Saturday, January 31, 2009

धैर्य न हो तो बिगड़ जाता है बना खेल

क्या कुछ भी एकाएक होता है? आपने चाहा और क्या खाना बनकर तैयार हो जाता है? कहीं जाना है तो क्या वहां आप झटके से पहुंच जाते हैं? क्या पौधा रोपते ही उसमें फल लग जाता है? कोई भी फसल बीज डालते ही क्या पककर तैयार हो जाती है? नहीं न? यहां तक कि चूल्हा पूरा गरम हो फिर भी ठंडे पानी को खौलने में समय लग जाता है। तो यह जो परिणाम है, उसे पाने के लिए पाने वालों को अपनी ओर से सब कुछ कर लेने के बाद इंतजार करना पड़ता है। धैर्यपूर्ण इंतजार। चूल्हा गरम है और आपने पानी गरम करने के लिए पतीले को उस पर चढ़ा दिया। तो इतना तो आपको मालूम है कि पानी गरम हो रहा है। अब पानी के गरम होने में जो समय लग रहा है, उस दौरान कोई निराश हो जाए तो यह उसकी बेवकूफी होगी न? पौधा रोपा और आप उसकी लगातार देखभाल भी कर रहे हैं। तो आपको यह पता है कि इसमें फल आने हैं। अब फल आने में देरी हो रही है तो निराशा कैसी? पेड़ जवान होगा, फल देने की स्थिति में आयेगा, तभी तो उसमें फल आयेंगे। तो यह जो पेड़ के जवान होने और फल के लगने के बीच का जो समय अंतराल है, उसे तो काटना ही पड़ेगा। आप काटते भी हैं। इसे ही तो धैर्य कहते हैं। धैर्य का मतलब .यह मानना कि दुनिया में कुछ भी एकाएक नहीं होता, एटरैंडम नहीं होता। हां, यहां यह समझने की बात है कि यदि आपने आम के पौधे लगाये होंगे तो आम ही पायेंगे, चावल चूल्हे पर चढ़ाया होगा तो भात ही बनेगा। चिकेन डाली होगी तो फिश नहीं मिलने वाली। तो शायद इससे किसी को इनकार नहीं होना चाहिए कि किसी ने कुछ प्रयास किया, उसका उस प्रयास के अनुपात में उसे परिणाम मिलने ही वाले हैं। हां, बीच का समय है, उसे धैर्य के साथ गुजारना ही होगा।
अब जरा इस पर विचार करें कि जिस व्यक्ति ने धैर्य नहीं रखा, उसका खेल कैसे बिगड़ जाता है। बीजारोपण को ही देखिए। आपने बीज डाले, आपको उसकी प्रस्फुटन अवधि का पता नहीं है, पता है भी तो धैर्य खो बैठे और आप बीज को मिट्टी से निकालकर लगे उलटने-पुलटने। अब इसे आसानी से समझा जा सकता है कि परिणाम क्या हासिल होगा। इस धैर्यहीन कार्रवाई में बीज ही नष्ट हो गया। हो गया कि नहीं? थोड़ा व्यावहारिक उदाहरण। हमारे एक सीनियर थे। दफ्तर के नंबर टू ने जब इस्तीफा डाला तो प्रबंधन के स्तर तक से उक्त सीनियर को नंबर टू बनाने की बात चलने लगी। ढंके-छिपे ढंग से उन्हें भी इस बात का इशारा कर दिया गया कि नंबर टू नहीं रहे तो आपको ही उनका काम देखना होगा। जूनियर्स भी उनका उसी तरीके से सम्मान करने लगे। अब सीनियर महोदय ने एक दिन नंबर टू के केबिन का उद्घाटन कर दिया। बैठ गये, अगरबत्ती जलवायी, लड्डू बंटवाये और लगे बधाइयां कबूल करने। सब कुछ ठीक था। पर, कांटा बहुत ऊपर जाकर फंस गया। वहां यह महसूस किया गया कि इस व्यक्ति ने प्रबंधन से उसकी हैसियत और अधिकार छीन लिये। घोषणा करने और प्रोन्नति देने के अधिकार छीन लिये। नतीजा, सीनियर महोदय के पूरे व्यक्तित्व पर जो सवाल उठा, वह अगले सात-आठ महीने के बाद उनके इस्तीफे की परिणति के रूप में सामने आया। उस वक्त मुझे लगा कि धैर्य का होना व्यक्तित्व विकास के लिए कितना महत्वपूर्ण है। है कि नहीं? आप सोचिए। मेरी ओर से तो फिलहाल इतना ही। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी।

सुनना बोलने से ज्यादा बुद्धिमानी का काम है। ज्यादा बोलने वाले बेवकूफ होते हैं।

Thursday, January 29, 2009

खामोशियों की आवाज

मैंने सुनी है बंद कमरे और सौ वाट के प्रकाश में,
खामोशियों की आवाज,
कभी लयबद्ध तो कभी बेअंदाज,
न था कोई साजिंदा, न था कोई साज,
बस मैं था, मेरी खामोशियां थीं, और थी,
फूंक मार कर छू-मंतर कर देने वाली मेरी अपनी आवाज ।
मैं सुन ही नहीं, देख भी रहा था,
आवाज का अंदाज,
मैं देख रहा था, वह कोई और था,
जो दफ्तर में था, जो सड़क पर था,
जो खुले दरवाजे वाले कमरे में था,
जो बंद कमरे में और सौ वाट के प्रकाश में था ।
इतना वीभत्स, इतना काला कि कोयला भी शरमा जाय,
शैतानियत इतनी कि शैतान को भी बेहोशी आ जाय,
कहीं शान का गुरुर तो कहीं मोहब्बत का सुरुर,
इजहारे ईमानदारी की आड़ में, करते बेईमानी जरूर,
और सुबह जब बल्ब बुझ गया था,
फिर भी मैंने सुनी, खामोशियों की आवाज,
मगर, सिर्फ आवाज, उनमें कहीं कोई खामोशी नहीं थी,
थी हत्या, अपहरण, लूट, चोरी,
दंगा-फसाद और... और बलात्कार,
सिर्फ मजलुमों की चीखें... चीखें,
और फरियाद लगाती आवाज,
जो खामोशियों के दम पर जिंदा थी,
जिनसे खामोशियां खो चुकी थीं...... ।

धमकी देने का मतलब आप दुश्मन को सतर्क कर रहे हैं। अपना स्टेमिना खो रहे हैं, यह दूसरा पहलू है।

