Friday, August 21, 2009

कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है

भविष्य सुधारने के लिए आप क्या करते हैं? सपने देखते हैं और उसे साकार करने की कोशिशें करते हैं। सपने साकार हुए तो अच्छा और टूट गये तो .....? डर यहीं होता है, घबराहट यहीं होती है। इलाहाबाद से मेरे एक मित्र श्री सतीश श्रीवास्तव ने सुझाया है कि भविष्य संवारने के सिलसिले में मैं अपने ब्लाग पर गोपाल दास नीरज की उस कविता को पूरा का पूरा रखूं, जिसमें उन्होंने फरमाया है कि कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है, चंद खिलौने के खोने से बचपन नहीं मरा करता है। सो, मित्र की बातों पर अमल करते हुए परम आदरणीय, सुप्रसिद्ध कवि व गीतकार नीरज जी के प्रति पूर्ण सम्मान भाव के साथ उनकी रचना मैं यहां अपनी श्रृंखला में ऱखता हूं। इस आशा के साथ कि मेरे मित्र की बातें सही साबित हों और भविष्य संवारने की दिशा में जुटे लोगों में इससे कुछ आशाओं का संचार हो पाये। सो पेश है गोपाल दास नीरज की यह अमर रचना -

छिप-छिप अश्रु बहाने वालो
मोती व्यर्थ लुटाने वालो
कुछ सपनों के मर जाने से
जीवन नहीं मरा करता है।

सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आंख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालो
डूबे बिना नहाने वालो
कुछ पानी के बह जाने से
सावन नहीं मरा करता है।

माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आंसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रुठे दिवस मनाने वालो
फटी कमीज सिलाने वालो
कुछ दीयों के बुझ जाने से
आंगन नहीं मरा करता है।

खोता कुछ भी नहीं यहां पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालो
चाल बदलकर जाने वालो
चंद खिलौनों के खोने से
बचपन नहीं मरा करता है।

व्यक्तित्व विकास के सिलसिले में भविष्य संवारने के नुस्खों का जिक्र करती बातें अभी जारी रहेंगी। धन्यवाद।

Friday, August 14, 2009

अमर उजाला को धन्यवाद

अमर शहीद बैकुंठ शुक्ल के गांव जलालपुर चलने का आह्वान करती 'विचार' की पिछली पोस्ट को 'अमर उजाला' ने अपने छह अगस्त के अंक में संपादकीय पृष्ठ पर 'ब्लाग कोना' में जगह दी है। इसके लिए अखबार की पूरी टीम को मेरी ओर से धन्यवाद। इससे मेरा उत्साहबर्द्धन हुआ।

