्यापार मंडी, रेस्तरां, बार व होटलों में शारीरिक शोषण के लिए झोंक देते हैं।

छितौनी का रेल सह सड़क पुल वरदान
गोरखपुर से सटे पश्चिमी चंपारण के बगहा पुलिस जिले में स्थित गंडक नदी पर छितौनी के समीप बने रेल सह सड़क पुल तस्करों के लिए वरदान बना हुआ है। सीतामढ़ी जिले के सोनबरसा, भिट्ठामोड़ व बैरगनिया की खुली सीमाएं मानव तस्करी के लिए तो बदनाम हैं ही, जिले के भीतर भी लड़कियों, महिलाओं व बच्चों को जाल में फांसा जा रहा है। सीतामढ़ी में पांच वर्षों के दौरान ट्रैफिकिंग से जुड़े करीब डेढ़ सौ से अधिक मामलों का खुलासा हुआ। यह भी सामने आया है कि युवतियों को पहले येन-केन प्रकारेण मुजफ्फरपुर भेजा जाता है, जहां से उन्हें आगे के गिरोहों के हवाले किया जाता है।