Wednesday, January 28, 2009

हवाओं का भी रुख मोड़ सकते हैं आप

परिस्थितियां कब प्रतिकूल हो जाएं, कहा नहीं जा सकता। कभी यह प्रत्याशित होती हैं तो कभी अप्रत्याशित। आदमी अप्रत्याशित रूप से प्रतिकूल होने वाली परिस्थितियों से ही घबराता है, प्रभावित होता है। जब स्थितियां अनुकूल हों तो घबराना कैसा? कल पानी बंद रहेगा, इसका जिसे पहले से पता है, वह तो रात में ही इंतजाम चौकस कर लेगा। पर, जिसे इस बात का पता न हो, उसके लिए ऐन मौके पर परेशानी वाली बात हो जाती है। पर, क्या इससे वह बिना पानी का रह जाता है? यह विचार करने की बात है। यह ठीक है कि पानी बिना तो दिन नहीं कट सकता। तो जिसे पहले से पता न हो कि कल पानी बंद रहेगा और जब कल आता है और पानी बंद हो जाता है तो क्या वह व्यक्ति बिना पानी का रह जाता है? नहीं, वह पानी बिना नहीं रहता। वह पानी का जुगाड़ करता है। थोड़ी परेशानी उठाता है, थोड़ी मेहनत करता है, थोड़ा समय खपाता है, पर पानी का इंतजाम कर लेता है। ऐसी कई जरूरतें आदमी पूरी करता है,,जो उसके सामने एकाएक आती हैं। घर में पैसे नहीं, किताब कैसे खरीदें, फिर भी पढ़ने वाला पढ़ता है, लैंप पोस्ट के नीचे बैठकर पढ़ता है, उधार किताबें मांगकर पढ़ता है और डिस्टिंक्शन मार्क लाता है। शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो पहले ही झटके में सफलता पा गया हो। क्या किया उसने? सफल व्यक्तियों का आकलन करें तो पता चलता है कि उसने विफलताओं से सबक लिया और निरंतर प्रयास की प्रक्रिया जारी रख कर उसने सफलता पायी। थक-हार कर बैठने वाला आखिर कैसे सफल हो सकता है?
जब परिस्थितियां प्रतिकूल दिखें तो सबसे पहले यह जरूरी है कि आप गहराई से अध्ययन कर ऐसी स्थितियों के लिए कारणों का पता करें। यदि कारण मिल गया तो निवारण भी मिलेगा। जरूरत है कारणों की तलाश की। कभी-कभी कारण नहीं मिल पाते, पर परिणाम से पता चलता है कि स्थितियां प्रतिकूल होती जा रही हैं। ऐसी स्थिति में मान्य प्रक्रियाओं के तहत आचरण और व्यवहार को दुरुस्त करने की जरूरत होती है। कभी-कभी इसके दुरुस्त रहने के बावजूद स्थितियां प्रतिकूल हो जाती हैं। ऐसे में पूरे माहौल को सार्वजनिक रूप से व्यापकता देकर देखने की जरूरत होती है। आपको देखना होगा कि जिस माहौल, जिस परिवेश में आप रह रहे हैं, उसी माहौल और उसी परिवेश में और भी लोग कैसे रह रहे हैं। ऐसे में परिस्थितियों को अनुकूल बनाने का सूत्र पकड़ में आ सकता है।
प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाने का सबसे बेहतर तरीका है, खुद पर विश्वास। आप कितने मजबूत हैं, इसका इसी बात से पता चलता है कि आपका अपने ऊपर कितना भरोसा है। जिसका अपने ऊपर ही भरोसा नहीं होगा, उसके लिए स्थितियां क्या अनुकूल और क्या प्रतिकूल? आंधियों से सीना भिड़ाने का जज्बा रखने वालों ने तो हवाओं का रुख भी मोड़ दिया है। अपने को खंगालिए, पहचानिए। क्या जन्म लेते ही आपने इतनी शिक्षा हासिल कर ली? नहीं न? समय गुजरा, हिम्मत दिखायी, लगे-भिड़े, डांट खायी-फटकार लगी, तब जाकर आपने कक्षा दर कक्षा पास की। नौकरी के लिए कहां-कहां न परीक्षाएं दीं, कैसे-कैसे न इंटरव्यू फेस किये, तब जाकर पास हुए। अब परिस्थितियां थोड़ी प्रतिकूल चल रही हैं। तो इसे भी तभी दूर किया जाता है, इसका भी रूख तभी मोड़ा जा सकता है, जब आपका खुद पर भरोसा होगा। मेरा मानना है कि जिनका खुद पर भरोसा टूटा, डिगा, परिस्थितियां उनके लिए ही प्रतिकूल हो जाती हैं। और जब आप खुद पर भरोसा कर रहे हों तो आपके पास होना चाहिए-धैर्य, संयम और निष्ठा। व्यक्तित्व विकास पर चर्चा अभी जारी रहेगी।

झुकती है दुनिया, झुकाने वाला चाहिए।

Thursday, January 22, 2009

खुशमिजाजी का कष्टों से क्या मतलब?

आम तौर पर यही समझा जाता है कि खुशमिजाज होना एक स्वाभाविक प्रकिया है, नैसर्गिक प्रक्रिया है। मगर नहीं, आदमी खुद को खुशमिजाजी बना सकता है। आपको कोई दुख है, तकलीफ है, परेशानी है, कष्ट है, फिर भी आप खुशमिजाज रह सकते हैं। इसके ठीक विपरीत, आपको तमाम खुशियां मिल जाएं, तमाम सुख उपलब्ध करा दिए जाएं, फिर भी आप दुखी हो सकते हैं। आप इसी बात पर दुखी हो सकते हैं कि आखिर ये सारी सुविधाएं मुझी को क्यों उपलब्ध करायी जा रही हैं। ऐसे दो-चार लोग तो आपके इर्द-गिर्द होंगे ही।
खुशमिजाज रहने के जो दो-चार सूत्र हैं, वह मानव के वजूद की मूल अवधारणा में छिपी हुई हैं। उन्हें समझने की जरूरत है। आखिर दुखी क्यों हुआ जाए, आखिर दुखी क्यों रहा जाए? साधारण सी घटना जो कभी खुशी प्रदान करती है, वही आगे जाकर दुख का कारण बन जाती है या बन सकती है। जो घटना दुख प्रदान करने वाली होती है, उसी से सुख मिलने लगता है। एक बच्चा चिल्लाता है, यदि बच्चा आपका हुआ तो हो सकता है कि आप उसकी चिल्लाहट में आनंद महसूस करें। यही बच्चा किसी दूसरे का हुआ तो उसकी चिल्लाहट आपको परेशान करने लगती है। दोस्त से मिलने पर हाथ मिलाते हैं। खुशी होती है। दोस्त हाथ न छोड़े तो हाथ मिलाना देखते-देखते दुख का कारण बन सकता है। गुरु की फटकार बुरी लगती है, पर जिसने उस फटकार को स्वीकार कर लिया, उसने ज्ञान अर्जन कर लिया। मेरा भाई एयरफोर्स में है। वह कहता है कि जब वह ट्रेनिंग पर था तो उसके मेस में एक बोर्ड टंगा था, जिस पर लिखा था-इट फार हेल्थ, नाट फार टेस्ट यानी स्वास्थ्य के लिए खाइए, स्वाद के लिए नहीं। इसका एक अर्थ ऐसा भी समझा जा सकता है कि स्वाद के लिए खायी जाने वाली चीजें स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं होती। कहीं पढ़ा था, रवीन्द्रनाथ टैगोर ने मरने से पहले अपने बाल सैंपू कराये थे, चेहरे को सजवाया था। उनका मानना था कि जब लोग उनके शव को देखने आये तो शव सुंदर दिखे। दुनिया जानती है कि वे सौंदर्यप्रेमी थे, पर उनकी यह हरकत क्या उनकी खुशमिजाजी को व्यक्त नहीं करती?
गीता का सार - क्या लाये थे, क्या ले जाओगे, जो लिया यहीं से लिया, जिसे तुम आज अपना समझते हो, वह कल किसी और का था, परसों किसी और का हो जायेगा - कितना सच है। हालांकि, इस बात को जानते सब हैं, पर ठीक से न तो समझने की कोशिश करते हैं, न इसकी जरूरत समझते हैं। पर, व्यक्तित्व विकास के लिए और खासकर खुशमिजाज रहने के लिए इस सूत्र को गहराई से समझना और इसके अनुरूप हर पल विचार करना मेरी समझ से चमत्कारिक परिणाम देता है। एक बात और, आगे आने वाला पल क्या होगा, कोई जानता है? आप जानते हैं? साधारण सा उत्तर होगा - नहीं। पर, यह पूरा सत्य नहीं होगा। आप केला खायेंगे तो कह सकते हैं कि सर्दी होगी। आप जहर खायेंगे तो कह सकते हैं कि मौत होगी। कह सकते हैं कि नहीं? तो आगे आने वाला पल क्या होगा, यह भले न कहा जा सके, पर कैसा होगा, इसका आकलन किया जा सकता है। दुनिया का वह कौन व्यक्ति होगा, जो आने वाले पलों को दुखदायी बनाना चाहेगा। कोई होगा क्या? नहीं न? तो यह पल सुखदायी कैसे होगा? क्या हरदम आपके मुंह लटकाये रहने से? क्या हरदम निराशा में डूबे रहने से? क्या हरदम किसी की आलोचना में लिप्त रहने से? नहीं, बिल्कुल नहीं। इन सबका त्याग करना होगा। लाख कष्ट रहे, परेशानी रहे, दुख रहे, समस्या रहे, यदि आप खुशमिजाज रहे तो इन कष्टों, परेशानियों, दुखों, समस्याओं से पार पा सकते हैं, इनका निवारण ढूंढ सकते हैं। तो कष्टों से पार पाने के लिए भी जरूरी है कि आप खुशमिजाज रहें। यदि परेशानियों के साथ आप भी परेशान रहे तो कौन खोजेगा उन परेशानियों से निजात से रास्ता? यकीन मानिए, हर सुबह के बाद जैसे रात आती है, वैसे ही हर रात के बाद सुबह आती ही है। बस, आशावान बने रहिए, खुशमिजाज बने रहिए। विपरीत परिस्थितियों में भी मुस्कुराते रहिए। व्यक्तित्व विकास पर चर्चा अभी चर्चा जारी रहेगी। अगला चैप्टर होगा-विपरीत परिस्थितियों से कैसे करें मुकाबला?