Tuesday, August 4, 2009

चलिए शहीद बैकुंठ शुक्ल के गांव जलालपुर

सरकारी गवाह बन गये गद्दार फणीन्द्र नाथ घोष की दिनदहाड़े हत्या कर अमर शहीद भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव की मौत का बदला लेने वाले बैकुंठ शुक्ल व हजारीबाग जेल से अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन के हीरो जयप्रकाश नारायण को कंधे पर चढ़ा फरार करा देने वाले योगेन्द्र शुक्ल का गांव है जलालपुर। आपके मन में आजादी के प्रति सामान्य जज्बा भी जीवित होगा तो इस गांव की मिट्टी को चंदन समझ माथे पर लगा लेंगे। रोज नहीं तो 15 अगस्त तथा 26 जनवरी को तो अवश्य ही। अफसोस! यहां इन अवसरों पर भी शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले जैसा नजारा नजर नहीं आता। आइए, आपको स्वतंत्रता संग्राम के इस महान तीर्थ यानी जलालपुर तक लें चलें।
आप अगर बिहार की राजधानी पटना से यहां आना चाहते हैं तो आपको गंगा पार कर हाजीपुर आना होगा। हाजीपुर से लालगंज और वहां से रिक्शा या आटो से आप इस तीर्थ स्थल तक पहुंच सकते हैं।. उत्तर बिहार की राजधानी मुजफ्फरपुर से इस माटी को चूमने जाना चाहते हैं तो आपको बस से लालगंज और वहां से फिर आटो या रिक्शा से सफर करना होगा। इस दौरान भूल से भी आप किसी ऐसे शिलापट्ट की कल्पना मत कीजिएगा जिस पर यह लिखा हो कि यह रास्ता स्वतंत्रता संग्राम के दो अमर सपूतों के गांव तक जाता है।
वैसे इस गांव के किनारे पर ही अमर शहीद बैकुंठ शुक्ल की एक मूर्ति लगी है। जानकर ताज्जुब हुआ कि यह मूर्ति भी उनके भतीजे की खुद की खरीदी जमीन पर स्थापित है। लोग बताते हैं कि इस मूर्ति स्थापन में वर्तमान आपदा प्रबंधन मंत्री देवेश चंद्र ठाकुर का भी योगदान है। इस मूर्ति का अनावरण मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के हाथों हुआ है, पर इसके लिए कोई कार्यक्रम नहीं लगा था। वे राजनीति के असली चेहरे को और चमकाने खंजाहाचक जा रहे थे। मूर्ति के पास लोग खड़े थे। लोगों ने उनसे आग्रह किया। उन्होंने इस आग्रह को ठुकराया नहीं। इस मूर्ति की बगल में ही स्वतंत्रता सेनानी योगेन्द्र शुक्ल की पुत्रवधू शारदा शुक्ल अपने परिवार के साथ रहती हैं। इनके निजी मकान में एक स्थल बन रहा है, जहां सेनानी योगेन्द्र शुक्ल की प्रतिमा लगनी है। बताते हैं कि इसमें विधायक विजय कुमार शुक्ला का योगदान है।
आइए, अब इतिहास के पन्नों में चलें। फणीन्द्र नाथ घोष उस आदमी का नाम है, जो देश को आजाद करने के लिए चले क्रांतिकारी आंदोलन में सरकारी गवाह बन गया था। उसकी गवाही के आधार पर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी पर लटका दिया गया। बैकुंठ शुक्ल ने दिनदहाड़े बेतिया के मीना बाजार में इस गद्दार को कुल्हाड़ी से काट डाला। अब जानिये योगेन्द्र शुक्ल के बारे में। इन्हें क्रांतिकारी आंदोलन का दिमाग और गुरिल्ला तौर-तरीकों का मास्टर कहा जाता था। इनके कंधे पर चढ़कर जेपी हजारीबाग जेल से फरार हुए थे।
ये घटनाएं तो बानगी हैं। शुक्ल बंधुओं का पोर-पोर स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा है। स्वतंत्रता का आनंद लेने वालों का भी पोर-पोर इनका ऋणी होना चाहिए। फिर इनके लिए और कुछ नहीं तो इतना तो होना ही चाहिए कि पटना, हाजीपुर और मुजफ्फरपुर स्टेशनों पर लिखा मिले कि यहां से उतरकर आप बैकुंठ शुक्ल और योगेन्द्र शुक्ल की मिट्टी को प्रणाम करने जा सकते हैं। मान लेते हैं कि किन्हीं कारणों से इन स्थानों पर यह सूचना पट्ट नजर नहीं आते, लेकिन लालगंज में तो यह नजर आना ही चाहिए था। आप लालगंज में भी इस सूचना को तलाशेंगे तो आपकी आंखें केवल तरसती रहेंगी। लालगंज के तीनपुलवा चौक पर भगवान बुद्ध की एक मूर्ति लगी है। लोग बताते हैं कि यहां बैकुंठ शुक्ल की मूर्ति लगनी थी।
छोडि़ये लालगंज, इनके गांव जलालपुर में इनकी स्मृति में एक पुस्तकालय बना था। वर्तमान में यह पुस्तकालय भी पंचायत भवन बन गया है। पंचायत भवन में भी ऐसा कुछ नहीं है, जिसे देखकर लगे कि ये सब शहादत को सलाम के लिए है। गांव में ही एक प्रोजेक्ट बालिका विद्यालय की शुरुआत शहीदों के नाम पर हुई थी, पर अब यह जलालपुर बालिका विद्यालय है। बैकुंठ शुक्ल के घर पर आज भी वह कमरा खंडहर के रूप में खड़ा है, जहां बैकुंठ शुक्ल की शहादत के बाद उनकी धर्मपत्नी राधिका देवी ने अंतिम सांसें लीं। भतीजे शशि नाथ शुक्ल वहां स्मृति में स्मारक बनाने की बात कहते हैं।
इस स्थिति के लिए कौन दोषी है? इस बाबत किसी और को कुछ कहने से पहले राष्ट्रकवि रामधारी दिनकर की पंक्तियों समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध को याद कर अपने दामन में भी देखने की आवश्यकता है। कविता की बात हो रही है तो आइए माखनलाल चतुर्वेदी की इन लाइनों चाह नहीं मैं सुरबाला के, गहनों में गूंथा जाऊं, चाह नहीं प्रेमी-माला में, बिंध प्यारी को ललचाऊं, चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊं, चाह नहीं, देवों के सिर पर, चढ़ूं भाग्य पर इठलाऊं, मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जाएं वीर अनेक को भी याद करें। फिर, इधर-उधर देखें कि इन लाइनों को जीने वाले कहां हैं? बहरहाल कुछ भी हो, इससे हमारे-आपके ऊपर तो फर्क पड़ता है, इस मिट्टी पर नहीं। यह मिट्टी तो स्वतंत्रता संग्राम का चंदन है। इसे माथे पर लगाइए।