यदि किसी मुद्दे पर विचार व्यक्त करने के लिए शब्दों की भरमार हो जाए तो उस मुद्दे पर कुछ देर और विचार करने की जरूरत होगी।

Wednesday, January 21, 2009

कमजोरियों को दूर कीजिए, मिलेगा सम्मान

मैंने देखा है, जिसने अपनी कमजोरियों की पहचान कर उसे दूर करने का प्रयास शुरू कर दिया, उसके अपमानित होने का खतरा भी कम हो जाता है। आदमी अपमानित ही होता है अपनी कमजोरियों की वजह से। लालच, ईर्ष्या, दूसरे को नीचा करने का भाव, हरदम खुद को श्रेष्ठ साबित करने की चेष्टा... ये सब आपकी कमजोरियां हो सकती हैं। कमजोरियां हो या मजबूतियां, यह तो तय है कि उसे एक न एक दिन एक्सपोज होना ही होता है। और यह जब एक्सपोज होता है तो क्या होता है? एक मुकाम पर पहुंचकर जब आपकी नकारात्मक वृतियां एक्सपोज होती हैं तो इस कदर अपमानित करने वाली होती हैं या अपमान के दौर में पहुंचा देने वाली होती हैं कि आदमी समाज से न केवल बिल्कुल कट जाता है, बल्कि वह आत्महत्या तक के लिए मजबूर हो जाता है। इतना ही नहीं, उसकी आगे की पीढ़ियां भी उसकी करनी का फल भोगती रहती है, लंबे समय तक उस अपमान को ढंक नहीं पातीं, तबाह होती रहती हैं, तबाह हो जाती हैं।
एक सीनियर थे। उन्हें एक कर्मचारी से खुन्नस हो गयी। वे अन्य कर्माचारियों से एक-एक कर कहने लगे, उस खास कर्मचारी से बातें मत करो, मिलो मत। अब वह खास कर्मचारी उन वरिष्ठ सज्जन की कमजोरी के रूप में सामने आ गया। खूबी यह रही कि इस कमजोरी को सज्जन कहां तक छुपाते, उलटे लोगों को एक-एक कर बताते चल रहे थे। तो अब उन्होंने अपने विरोधियों को एक हथियार दे दिया, जिससे वे उनका सरेआम अपमान करने लगे। जिनकी उनके सामने खड़े होने की हिम्मत नहीं थी, वे उस खास कर्मचारी के साथ दिखने लगे और बस इसी से सज्जन अपमानित होने लगे।
आप किसी समारोह में गये और बिना आयोजकों के पूछे या बताये अगली कतार की कुर्सी पर बैठ गये। आपने अपने अपमान को न्योता दे दिया। दिया कि नहीं? अब यदि कोई आपको वहां से उठकर पिछली कतार की कुर्सी पर बैठने को बोले तो यह आपका सार्वजनिक अपमान होगा। इसके ठीक विपरीत यदि आप पिछली कतार में बैठे होते और कोई आपसे अगली कतार में बैठने को बोलता तो यह आपके लिए सार्वजनिक सम्मान की बात होती। होती कि नहीं? चाय की क्या कीमत है? दो रुपये में ग्लास भर कर मिलती है। लेकिन, यही चाय सम्मान की वस्तु तब हो जाती है, जब आप चार लोगों के साथ कहीं बैठे हों और यह तीन लोगों को परोसी जाय और आपको नहीं दी जाय। तो जहां इस बात का खतरा हो वहां आप बैठे ही क्यों?
उम्र आदमी को चालाक बनाती है, कनिंग बनाती है। अज्ञानता से पूर्ण कोई उम्रदराज आदमी अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए खुद को ज्ञानी बताने लगाता है। उसके लिए यह सरल होता है कि वह दूसरों को हमेशा नीचा दिखाये। ऐसे मौके पर ज्ञानी के भी अपमानित होने का खतरा रहता है। तो ऐसी स्थिति में आपके लिए सम्मान की बात यही हो सकती है कि आप अपमानित न होने पाये। ऐसी स्थितियों में आपका विश्वास और अपने ऊपर खुद का मजबूत भरोसा ही आपको बचा सकता है।
दरअसल, सम्मान पाना सम्मान देने के आधार पर टिका होता है। आपको सम्मान पाना है तो सम्मान देना होगा। जब आप किसो को सम्मान देंगे, तभी आपको भी कोई सम्मान देगा। यह बिल्कुल दिल का मामला है। इसमें बुद्धि बहुत काम नहीं करती। भय से हासिल सम्मान भय का कारण खत्म होते ही अपमानित करने लगता है। शायद इसीलिए आदर करने वालों से अपमानित होने का खतरा ज्यादा रहता है। हमेशा खयाल रखें कि कोई आपका सम्मान आपके व्यक्तित्व के लिहाज से करे, आपकी अच्छाइयों के लिए करे, आपको आदरणीय मानकर करे, आपको अभिभावक मानकर करे, प्रेरणादायक मानकर करे, ईमानदार मानकर करे। व्यक्ति के सम्मान के लिए उसका खुशमिजाज होना भी एक महत्वपूर्ण पहलू है। इस पर चर्चा अगली पोस्ट में। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी।

खुशी तितलियों की भांति होती है, जितना पकड़िएगा, उतना भागेगी। थम कर बैठ जाइएगा तो कंधे पर आकर बैठ जायेगी।

Sunday, January 18, 2009

लाज की गठरी खोलिए, बोलिए-शुक्रिया

आदमी मर जाता है, पर जिंदगी भर न तो कृतज्ञता के दो शब्द बोल पाता है, न सुन पाता है। हां, बोलने के लिए या सुनने के लिए तरसता जरूर रहता है। आपने कृतज्ञता के, धन्यवाद के, शुक्रिया के बोल नहीं बोले तो इसे अपने व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खामी मानिये। आपकी मां, बीवी या बेटी सुबह आपको मीठे शब्दों के साथ जगाती है, गर्मागर्म चाय देती है और सुबह-सुबह जगाने के लिए भिन्नाते हुए आप चाय सुरुक लेते हैं। जूठा कप टेबल पर डालते हैं और बाथरूम निकल जाते हैं। वहां आपका तौलिया-साबुन सबकुछ करीने से रखा है। नहाये-धोये और घर में आये तो कपड़े प्रेस किये मिल जाते हैं। आपने पहना और पहुंच गये नाश्ते की टेबल पर। आपकी पसंद का नाश्ता रखा है। चपर-चपर खाये और दफ्तर पहुंचने की हड़बड़ी दिखाते निकल गये। इन सभी सेवाओं के लिए आपने घर वालों को धन्यवाद दिया? उनके प्रति शुक्रिया अदा किया? नहीं न? तो सोचिए, कितने कृतघ्न हैं आप?
और आप दफ्तर पहुंच गये। गेट पर दरबान नमस्कार कर रहा है। आप उसकी ओर देख नहीं रहे। रिशेप्शन पर बैठा कोई शख्स, दफ्तर में मौजूद कोई कर्मचारी आपके सम्मान में खड़ा हो रहा है, आपकी गर्दन में बल नहीं पड़ रहा। आपकी टेबल साफ है, फाइलें करीने से लगी हैं, सभी रिपोर्ट टेबल पर सही-सलामत पड़ी है, गलास में साफ और ताजा पानी भरा है। यदि ये सब नहीं हैं तो कोई आपके आदेश पर हुक्म बजाने को बिल्कुल तैयार, चौकस खड़ा है, आपकी ओर देख रहा है। आपके एक-एक हुक्म पर वह जी-जान से दौड़ता काम बजा रहा है। और आप क्या कर रहे हैं? हेकड़ी दिखा रहे हैं। मानवोचित व्यवहार तो दूर, खामियां निकालने में लगे हैं, अपमानित करने में लगे हैं। क्या आपको इन सबके प्रति शुकराना अदा नहीं करना चाहिए? आप बाजार निकलते हैं। आटो पकड़ते हैं, टैक्सी पकड़ते हैं, बस पकड़ते हैं। वह आपको आपकी मंजिल पर पहुंचाता है। आपने भाड़ा चुकाया, किस्सा खत्म। क्या इंसानी जज्बों को मुकाम मिल गया? आप उन्हें शुक्रिया बोलकर देखिए। जो होगा महसूस कीजिए। हो सकता है, शुक्रिया सुनकर कोई आपकी बांहें थाम ले, आंसू भरी आंखों से आपको सलाम करे। आपकी आत्मा प्रसन्न हो जायेगी। आप महसूस कर पायेंगे कि आपकी एक शुक्रिया किसी के जीवन में किस कदर क्रांतिकारी व सुखद परिवर्तन ला पायी।
आदमी की औकात क्या है? कभी सोचा आपने? जरा सोचिए। विशाल सागर, चारों ओर अथाह जलराशि। लहरें ठाठें मार रही हैं। इसी अथाह जलराशि के बीच लहरों के साथ अपने वजूद को बचाने का संघर्ष करता, आगे बढ़ता एक बहुमंजिला जहाज। हर मंजिल पर अफरातफरी। इसकी सबसे निचली मंजिल। दर्जनों कमरे। आलू के बोरों से भरा आखिरी कमरा। इस पैक कमरे के कोने में रखा आलू का सबसे निचला बोरा। इस बोरे के भीतर सबसे नीचे का एक आलू, जो सड़ गया है। सड़े आलू में मौजूद एक कीड़ा। और यह कीड़ा सोच रहा है कि वह सागर के मैकेनिज्म को समझ लेगा, जान लेगा। बड़ी मुश्किल कि वह आलू के बोरे से निकल पाये। वहां से निकला तो कमरे से निकल पाने की ही कोई गारंटी नहीं। फिर कैसे तय पायेगा अपनी मंजिल? कहां खत्म हो जायेगा, किसके पैरों तले कुचल जायेगा, पता नहीं। फिर कीड़े की उम्र ही कितनी होगी। वही खत्म हो सकती है। क्या वह सागर के मैकेनिज्म को समझ सकता है, जान सकता है? क्या इस कीड़े से ज्यादा औकात है आदमी की?
आदमी कोई हो, क्या है उसकी औकात, क्या है उसका वजूद? उम्र तक सीमित है आदमी की। सब कछ ठीक-ठाक रहा तो औसतन साठ-सत्तर-अस्सी। या इससे भी ज्यादा? किसी को कोई भुलावा हो तो वह अपने बाप की उम्र देख ले, दादा की उम्र देख ले। उनसे दो-चार-पांच वर्ष ही तो इधर-उधर उम्र रहेगी? कितनी तो काट चुके, अब कितनी बची है, अंदाजा कर सकते हैं। कर सकते हैं कि नहीं? तो काहे का दर्प, काहे का घमंड, काहे की लाज? इन सभी को गठरियों में बांधकर ढोना छोडिए। यह आपको कृतघ्न बनाती है। आदमी हैं तो कृतज्ञ होना सीखिए। हर कदम, हर मोड़ पर बोलिए, शुक्रिया, शुक्रिया, सबका शुक्रिया। चमत्कार होगा साहब, चमत्कार। आपकी छवि में चार चांद लग जायेंगे। कृतज्ञ व्यक्ति ही सम्मान का भागी होता है। और सम्मान से बड़ा कोई सुख है क्या? मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जिसके व्यक्तित्व में सिर्फ शुकराने का भाव है, उसके सामने से बड़ी से बड़ी समस्याएं छू-मंतर गायब हो जाती हैं। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। आगे सम्मान पर कुछ बात करने का इरादा है। आखिर कोई क्यों हो जाता है अपमानित, संभवतः इसका कोई सूत्र पकड़ में आये।