गांधीजी के लिए योगीराज थे योगेन्द्र शुक्ल
जलालपुर के ही 88 वर्षीय वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी जयनंदन शुक्ल योगेन्द्र शुक्ल को याद करते फफक कर रो पड़े। उन्होंने बताया कि महात्मा गांधी योगेन्द्र शुक्ल को योगीराज कहते थे। साबरमती आश्रम में अपने निवास के दौरान योगेन्द्र शुक्ल कभी प्रार्थना में शामिल नहीं होते थे। कुछ क्रांतिकारियों ने इसकी शिकायत बापू से की तो बापू ने कहा कि जिस मुकाम को हासिल करने के लिए हम सभी प्रार्थना करते हैं, उस मुकाम को योगीराज हासिल कर चुके हैं। एक बार उन्हें पुरस्कार स्वरूप 1700 रुपये मिले तो खुश होकर उन्होंने एसडीओ के सामने ही उनके चपरासी को दस रुपये की बख्शीश दे दी। चपरासी घबराया कि रिश्वत के आरोप में बर्खास्त हो जाऊंगा। योगेन्द्र बाबू बोले कि ऐसा हुआ तो तुम्हारे एसडीओ को एक झापड़ (थप्पड़) लगाऊंगा। तब एसडीओ के कहने पर चपरासी ने बख्शीश रख ली थी। उनकी पुत्रवधू शारदा जी ने बताया कि बाद के दिनों में बाबूजी चुप रहते थे। आजादी के बाद बनी सरकार को सदा बेईमान ही कहते थे। मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह कई दफे उनसे मिलकर उन्हें कुछ देना चाहते थे, पर बाबूजी हमेशा उन्हें फटकार कर भगा देते थे। बाबूजी का मिजाज ऐसा था कि एक बार जिस पर से विश्वास हट जाता था तो वे फिर उस पर विश्वास नहीं करते थे। पूछने पर भी कभी किसी से आंदोलन और लड़ाई के बारे में कुछ भी शेयर नहीं करते थे। बाद में पटना काटेज में निवास के दौरान उनका पेट खराब रहने लगा। 19 नवंबर 1966 को अतिसार की बीमारी की वजह से ही उनकी मौत हो गयी।

भीख मांगें? हमें कुछ नहीं चाहिए

अमर शहीद बैकुंठ शुक्ल के भतीजे शशिनाथ शुक्ल हों या सेनानी योगेन्द्र शुक्ल की 74 वर्षीय पुत्रवधू शारदा शुक्ल, दोनों का एक ही कहना था, हमें किसी से कुछ नहीं चाहिए। हमारे पूर्वजों ने जब किसी से कुछ नहीं लिया तो उनके नाम पर हम भीख मांगें? शारदा जी कहती हैं कि जब बाबूजी बीमार थे तो जयप्रकाश जी उनके पास आये थे और कहा था कि चलिये, हम आपकी सेवा करेंगे। बाबूजी ने तत्काल उत्तर दिया था-'नहीं ऐसा नहीं हो सकता है। आप हमारी सेवा में लग जायेंगे तो देश सेवा कौन करेगा।शशि नाथ शुक्ल कहते हैं कि चाचाजी (बैकुंठ शुक्ल) को तो हमलोगों ने नहीं देखा। चाची जी (राधिका देवी) थीं। शिक्षिका चाची जी ने खुद ही सरकारी पेंशन और सुविधाओं को ठुकरा दिया था। वे अपनी पेंशन उठाती रही थीं। बहरहाल, उन्हें लगता है कि चाचा और चाची जी की स्मृति में यहां कुछ न कुछ ऐसा होना चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ी को उनके बारे में पता चल सके। शशि नाथ शुक्ल की एक समस्या यह भी है कि चाचा जी के बारे में बहुत सारे लोग जानने आये, एक-एक कर घर में रखी उनकी तस्वीर यह कहकर ले गये कि लौटा जायेंगे, पर कोई मुड़कर नहीं आया। गांव के युवक अभिषेक कुमार का आक्रोश देखिए, छोटी-छोटी अपराध की घटनाओं पर फिल्म बन जाती है। अभी मुंबई कांड पर फिल्म बनी है। अमर शहीद बैकुंठ शुक्ल पर भी फिल्म बननी चाहिए।


आप सारे जवाब जानते हैं, इससे बेहतर है कि आप कुछ सवाल जानें। - जेम्स थर्बर