मकड़ी के जाले में छोटे-छोटे कीड़े-मच्छर ही फंसते हैं, चील-कौए उस जाले को फाड़कर निकल जाते हैं।

Saturday, January 17, 2009

कोई तुमसे भी तंगहाल है

हाल ए दिमाग की बात करूं, दिल बेहाल है,
इज्जत लुटने का खतरा है, ये खयाल है।
अभी मैं आया, तुम आये और आ गये वे भी,
कसम दे-दे के वे हंसा गये, रुला गये भी,
एक बार रोया तो फिर कैसे हंसूं, ये सवाल है,
इज्जत लुटने का खतरा है, ये खयाल है।
ठीक था, तेरा हक था, जिसे फरमा गये,
मगर ये तो सोचो, हम भी तेरे पेच में आ गये,
हमें जो करना था, वो नहीं किया, ये मलाल है,
इज्जत लुटने का खतरा है, ये खयाल है।
बनेंगे मजनू, राबिनहुड, बनेंगे विक्रमादित्य, चाणक्य,
करेंगे ताल-पचीसी, कलेजा कर रहा धक-धक,
फकत दो वक्त की रोटी, फकत एक वक्त का सोना,
किस्सा जख्मे जुनून का, उसे होना या न होना,
फकत किसको ख्वाब है, फकत किसको खयाल है,
इज्जत लुटने का खतरा है, ये खयाल है।
चले थे तेज रफ्तारी, कभी ख्वाबों-खयालों में,
हकीकत बन के मुफलिसी, लटक गयी है तालों में,
खुलेगा कैसे मुकद्दर, जी का जंजाल है,
इज्जत लुटने का खतरा है, ये खयाल है।
आओ तुम्हारे जख्म पे मरहम लगा दूं मैं,
सुरों में बांधकर, साजों को, फिर से सजा दूं मैं,
तुम्हारे साथ मैं रो लूं, तुम्हारे साथ मैं हो लूं,
दुखों को भूल जाऊं मैं, सुखों की बात मैं कर लूं,
तुझे तो चाहिए इतना और तुमने पाया है इतना,
तुम्हारा नाम है इतना और देखो काम है इतना,
गुनाह माफ करो, कोई तुमसे भी तंगहाल है,
इज्जत लुटने का खतरा है, ये खयाल है।
ये खयाल है, ये खयाल है।
ये खयाल है कि हम भी हैं।
ये खयाल है कि तुम भी हो।
ये खयाल है कि इज्जत भी है।
और इसके लुटने का खतरा है, ये खयाल है।

घोंसला अंडे सेवने के लिए तो महफूज जगह है, पर जिन परिंदों को पंख लग गये हों, उनकी उड़ान के लिए नहीं।

Friday, January 16, 2009

दिल दरिया, आंखों में आंसू, दिमाग दरवाजा

एक महिला रिक्शे से जा रही है और उसकी साड़ी का पल्लू ढलक कर चक्के में फंस रहा है। उसके गिरने और घायल होने का खतरा है। बगल से एक कार में गुजर रहे शहर के कुख्यात हत्यारे की नजर पड़ती है और वह साइड विंडो से सिर निकालकर पल्लू संभालने के लिए महिला और रिक्शेवाले को चेताता है। यह क्या है? यह है एक हत्यारे की सकारात्मक सोच। अपने आप में सिकुड़ा हुआ किसी दफ्तर में काम करने वाला एक आम कर्मचारी अन्य साथी कर्मचारियों से बात-बात पर कहता चलता है, आप मुझ पर दया बनाये रखिये। जब किसी ने उसे कह दिया कि लोग क्या, आप खुद पर दया कीजिए तो उसे लगता है कि वह एक्सपोज हो रहा है, बेइज्जत हो रहा है। यह नकारात्मक सोच है। वफादारी स्वतःस्फूर्त आये तो सकारात्मक सोच है, कुत्ते की तरह हर रोटी देने वालों के प्रति वफादारी उपजती हो तो नकारात्मक सोच है। आजीवन बंधकर रहने वाले संकल्पों से नकारात्मक सोच ही उपजती है, किसी महाभारत को ही जन्म देती है, जबकि मानक मान्यताओं को जीवन शैली में उतार कर सकारात्मक सोचों को आगे बढ़ाया जा सकता है। जो सोचें आपको सृजनशीलता की ओर ले जाती हों, वे सकारात्मक हैं। जिनसे विध्वंस को बढ़ावा मिलता हो, उन्हें नकारात्मक मानिये। अभी कल ही एक बुजुर्गवार कह रहे थे, सकारात्मक सोचों को बढ़ावा देना हो तो हर दिन रात में दिन भर के काम का आकलन कीजिए। किसके साथ आपने क्या व्यवहार किया, आपके साथ किसने क्या व्यवहार किया, इसका लेखा-जोखा तैयार कीजिए। इसका सिलसिला शुरू हो गया तो सकारात्मक सोचों को पकड़ने और उसे बढ़ावा देने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। देखना यह भी चाहिए कि उपलब्धियों के नाम पर आपके हिस्से में पूरे दिनभर में दर्ज करने लायक क्या रहा? किसी की मदद नहीं की, किसी का आशीर्वाद नहीं लिया, कहीं समय पर नहीं पहुंच सके, दिन भर लोगों की दया खोजते रहे तो मान लीजिए कि आप सकारात्मक सोचों से दूर रहे, नकारात्मकता आप पर हावी रही।
एक खबर छपी। दूल्हे तैयार, दुल्हन का इंतजार। मसला यह था कि महिला रिमांड होम की ओर से वहां रह रही लड़कियों की शादी करने की पहल की जा रही है। इस दिशा में सक्षम लड़का वालों से अप्रोच किया गया और उन्हें रिमांड होम की लड़कियों से शादी करने को तैयार किया गया। उनका अप्रोच कारगर रहा औऱ कई लड़के इसके लिए तैयार हो गये। सुखद पहलू यह रहा कि लड़कों की संख्या की तुलना में लड़कियां कम पड़ गयीं। तो रिमांड होम वालों ने राजधानी के रिमांड होम से शादी के लिए लड़कियां भेजने की अपील की ताकि उनका दांपत्य संसार सज सके। खबर इसी पर आधारित थी। मेरी समझ से खबर लिखने वाले ने कितनी सकारात्मक सोच के साथ यह खबर बनायी थी। बनायी थी कि नहीं? जो लड़कियों के बाप हैं, उनसे पूछिए, लड़का खोजना और लड़की की शादी करना कितना जहद्दम भरा काम है। अब नकारात्मक सोच देखिए। एक साथी की पहली टिप्पणी थी-ये क्या खबर है? जनसंख्या के मिजाज से लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या कम ही होती जा रही है, ऐसे में लड़के शादी के लिए क्यों न तैयार हों? और ऐसे लड़कों के लिए अब प्रशासन ढूंढ़कर लड़कियां उपलब्ध करा रहा है, बहुत बुरा कर रहा है। अखबार खबर छाप रहा है, अब क्या समाचार पत्र यही परोसेंगे? साथी वर्तमान दशा पर भीतर-भीतर काफी घुल भी रहे थे। मेरी समझ से यह उनकी नकारात्मक सोच थी। थी कि नहीं?
बहुत सारे लोग कल की चिंता में घुलते रहते हैं, आज भी खराब कर लेते हैं। जबकि, कल कभी आता है? आता तो आज है, गाता है, चला जाता है। कल क्या होगा कौन माने, अंजाम खुदा जाने। इस पर दूसरों को फिक्र करने दीजिए, आप तो सिर्फ हंसिए, जमाने पर नहीं, खुद पर भी नहीं, खुश होकर हंसिए। हंसी के बीच निकली सोच हमेशा सकारात्मक होती है। आपने देखा होगा कि लोग अकसर बॉस के मूड के बारे में पूछते रहते हैं। क्यों? लोग मानते हैं कि बॉस का मूड ठीक होगा तो बातें ठीक होंगी। यहां सकारात्मकता को पकड़ा जा सकता है। आदमी को सकारात्मक सोचों को दिशा देनी हो तो उसे खुश रहने की कला सीखनी होगी। जितना आप खुश रहेंगे, सोचें उतनी सकारात्मक होंगी। और आफको पता है, दुख और सुख विपरीतार्थक शब्द नहीं हैं। एक ही चीज के दो अनुपात है। रात में सोये थे, सुबह जगते, इसकी क्या गारंटी थी? जगे तो इसमें आपकी क्या भूमिका थी? तो जब जग ही गये तो आज जी लेने की कला सीखिए। जी लेने की कला सकारात्मक सोचों को विकसित करने से उपजती है। उपजती है कि नहीं? तो आपका दिल दरिया हो यानी उसमें सबकुछ बहा ले जाने की क्षमता हो, खुशियों में भी आंखें आंसू निकालती हों और दिमाग का दरवाजा हमेशा हर पहलू पर विस्तार से विचार करने को तैयार हो तो तब जाकर उपजती है सकारात्मक सोचें। तो देखा आपने बात बढ़ चुकी है। सकारात्मक सोचें खुशियों और शुक्रिया देने की आधारशिला पर ही टिकी होती हैं। व्यकित्त्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेंगी। अगली पोस्ट में 'शुक्रिया' पर विचार किया जायेगा।

अगर आप पहली बार सफल नहीं होते तो सारे प्रमाण नष्ट कर दो कि आपने कभी कोशिश भी की थी।

Tuesday, January 13, 2009

हां भैये हां, मैं झूठ बोलता हूं

मुकद्दस रूहों की कसम,
मैं झूठ नहीं बोलना चाहता,
झूठ बोलने वालों को फांसी होती है,
यहां न सही, वहां ही होती है, मगर
फांसी न चढ़ जाऊं, इसलिए माफ करना
मैं झूठ बोलता हूं ।
झूठ मत बोलना, कहा था मेरे बाप ने, गुरू ने,
मैंने देखा उन्हें बात-बात पर झूठ बोलते,
तो वादामाफ करना,
अनजाने में, मैं झूठ बोलता हूं ।
झूठ के दम पर टिके मीनारों की कसम,
उस चश्म, उस नज्म, उन बंजारों की कसम,
जिस नज्म में नकल की आदत शुमार है,
चंद मेहनत और पैसों की चाहत बेशुमार है,
जिसे देखने के लिए चश्मे की दरकार है,
किसी की भी हो, सरकार है, सरकार है,
जो बंजारों की बाजार है, बेकार है,
झूठ की बोली और झूठों की टोली,
सच की शान में छप्पन की गोली,
तो इंसाफ करना,
मैं झूठ बोलता हूं ।
उन ज्योतिष नजारों की कसम, मैं झूठ बोलता हूं ।
उन फिल्मी सितारों की कसम, मैं झूठ बोलता हूं ।
उन नकली हरकारों की कसम, मैं झूठ बोलता हूं ।
उन फर्जी पत्रकारों की कसम, मैं झूठ बोलता हूं ।
उन मिलावटी व्यापारों की कसम, मैं झूठ बोलता हूं ।
मकान हड़पने की चाहत लिए किरायेदारों की कसम, मैं झूठ बोलता हूं ।
अर्थेच्छु कलमकारों की कसम, मैं झूठ बोलता हूं ।
'मां' तक को नंगा करने वाले चित्रकारों की कसम, मैं झूठ बोलता हूं ।
हां भैये हां, हां, हां,
मैं झूठ बोलता हूं,
बोलता हूं मैं झूठ बोलता हूं, मैं झूठ बोलता हूं ।

(कविता पुरानी है, 6-11-1998 की रात में लिखी हुई, पर ताजा है, क्योंकि आज ही यह मेरी डायरी से निकलकर सार्वजनिक हो रही है । उम्मीद है, पसंद आयेगी । -कौशल)

माना कि चंदन मुफीद है दर्दे सर के लिए, पर चंदन लाना, घिसना, लगाना, दर्दे सर से कम है क्या ?

Sunday, January 11, 2009

हाथ में हथियार है तो काट डालें?

अमूमन दो ही प्रकार की सोचें हैं, जिनसे सांसारिक जीवन में आदमी पूरी उम्र जूझता है। जिसने इसका भेद पकड़ लिया और सही राह पकड़ ली, उसका जीवन रोशन हो गया, उसे मंजिले मकसूद मिल गयी। जिसे सफलता की मंजिल की ओर बढ़ना है, लक्ष्य तय करना है, उसे अपनी सोचों के भेद पर न केवल विचार करना होगा, बल्कि उन्हें नियंत्रित कर उन्हें एक दिशा देनी होगी और राह तय करनी होगी। व्यक्ति की सोचें दो अवधारणाओं पर टिकी होती हैं। वे या तो सकरात्मक हो सकती हैं या नकारात्मक (हालांकि, भारतीय दर्शन एक तीसरी सोच पर भी बल देता है। यह वह स्थिति है, जहां व्यक्ति सोचों से निवृत हो जाता है, बिल्कुल सपाट मस्तिष्क, कोरे कागज की तरह। अच्छा हुआ, ठीक। बुरा हुआ, ठीक। साधना, तपस्या और अध्यात्म के शिखर पर ले जाने वाली, भाव शून्य सोचों वाली, इस अवस्था पर भी कभी विस्तार से चर्चा होगी)। व्यक्तित्व विकास के लिए यह बड़ा महत्वपूर्ण है कि सकारात्मक और नकारात्मक सोचों को ठीक से पहचाना जाये और और सकारात्मक सोचों को विकसित किया जाय। लाख टके का सवाल जो उठता है, वह यह है कि सकारात्मक सोचें हैं क्या, इसे कैसे पहचानें, नकारात्मक सोचों से इसका भेद किस प्रकार तय करें?
मैंने देखा है, जब भी सकारात्मक सोचों पर किसी बुजुर्ग या विद्वान से चर्चा कीजिए, वे पानी से आधा भरे ग्लास का उदाहरण देकर गर्व से अपना सीना चौड़ा कर लेते हैं। वाह, क्या बोला मैंने। आपके सामने एक ग्लास है, जो पानी से आधा भरा हुआ है। विद्वानों का कहना है कि जो ग्लास को आधा भरा देखता है, वह सकारात्मक सोच रखता है। जो इसे आधा खाली देखता है, वह नकारात्मक सोच वाला है। मेरा मानना है कि भेद इससे बहुत स्पष्ट नहीं होता। इस भेद में कहीं न कहीं बड़ा छेद है। एक ग्लास आधा भरा है तो आधा खाली भी तो है। व्यक्ति की दृष्टि आधे भरे ग्लास के साथ उसके आधे खालीपन को भी देख पाती है तो मेरी समझ से तो यही बड़ी अच्छी बात है। किसी को आधा खाली ग्लास में सिर्फ उसका आधा भरा होना ही दिखाई दे, एक तो यह संभव नहीं, दूसरे यदि जबरदस्ती इसे संभव बनाया जाय तो मेरी समझ से यह एक बड़े तथ्य और स्थापित सच से इनकार करने वाली सोच है। है कि नहीं? सकारात्मक सोच का मतलब किसी सच को नकारना नहीं होता। एक बार इसकी आदत पड़ गयी तो आगे जीवन दुरुह होती चली जायेगी और मूल को पकड़ना, समझना और उस पर अमल करना बिल्कुल असंभव हो जायेगा।
तो फिर क्या है सकारात्मक सोच, जिससे व्यक्ति का व्यक्तित्व खिल उठता है? क्या है नकारात्मक सोच, जिससे व्यक्ति की मिट्टी पलीद हो जाती है, जीवन के मायनों में वह फेल हो जाता है, घृणा का पात्र बन जाता है? और सबसे महत्वपूर्ण सवाल कि नकारात्मक सोचों से किनाराकशी कर सकारात्मक सोचों के रथ पर कोई कैसे सवार हो? है न विचार करने की बात? फिलहाल मोटे तौर पर सकारात्मक और नकारात्मक सोचों को परिभाषित करने वाली जो विषय वस्तु है, उस पर विचार कीजिए। जिन सोचों से सहानुभूति, प्यार, परोपकार, स्वीकार, दोस्ती, आत्मीयता, विश्वास, भरोसा, सहजता और ईमानदारी का प्रस्फुटन होता हो, उन्हें सकारात्मक मानिये। जिन सोचों से हिंसा, द्वेष, घृणा, इनकार, दुश्मनी, अविश्वास, बेईमानी, चिंता व तनाव बढ़ते हों, उन्हें नकारात्मक मानिये। आपके हाथों में कोई घातक हथियार है तो इसका मतलब यह नहीं कि आप उससे मार-काट मचाने का ही काम करें। आप इसका इस्तेमाल किसी की रक्षा के लिए भी कर सकते हैं। तो हाथ में हथियार हो और उससे किसी का नुकसान न हो, बल्कि सोचों में हमेशा यह गूंजे कि इसे हमेशा किसी के रक्षार्थ ही इस्तेमाल करना है तो उस सोच को सकारात्मक मानिये। आपके पड़ोसी ने कार खरीद ली और रोज आपके सामने से वह धुआं उड़ाता फुर्र होता है। इस परिघटना से आप कार खरीदने का मन बना लें और उद्यम कर, पैसे इकट्ठा कर कार खरीद लें, तब तो यह सकारात्मक सोच है। पर, आप कार नहीं खरीद पाने की सूरत में पड़ोसी की कार को ऐन-केन-प्रकारेण क्षतिग्रस्त कर दें या करने की सोचें तो इस सोच को नकारात्मक मानिये। कुछ सूत्र हैं, कुछ उदाहरण हैं, जिनसे बातें और स्पष्ट होंगी। व्यक्तित्व विकास के इस महत्वपूर्ण पहलू पर अभी चर्चा जारी रहेगी।

किसी लकीर को छोटा दिखाना हो तो उसकी बगल में बड़ी लकीर खींच दीजिए।

Saturday, January 10, 2009

मैं रात में ही मर गया

जिगर को थाम कर किस्सा सुनो, मिला मुझको जो वो हिस्सा सुनो।
सुनाऊं मैं कहानी रात की वारदात की, मुफलिस जिंदगी व बेबस हालात की।
एक दिन ऐसा हुआ, मैं सिनेमाघर गया,
देखकर के भीड़ सुनो, जोश मेरा कम हुआ।
खिड़की के ही पास खड़ा था एक मुस्टंडा,
मूंछें उसकी लंबी थीं, हाथ में था डंडा।
उसकी ये आदत थी, भीड़ को भगाता था,
थोड़ी ज्यादा दे दो तो टिकट भी कटवाता था।
हालात की ये मांग थी, मैं गया उसी के पास,
आठ के बदले साठ देकर पूरी हो गयी मेरी आस।
छह से नौ का शो था, नौ बजे टुट गया,
बाहर निकला, पता चला कि भीतर में मैं लुट गया।
हाथ डाला जेब में, तो जेब बाहर आ गयी,
भीड़ में ही मैं गया था, भीड़ ही रुला गयी।
सोचा, इसकी रपट लिखवा दूं बगल के थाने में,
दारोगा जी गायब थे, मुंशी जी थे पाखाने में।
ऐ बेहूदे, कौन है, आवाज कानों में आयी,
घूमकर देखा तो एक पुलिस नजर आयी।
गाली मैं खा चुका था, बारी फिर पिटने की थी,
एक बार मैं लुट चुका था, बारी फिर लुटने की थी।
बड़ी गरीबी से वो बोला, थाने में क्यों आये हो?
काम क्या है, पास में माल कितना लाये हो?
जब सुना कि माल क्या, एक लाल न मेरे पास था,
मारा थप्पड़, चला गया, करने वो जो खास था।
सोचा, कि जब हाल ये है एक सिपाही का ऐसा,
तो मुंशी कैसा होगा और दारोगा होगा कैसा?
ये भी यह संयोग था, सड़क पर मिल गये एसपी,
जीप रोकी पास में और बोले- तूने क्या है पी?
रात इतनी हो गयी और सड़क पर टहलते हो?
बैठ जाओ जीप में, तुम हवालात में चलते हो।
क्या करूं बातें मैं हवालात के हालात की,
कोई न वहां कमी रही, न हवा की न लात की।
सीखचों से मैंने देखा, अपने नेता आये थे,
जिनको हमने वोट दिया था, जिनको हम जीताये थे।
हाथ में गलास था और पी रहे थे थाने में,
कह रहे थे, भेज दो इसको जनाजेखाने में।
और सुनो दोस्तों, मैं रात में ही मर गया,
एक उग्रवादी सुबह को, शहर से कम कर गया।


परछाई भी साथ छोड़ देती है, जब अंधेरा होता है।

Friday, January 9, 2009

आदमी ही है कि सोचता है

आपने कभी सोचा कि आदमी और पशु में क्या फर्क है? वह कौन सी ऐसी बात है जो आदमी और पशु को अलग-अलग श्रेणी में रखती है। काम की बात की जाय तो पशु वह सब करता है या कर सकता है, जो आदमी करता है या कर सकता है। वह खाता है, पीता है, सोता है, रोता है, जागता है, चिल्लाता है, दौड़ता है, श्रम करता है, हमला करता है, बचता-बचाता भी है। यहां तक कि वह प्रजनन की क्रियाओं में भी काफी शुद्धता के साथ (मौसम व साथी का मिजाज देखकर ही) लिप्त होता है। आदमी की तरह वह एक काम जो नहीं कर सकता (कोई-कोई पशु शून्यता की हद तक करता हो तो करता हो), वह यह कि वह सोच नहीं सकता। सोचकर किसी विवेकपूर्ण कार्य के बारे में तय नहीं कर सकता। तो है न सोचना एक विशिष्ट बात, जो ईश्वर ने इंसान को दिया?

अब आदमी सोचता है। जो जैसा है, जहां है, जिन परिस्थितियों में है, वह वहां उसी के अनुरूप सोचता है। बच्चा, किशोर, जवान, बूढ़ा, बीमार, यहां तक कि बेहोश व्यक्ति तक सोचता है। अब आपने सोचा कि सामने वालों को गाली दे दी जाय, आपने दी और पिट गये, बेइज्जत हो गये। आपने सोचा कि दारू पीकर थोड़ी मस्ती की जाय, आपने पी और गड्ढे में उलटकर सरेआम फजीहत करा बैठे, इज्जत मिट्टी में मिला ली। आपने सोचा कि नाराज चल रहे व दुश्मन बन चुके व्यक्ति से बात कर अपना पक्ष रख दिया जाय, माफी मांग ली जाय, नमस्कार कर लिया जाय, आपने किया और दुश्मनी खत्म, वह आपका मित्र बन गया।

तो आदमी जैसा सोचता है, वैसा करता है। करता है न? एक बच्चे का एक्जाम है, वह हाय-तौबा मचाये हुए हैं, मंदिर जा रहा है, भगवान को प्रसाद चढ़ा रहा है, कोर्स कंपलीट नहीं कराने को लेकर टीचर को कोस रहा है, पर पढ़ाई-पढ़ने के बारे में नहीं सोच रहा है। क्या वह पास कर पायेगा? एक व्यक्ति बॉस की डांट खा रहा है तो वह उदास है, निराश है, वह चारों तरफ अपना दीदा फाड़ रहा है, गुटबंदी कर रहा है, बॉस के बॉस से बॉस की शिकायत की सोच रहा है, पर वह अपनी गल्तियों के बारे में नहीं सोच रहा, अपना काम ऐन चौकस करने की नहीं सोच रहा है। तो क्या वह उचित सम्मान का भागी हो पायेगा, उसे उसका हक मिल पायेगा? तो यह बहुत जरूरी है कि सोचों की दिशा तय की जाय। क्या सोचना है और क्या नहीं सोचना है इस पर गंभीरता से विचार किया जाय। एक बार इस पर विचार करने का भान हो गया तो बातें खुद-ब-खुद आगे बढ़ने लगेंगी। इस लेख के माध्यम से मेरी कोशिश आपको जगाना भर ही तो है। व्यक्तित्व विकास के इस महत्वपूर्ण पहलू पर अभी चर्चा जारी रहेगी।

इस पर भी करें विचार - सोचें जब गहरी हो जाती हैं तो फैसले कमजोर पड़ जाते हैं।

Thursday, January 8, 2009

नक्कारेपन का परिणाम ही तो है लूट, दंगा, खून और इससे सनी राजनीति

श्री सुरेश चंद्र गुप्ता जी ने मेहनत पर कुछ और विचार रखने को प्रेरित किया है। उनकी जिज्ञासा यह जानने की है कि देश की राजनीति में चल रही 'गंदी राजनीति' का जवाब किस तरह से मेहनत हो सकती है। लेखों की यह सीरीज व्यक्तित्व विकास पर लिखी जा रही है, जिसके तहत सार्वजनिक व्यवहार में लागू किये जाने वाले बिन्दुओं पर विचार किया जा रहा है। यहां राजनीति से मतलब व्यक्ति विशेष के खिलाफ होने वाली गुटबंदी से था और श्री गुप्ता जी ने ठीक ही कहा, यह कार्यस्थल पर होने वाली घोर राजनीति से संबंधित था। बताया यह गया था कि ऐसी राजनीति से निपटने का आदमी के पास मेहनत ही सबसे बेहतर विकल्प हो सकता है। पर, श्री सुरेश गुप्ता जी ने जो मसला उठाया है, वह भी कम मौजूं नहीं है। यह सवाल आज एक-एक व्यक्ति के लिए विचार करने योग्य है और इसका निदान एक थोड़े और छोटे से सुझाव से कतई नहीं दिया जा सकता। इस बारे में मैं जो कहना चाहूंगा, वह सिर्फ इतना है कि यह देखने से पहले कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक नेता अपनी मनमानी आखिर कैसे चला पा रहा है, यह देखना क्या जरूरी नहीं है कि वह मनमानी चलाने की स्थिति में आखिर कैसे पहुंच कैसे जाता है, उसे वहां तक पहुंचा कौन देता है? क्या यह कहीं किसी के नक्कारेपन को नहीं उभारता? जी हां, मेरा साफ इशारा वोट डालने वाली जनता की ही ओर है। मुझे याद है, चारा घोटाला में जब लालू प्रसाद यादव जेल जा रहे थे तो उनके समर्थक (अधिकतर यादव जाति के लोग) उन्हें गुनाहगार मानते ही नहीं थे। वैसे लोग खुलेआम कहते चल रहे थे कि जगन्नाथ मिश्र जब पटना का गांधी मैदान, रेलवे स्टेशन बेच सकते हैं और करोड़पति हो सकते हैं तो लालू ने थोड़ा-बहुत घोटाला ही कर लिया तो कौन सी बड़ी आफत आ गयी? मौका मिला है तो खायेगा नहीं तो क्या करेगा?
आप देख सकते हैं गुप्ता जी, अपराधी चुनाव में खड़ा हो रहे हैं और जीत रहे हैं। जीत ही नहीं, गद्दी भी पकड़ते जा रहे हैं। तो जीतने के बाद वे क्या करेंगे? वे वही कर रहे हैं, जो उनकी प्रकृति है, प्रवृति है। तो उन्हें जीत की दहलीज पर पहुंचाने वालों को क्या कहा जाय? क्या उन्हें परिश्रमी माना जायेगा, मेहनती माना जायेगा, उद्यमी माना जायेगा? गुप्ता जी, पूरी कौम में नक्कारापन बज रहा है, उसी का परिणाम है-लूट-दंगा-खून और इन सब से सनी आज की राजनीति व राजनेता। लोगों को अपना लक्ष्य तय करना होगा, अपना श्रम तय करना होगा और उस पर मेहनत करनी होगी। इतना ही नहीं, मेहनत की रोटी खाने का संकल्प लेना होगा। तभी उपजेगी ईमानदारी और तभी अस्तित्व में आयेगा अनुशासन। फिलहाल राज्य, सत्ता औऱ श्रम पर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध रचना कुरुक्षेत्र से कुछ पंक्तियां पेशे खिदमत है, मुलाहिजा फरमाइए।
एक
छिपा दिये सब तत्व
आवरण के नीचे ईश्वर ने
संघर्षों से खोज निकाला
उन्हें उद्यमी नर ने।

दो
ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में
मनुज नहीं लाया है
अपना सुख उसने अपने
भुजबल से ही पाया है।

तीन
प्रकृति नहीं झुकती है
कभी भाग्य के बल से
सदा हारती वह मनुष्य के
उद्यम से, श्रमजल से।

चार
नर समाज का भाग्य एक है
वह श्रम, वह भुजबल है
जिसके सम्मुख झुकी हुई
पृथिवी, विनीत नभ तल है।

पांच
श्रम होता सबसे अमूल्य धन
सब जन खूब कमाते
सब अशंक रहते अभाव से
सब इच्छित सुख पाते।

छह
राजा-प्रजा नहीं कुछ होता,
होते मात्र मनुज ही,
भाग्य लेख होता न मनुज को
होता कर्मठ भुज ही।
फिलहाल इतना ही। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। जैसा कि पिछली बार भी कहा गया था, अगली पोस्ट में सकारात्मक सोच पर ही विचार पेश किये जायेंगे।
भूख इंसान को गद्दार बना देती है।

Tuesday, January 6, 2009

हर राजनीति का जवाब मेहनत

यह मेरा तकियाकलाम है, जो कई वर्षों से मेरी जुबान पर है। देखिये मौका आ गया इस पर कुछ लिखने का। मैंने तो बस इतना ही जाना है कि ऐसा एक शब्द नहीं लिखा जा सकता, जो लिखा न गया हो, एक शब्द नहीं बोला जा सकता, जो बोला न गया हो। सब कुछ पूर्व में घटित हो चुका है। मगर, आदमी भूल जाता है। युधिष्ठिर-यक्ष संवाद में आश्चर्य का यही तो जवाब आया। जब यक्ष ने पूछा कि आश्चर्य क्या है तो युधिष्ठिर ने कहा-लोग हर दिन अपनों या किसी न किसी को मरते देखते हैं, पर अपनी मौत को भूल जाते हैं, यही आश्चर्य है। तो जो बातें लिखने जा रहा हूं, मुझे पता है कि आप सबको इसके बारे में पता है, पर जिंदगी के झंझावातों में इस पर जो धूल-गर्द आ गयी, उसे झाड़े जाने के ख्याल से यह विचार प्रस्तुत है।
बचपन में ही पढ़ा था-लेबर नेवर गो इनवेन यानी परिश्रम कभी बेकार नहीं जाता। जरा सोचिए, दुनिया में कौन सी ऐसी सफलता है, जो बिना परिश्रम के हासिल की गयी। परिश्रमी व्यक्ति पत्थर को पीसकर मिट्टी बना देता है और उस पर फूल उगा लेता हैं। तो सूत्र यह है कि यदि आप व्यक्तित्व विकास की दिशा में कार्यरत हैं तो परिश्रम को अपने प्रोग्राम में सबसे ऊपर रखना होगा। एक बच्चे को कोई एक्जाम पास करना है। उसे इसके लिए कठोर मेहनत के साथ तैयारी करनी होगी। उसका परिश्रम ही उसकी सफलता और विफलता तय कर देगा। करेगा कि नहीं?
मुझे एक बार लगा कि मैं जो सोचता हूं वह गलत है। यानी व्यक्तित्व विकास के लिए व्यक्ति को परिश्रमी होना जरूरी नहीं है। मेरे पेशे की ही एक बड़ी और आदरणीय हस्ती के साथ एक बार मैं बोलेरो में लंबी और दिनभर की यात्रा पर था। वे वाहन में अगली सीट पर बैठे थे, जबकि एक साथी के साथ मैं उनके पीछे। बातें साहित्य पर चल रही थीं। फिर जीवन पर चर्चा होने लगी। मौसम सुहाना था। आलम सुबह का था। इसी बीच मैंने उनसे पूछा, सर, दफ्तर की राजनीति से कोई कैसे बचे? बुजुर्गवार चुप हो गये। मुंह में मसाला था, पीक को बिना फेंके मुंह ऊपर उठाकर उन्होंने सिर्फ एक शब्द कहा-मेहनत। मैंने कहा-कैसे? उन्होंने चलती गाड़ी में गेट खोला, पीक फेंकी और गेट बंद कर लंबी सांस लेते कहना शुरू किया। मेहनत ही वह चीज है, जिसे उपेक्षित नहीं किया जा सकता। मेहनती व्यक्ति छुपा नहीं रहता। आखिर पूरी दुनिया में मेहनती व्यक्ति की ही तो खोज चल रही है। जब आप मेहनती होंगे, अपना काम डूब कर करेंगे तो निश्चित रूप से उसका परिणाम भी दिखेगा। जब आपकी मेहनत का परिणाम चारों ओर दिखने लगेगा तो आपके खिलाफ बोलने वाले क्या बोलेंगे? आपने जो किया, क्या उसे कोई छिपा सकेगा? आपको पता भी नहीं चलेगा और आपके विरोधियों की जमात में ही आपके समर्थक पैदा हो जायेंगे। और सबसे बड़ी बात, थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि आपकी मेहनत पर कहीं किसी जगह राजनीति हावी हो गयी। पर, क्या आपके लिए दुनिया वहीं खत्म हो गयी, जीवन वहीं रुक गया? नहीं न? तो जब दूसरी जगह आप जायेंगे तो वहां किस दम पर आप अपना मुकाम तलाश सकेंगे? निश्चित रूप से मेहनत के बल पर ही। वे चुप हुए और मेरे ख्याल में सूत्र वाक्य गूंजा- दुनिया में हर राजनीति का जवाब है मेहनत, सिर्फ मेहनत। मैं कहना चाहूंगा, मेहनत करते जाइए, फल निश्चित रूप से बेहतर ही आयेगा। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी तो यही कहा था-कर्म किये जा, फल की इच्छा मत कर ऐ इंसान....। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। आपकी सोचों में कूट-कूट भरी हो सकारात्मकता पर विचार अगली पोस्ट में पेश किया जायेगा।

बड़ी-बड़ी बातें करने वालों को ख्याल भी नहीं रहता कि जिंदगी छोटी-छोटी चीजों से चलती हैं। मसलन, सुबह-शाम चार-चार रोटियां, थोड़ी सी सब्जी-सालन और दिन भर में चार-पांच लीटर शुद्ध पानी मिल जाय, जीवन चलने के लिए बस इतना ही काफी है।

Saturday, January 3, 2009

टार्गेट हैं तो टार्गेट ओरियंटेड जाब कीजिए

व्यक्तित्व विकास से जुड़े जिन पहलुओं पर चर्चा शुरू हुई है, उसका अगला विषय है टार्गेट। कब कौन प्रबंधन या बास का टार्गेट बन जाय, कहना मुश्किल है। यहां टार्गेट का मतलब भविष्य के प्रति भय पैदा करने के अर्थ में है। यानी यदि आप बास या प्रबंधन के टार्गेट पर हैं तो आपके साथ कुछ भी हो सकता है। आपके हर काम में मीन-मेख निकालकर आपको सरेआम अपमानित किया जा सकता है। आप कितने भी काबिल हों, पर महत्वपूर्ण मसले पर आपसे विचार-विमर्श न कर आपकी उपेक्षा की जा सकती है। यहां तक कि वेतन बढ़ोतरी के दौरान आपकी काबलियत को दरकिनार कर आपसे नाकाबिल कर्मचारी को तरजीह दी जा सकती है, उसे प्रोन्नत किया जा सकता है। यह ऐसी दुनियावी बातें हैं, जिससे हर कोई कहीं न कहीं रूबरू होता है और इस मसले को लेकर सुबह, दोपहर, शाम, रात सब खराब करता है। सवाल उठता है कि क्या करना चाहिए?
व्यक्तित्व विकास से जुड़े इस महत्वपूर्ण पहलू पर आम तौर पर एक्सपर्ट सुझाव नहीं मिलते, क्योंकि टार्गेट पर आने की वजहें जुदा-जुदा परिस्थितियों में जुदा-जुदा होती हैं। कोई जाति के नाम पर टार्गेट बन जाता है। कोई स्वाभिमान को लेकर टार्गेट बन जाता है। किसी की विद्वता खटक जाती है। बास को देखते हड़बड़ा आप खड़े नहीं हुए कि टार्गेट पर आ गये। आपने नये कपड़े, नये वाहन भी आपको टार्गेट पर ला सकते हैं।
दरअसल व्यक्ति की बहुत सारी चीजें सार्वजनिक नहीं होतीं, व्यक्ति उन्हें सार्वजनिक कर भी नहीं सकता। 1999 की बात है। मेरे एक सीनियर साथी सिर्फ इसलिए टार्गट पर आ गये, क्योंकि उन्होंने एक सेकंड हैंड वेस्पा स्कूटर खरीदा था। मुझे पता था कि वे घर गये थे और बैल व भूसा बेचकर कुछ पैसे लाये थे। बाकी पैसों का उन्होंने साथियों से जुगाड़ कर वाहन खरीदा था। उनके साथ जो हुआ, उसके विस्तार में न जाकर मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा कि साथी के साथ-साथ मैं और मेरे जैसे अन्य सहयोगी काफी दिनों तक दुखी रहे। नतीजा-हमलोगों ने संस्थान बदल दिया। उस संस्थान का हश्र क्या हुआ, कहना नहीं चाहूंगा। निश्चित रूप से आज अच्छी स्थिति में नहीं है।
चर्चा में भटकाव के लिए माफी के साथ मुख्य बिंदु पर आता हूं। कहना यह है कि यदि आपको लगता है कि आप टार्गेट पर हैं तो आपको टार्गेट ओरियंटेड जाब करना होगा। क्या है टार्गेट ओरियंटेड जाब? इसे गंभीरता से समझकर इस पर विचार करने की जरूरत है। आपको हमेशा देखना होगा कि आप जहां काम कर रहे हैं, जो जिम्मेवारियां आपको वहां सौंपी गयी हैं, उस पर आप कितने खरे उतर रहे हैं। इस बात का ख्याल करना बिल्कुल छोड़ दीजिए कि आप जाति विशेष को लेकर टार्गेट हो रहे हैं, या आपका परिधान या वाहन बास को पसंद नहीं आ रहा। आपके ख्याल में सिर्फ और सिर्फ काम होना चाहिए। आपके हर काम में परफेक्शन होना चाहिए। जी हां, आपको मान लेना होगा कि आप बास के टार्गट पर हैं। इससे आंखें मत चुराइए। आंखें बंद कर लेने से समस्याएं हल नहीं होतीं। पहले मानिए कि आप टार्गेट पर हैं और फिर वही काम पूर्णता-दक्षता से कीजिए जिस काम को लेकर आपको टार्गट बनाया जा रहा है या बनाया जा सकता है। निश्चित रूप से इसके लिए आपको मेहनत करनी होगी। अपने फील्ड में एक्सपर्ट बनना होगा। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। अगले पोस्ट में मेहनत पर कुछ विचार रखना चाहूंगा।
नेवर लेट ए फ्रेंडली फाक्स इनटू योर हेन हाउस, वन डे ही विल गेट हंग्री... (किसी लोमड़ी दोस्त को अपने मुर्गियों के दड़वे में मत जगह दें, एक न एक दिन वह भूखा हो जायेगा और ....)

Friday, January 2, 2009

भूल से भी एक कंकड़ मत उछालना यारो

भूल से भी एक कंकड़ मत उछालना यारो,
हजारों पत्थर आकर तेरे सर पड़ेंगे।
ऐसा कोई घर नहीं, जिसमें तुम छुप सको,
पनाह देने वाले ही तुमसे लड़ पड़ेंगे।
नाजो अदा से जिन्होंने तुम्हें पाला था,
मौका-ए-वारदात पर वे मुकर पड़ेंगे।
तंग कश्ती है, तंग बस्ती है और तंग मस्ती है,
बच्चों को मत बताना, वे डर पड़ेंगे।
बच्चों को ये बताना कि खेल ही है दुनिया,
वरना नादानगी में वे कुछ कर पड़ेंगे।
लोग कहते हैं, कौशल, तुम बड़े मुंहफट हो,
मेरी मुहब्बत के अंजाम पे लोग मर पड़ेंगे।
मैंने जाना है चेहरे पे लगे चेहरों की हकीकत,
कह दूं, तो बिना आंधी कई मकां उजड़ पड़ेंगे।
भूल से भी एक कंकड़ मत उछालना यारो,
हजारों पत्थर आकर तेरे सर पड़ेंगे।
( नोट - ये पंक्तियां दुष्यंत साहब की रचना - एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो - से प्रेरणा पाकर लिखी गयीं। विचारार्थ प्रकाशित कर रहा हूं। आपकी कोई भी टिप्पणी - सकारात्मक या नकारात्मक - शिरोधार्य होगी। - कौशल)
आप
मुझे उस व्यक्ति को दिखायें, जिसे आपने सम्मानित किया है। मैं आपके बारे में सबकुछ बता दूंगा।

Thursday, January 1, 2009

दोस्तों को सलाम, दुश्मनों को सलाम

A Happy New Year To You.
May God Allow To Receive All Subjective Joys & Happiness.
ईश्वर आपको खुशियों का वर दें,
आपके सभी दुखों को हर लें,
इरादा ऐसा दें मालिक आपको, कि
हमेशा दूसरों की गल्तियां अपने सर लें।

नेक इरादे से किये गये काम का परिणाम हमेशा नेक ही आता है।